ब्रह्म वर्चस् और वानप्रस्थ

March 1978

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ब्रह्म वर्चस् साधना सत्रों में उच्चस्तरीय साधना एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था व्यक्ति निर्माण तथा युग परिवर्तन के उच्चस्तरीय उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए की गयी है। उसे कम समय अथवा छुट-पुट प्रयासों से पूरा नहीं किया जा सकता। परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के लिए उसे खण्डों में विभाजित तो किया जा सकता है, किन्तु उन्हें भी एक सीमा तक छोटा किया जा सकता है। उसकी न्यूनतम अवधि दो माह रखी गयी है। उससे कम से प्रायश्चित्त, योग साधना, तपश्चर्या एवं प्रशिक्षण की धाराओं को समुचित महत्व दिया जाना सम्भव नहीं।

यों इन सत्रों में प्रवेश के लिए किसी भी वयस्क व्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं है, किन्तु उसके लिए अधिक उपयुक्त वही रहेंगे जिन के विचारों में प्रौढ़ता आ गयी है, और साधना जिन्हें पर्याप्त अनुभव है। साधना में थोड़ी ही देर में जिनका चित्त उचटने लगे, गम्भीर अध्ययन एवं चिंतन से जो पल्ला बचाकर चलना चाहें, साधना काल में जिनका मन सांसारिक आकर्षण अथवा उत्तरदायित्वों की ओर भाग−भागकर जाये, उन्हें इस प्रक्रिया का समुचित लाभ मिलना शायद ही सम्भव हो।

वास्तव में इस स्तर की लोक मंगल परक एवं आत्मोत्कर्ष की साधनाएँ वानप्रस्थों के लिए ही अनुकूल पड़ती है। साधना के लिए लम्बा समय लौकिक उत्तरदायित्वों से पूर्ण नहीं तो आंशिक मुक्ति के बिना इस दिशा में सुनिश्चित गति सम्भव नहीं। अस्तु ब्रह्मवर्चस् साधना को प्रकारान्तर से वानप्रस्थ साधना भी कह सकते हैं। आयु की शर्त छोड़ भी दी जाय तो भी मनःस्थिति तथा परिस्थितियों की दृष्टि से वानप्रस्थ स्तर के व्यक्ति ही इसके लिए अपेक्षित है।

इस संदर्भ में एक तथ्य और भी ध्यान रखने योग्य है, वह यह कि हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए घर का मोह छोड़ना पड़ता है। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद को मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा। इस स्थान परित्याग को हिजरत कहा गया और उसी की स्मृति में हिजरी सन् चला। ईसा मसीह यरुशलम छोड़कर अन्यत्र कार्य करते रहे। बुद्ध ने कपिलवस्तु छोड़ी, आद्य शंकराचार्य ने केरल, जैन धर्म के संस्थापक महावीर और सिक्ख धर्म के प्रणेता नानक अपनी जन्म भूमि में नहीं रहे थे। सन्तों की तरह अवतारों का कार्य क्षेत्र भी अन्यत्र ही रहा है। कृष्ण मथुरा में जन्मे, उज्जैन में पढ़े, इन्द्रप्रस्थ में रहे, कुरुक्षेत्र में लड़े− द्वारिका में बसे और वेराबल में स्वर्ग धाम सिधारे। राम अयोध्या में जन्मे, विश्वामित्र आश्रम में पढ़े, वनवास में रहे और अन्ततः वानप्रस्थ की अवधि आने पर चारों भाई गुरु वशिष्ठ के समीप हिमालय पर रह कर साधना करते हुए ब्रह्म लोक गये। वशिष्ठ जी का स्थान वशिष्ठ गुफा के रूप में अभी भी विद्यमान है। इस क्षेत्र में ही देव प्रयोग में राम, लक्ष्मण झूला में लक्ष्मण, ऋषिकेश में भरत, मुनि की रेती में शत्रुघन के तप कुटीर थे।

