दो मुखों वाला विहंग भारण्ड निरभ्र सिन्धु तट पर निवास करता। सागर उद्दाम वेग से कभी जल राशि तट से दूर तक फेंकता और सभी स्वयं ही वापस समेट लेता। इस आरोह−प्रत्यारोह में वह बहकर आये हुये अनेक फल तट पर छोड़ जाता। भारण्ड उन्हीं से अपना आहार चलाता और सुखमय जीवन व्यतीत करता।
दीर्घकाल तक यही क्रम चलता रहा; किन्तु एक दिन एकाएक अनहोनी हो गई। आये हुये समुद्री−ज्वार ने एक ऐसा मधुर फल तट पर छोड़ा जैसा भारण्ड ने पहले कभी नहीं देखा था। उसने फल का स्वाद चखा तो मानों उसे अमृत ही मिल गया। जिस मुख से उसने उस फल का रसास्वादन किया स्वार्थ बुद्धि ने उसे बदलने तक से इनकार कर दिया। दूसरे मुख ने कातर दृष्टि से देखते हुये प्रथम से अनुनय की। तात! मैं भी तो तुम्हीं से सम्बद्ध हूँ। और दिन भी तो हम दोनों साथ साथ स्वाद चखा करते थे बन्धुवर आज अचानक ही मुझसे यह छल क्यों कर रहे हैं।
अपनी बुद्धिमत्ता दर्शाते हुए प्रथम मुख ने कहा आर्य! तुमने खाया या मैंने, बात एक ही है, रुधिर संचार गति एक है, जीवन और प्राण एक है। अतएव तुम्हारे खाने न खाने से अन्तर ही क्या पड़ेगा। यह देखो अब जो भाग शेष बचा है उसे अपनी भारण्डनीय को ले चलते हैं। चलो चलो इस विवाद में कितना विलम्ब हुआ बेचारी क्षुधा से व्याकुल होगी।
दूसरा मुख अपमान का घूँट पी कर रह गया। फल दूसरे मुख में लगा था। कुछ कर भी नहीं सकता था; पर भीतर ही भीतर उसका अहंकार सुलग उठा और बदला लेने के अवसर की खोज करने में लग गया।
कुविचार की जड़ें जब सुदृढ़ हो जाती हैं। तो कुकर्म होते देर नहीं लगाती। नियम व्यवस्था हर दिन एक सी नहीं रहती एक दिन ऐसा भी हुआ कि समुद्र कहीं से अपने साथ विष−फल बहा लाया और अपने ज्वार के साथ उसे उसी तट पर छोड़ गया जहाँ भारण्ड निवास किया करते थे। दूसरा मुख इसी ताक में तो था ही उसने अवसर आया जान तत्परता से काम किया और उस विष फल को अविलम्ब उठा लिया।
परिणाम आँखों के आगे तड़ित गति से नाच गया। प्रथम मुख ने एक प्राण और समान हित होने का बोध कराते हुये कहा−तात! आप इसका भक्षण न करें अन्यथा हम दोनों का अवसान सुनिश्चित है। प्रथम मुख दर्प भरी हँसी−हँसा और बोला−बंधुवर! वह दिन याद करो जब मैंने भी तुमसे ऐसी ही याचना की थी, तुम मुझे उपदेश तो देते रहे किन्तु यह नहीं बन पड़ा था कि उपलब्ध सुख का एक कण मुझे भी दे देते अब अभिष्ट से क्यों डरते हो जैसा किया वैसा भरने को भी तैयार हो जाओ। यह कहते हुये उसने विष−फल एक बार में ही उदरस्थ कर लिया।
भारण्ड की मृत्यु हो गई। शोकाकुल भारण्डनीय सिन्धु तट पर बैठी रुदन कर रही थी तभी अम्बुधि की एक उर्मि वहाँ तक आई और बोली−भामिनि! जो केवल अपने स्वार्थ के लिये औरों की उपेक्षा करते हैं वह तथा जो प्रतिशोध की ज्वाला में निरंतर जलते और अपनों को ही भिन्न मानकर नीचा दिखाते रहते हैं दोनों ही निन्दा के पात्र हैं ऐसे निन्दनीय के प्रति दुःख नहीं किया करते।
सागर−पुत्री अपने घर लौट गई पर भारण्डनीय यह सोच कर अब भी विलाप कर रही है कि आने वाली नियति कौन जाने इस पूर्वाग्रह के पाप से मुक्त होगी भी या नहीं।