महाभिक्षु पराभूतो

March 1978

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तथागत आज अपनी ही जन्मभूमि कपिलवस्तु पधारे हैं। शाक्यों का उत्साह उमड़ पड़ा, उन्होंने राजधानी को नव−वधू की तरह तोरण−वन्दनवारों, लता, वल्लरियों और पद्म प्रसूनों से सजाया है। महाराज शुद्धोधन अत्यन्त कृश हो गये हैं, आयुष्य का प्रभाव उतना नहीं है जितना पुत्रवियोग की पीड़ा ने थका दिया है, किन्तु आज उनकी जीर्ण काया में भी नव−जीवन संचरित हो उठा है, आँखों में यौवन की चमक आ गयी है। उन्होंने स्वयं ही सारी व्यवस्था का निरीक्षण किया। हर रचना में राजकुमार का किशोर रूप आँकता है तो महाराज की आँखें बरबस बरसने लगती हैं। फिर नया उल्लास जगता है आज वही मेरा राजकुमार तो आ रहा है फिर उनका भिक्षु रूप−उनसे भेंट−पुनः विदाई की नीरवता महाराज का मन इसी तरह उद्वेलित हो रहा है।

राजमाता की भी स्थिति ऐसी ही है। राजकुमार राहुल ने अभी तक कभी भी अपने पिता को नहीं देखा, प्यासे हिरण−शावक की तरह बार−बार उनकी दृष्टि राज पथ पर दौड़ती है और सिकता भ्रम की तरह भटक−भटक कर लौटती है। यदि राजमहल के किसी प्रकोष्ठ में शान्ति है, निश्चलता है, मौन है तो वह महारानी यशोधरा का अन्तःपुर है। शुभ्र श्वेत वेश भूषा में आज वे साकार तपमूर्ति प्रतीत हो रही हैं−सभी जानते हैं इस सागर का अन्तर्मन्थन झंझावात खड़ा कर देने वाला है, अतएव उस निश्छल नीरवता को कोई भंग करने का साहस नहीं करता।

नियत समय पर भगवान् बुद्ध का पदार्पण हुआ। भिक्षु वेष में देखकर नगर निवासियों की आँखों के सरोवर फूट पड़े हैं, कोई किसी से कुछ कहता नहीं। सारी कपिलवस्तु शोक के अथाह सागर में डूब गई है।

राजभवन का सभा मण्डप धार्मिक प्रवचन की यहीं व्यवस्था की गई। एक ओर तथागत के लिए उन्नत मञ्च उनके सम्मुख ही राजपरिवार के लिए आसन−एक ओर सम्भ्रान्त दूसरी ओर प्रजाजन। सब निस्तब्ध, भगवान् के अमृत उपदेशों की तृषा−महाराज शुद्धोधन ने आकर अपना स्थान ग्रहण किया। महाप्रजापति गौतमी, राहुल और मंत्रिपरिषद् एक−एक कर सभी विराज गये। किन्तु भगवान् बुद्ध जिसे खोज रहे हैं वह मूर्ति? हाँ यशोधरा नहीं आई। उन्होंने निश्चय किया है यदि वे आयेंगे तो उनकी पूजा करूंगी, किन्तु जाऊँगी नहीं, भारतीय नारी जिस तरह कोई अपराध नहीं कर सकती उसी तरह उसका स्वाभिमान भी अडिग रहता है।

भगवान् का धर्म−प्रवचन प्रारम्भ हुआ। ईश्वर, जीव और जगत है कि श्रद्धा ज्ञान के रूप में भक्ति वैराग्य के रूप में परिणत हो रही है, किन्तु बोधि सत्व आज अपने ही अन्तर्द्वन्द्व से पराभूत हो रहे हैं। यशोधरा का न आना उनकी स्मरण शक्ति को विवाह मण्डप में खींच ले जाता है और कहता है− संसार को धर्म का उपदेश करने वाले तथागत! एक दिन तुमने अग्नि की साक्षी में वचन दिया था देवि! मैं तुम्हें अर्द्धांगिनी के रूप में ग्रहण करता हूँ। यावज्जीवन तुम्हारा भरण पोषण और निर्वाह करूंगा? क्या यही थी तुम्हारी प्रतिज्ञा जो तुम मुझे सोता हुआ छोड़कर भाग गये?

उपदेश समाप्त हुआ। कोई नहीं जानता आगे क्या होगा। तथागत अपने आसन से उठते हैं अंतर्द्वंद्व तभी शान्त होगा। जब वे स्वयं यशोधरा के द्वार पर जाकर क्षमा याचना करेंगे। राज भवन सिसकियों से भरा हुआ है। बोधि सत्व सीधे यशोधरा के पास पहुँचे। करुणा और तपश्चर्या की मूर्ति यशोधरा ने प्रणिपात किया। मन की सम्पूर्ण वेदना सागर वन कर उमड़ पड़ी। तथागत के पैर धुल गये किन्तु पश्चाताप नहीं। वह तभी धुला जब उसने स्वयं यशोधरा से क्षमा याचना की−देवि! संसार के कल्याण के लिये यह आवश्यक था, तथापि आज मैं तुम्हारी तपश्चर्या के आगे पराभूत हूँ। तुम्हारी तपश्चर्या चिरकाल तक इस देश जाति और संस्कृति को जीवन देगी।

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