उपरोक्त उदाहरणों से सिद्ध होता है कि लक्ष्य आत्मोत्कर्ष हो या लोक कल्याण, दोनों में ही व्यक्ति को स्थानीयता का मोह छोड़ कर भिन्न क्षेत्र से सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। उपयुक्त वातावरण का लाभ उठाना अथवा सीमित छोड़कर व्यापक कार्यक्षेत्र पकड़ना इसके बिना सम्भव नहीं। इसी लिए वानप्रस्थों को घर छोड़कर रहने एवं परिव्राजक का क्रम अपनाने के लिए जाता रहा हैं। इसी आधार पर भारतीय संस्कृति की कीर्ती पताका सारे विश्व में फहराई जा सकी थी।

अतीत का भारतीय गौरव प्रधानतया वानप्रस्थ परम्परा की आधार शिला पर खड़ा रहा है। पूर्वार्ध भौतिक प्रयोजनों के लिए और उत्तरार्ध अध्यात्म प्रयोजनों के लिए। जीवन सम्पदा का विभाजन अत्यन्त ही महत्व पूर्ण। इससे लोक और परलोक दोनों ही सधते हैं। इसमें व्यक्तित्व का−परिवार का और समाज का सुसंतुलित साधना होता है। भौतिक उत्तरदायित्व अधेड़ होने तक निपट जाने चाहिए तदुपरान्त आत्मा और परमात्मा के प्रति देश धर्म समाज और संस्कृति के प्रति जो महान जिम्मेदारियाँ मनुष्य के कन्धे पर रहती हैं उन्हें पूर्ण करना चाहिए। इसी में स्वार्थ और परमार्थ की समन्वित पूर्ति होती हैं। यह जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का उचित, सरल और मध्यम मार्ग है।

संचित कुसंस्कारों के निराकरण के लिए तपश्चर्या−आत्मिक विभूतियों के अभिवर्धन के लिए योगाभ्यास−तत्वदर्शन के लिए आत्मज्ञान की समन्वित साधनों को देवत्व से भरा−पूरा त्रिवेणी संगम कहा गया है। उसका अवगाहन ही आत्मकल्याण और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है उस पर चल पड़ना वानप्रस्थ स्थिति में ही समग्र रूप से बन पड़ता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति का त्रिविधि समागम ठीक इसी काल में होता है। त्रिपदा गायत्री की उच्चस्तरीय साधना तीसरेपन की इसी अवधि में ठीक तरह बन पड़ती है। बचपन का अल्हड़पन−जवानी का उन्माद−बुढ़ापे की विक्षिप्तता में अपने अपने ढंग की विषमताएँ छाई रहती हैं। साधना के लिए सन्तुलित वय वानप्रस्थ की ही है। जिस किसी ने आत्म समुद्र मन्थन से जो महत्वपूर्ण रत्न पाये हैं उसमें वानप्रस्थ स्तर की साधना ही प्रमुख रही है।

आत्म कल्याण और लोक कल्याण के आधार पर ही आत्मा और परमात्मा का जीवन को सार्थक बनाने वाला संयुक्त वरदान मिलता है। कषाय कल्मषों को निरस्त करने वाली तपश्चर्या इन्हीं दिनों ठीक तरह बन पड़ती हैं। प्राचीन काल में भारत भूमि को देवभूमि बनाने का श्रेय वानप्रस्थों को ही था। परिष्कृत प्रतिभा के धनी होने के कारण वे ही सच्चे और सफल लोक सेवियों की भूमिका निभाते थे। देश के कोने−कोने में−विश्व के क्षेत्र−क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों का आरोपण और अभिवर्धन करने में कुशल माली की तरह वे ही निरंतर जुटे रहते थे। उन्हीं के पुरुषार्थ से शालीनता की परम्पराएँ फलती−फूलती थीं। उसी महक से यह विश्व उद्यान हरा−भरा शोभा, सुषमा युक्त बना रहता था। असंख्यों निस्वार्थ एवं परिपक्व सार्वजनिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता इसी परम्परा द्वारा पूरी होती है। नर रत्नों की कृषि करने और विभृतियों के भण्डार भर देने वाली यही खदान थी। आज वह प्रचलन धूमिल हो गया तो सब ओर अन्धेरा ही अन्धेरा छाया हुआ है। समय ने वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने की माँग की है। मानवी संस्कृति की प्राण रक्षा के लिए संजीवनी बूटी का काम इसी नव−जागरण एवं पुनर्निर्धारण से सम्भव हो सकेगा।

उच्चस्तरीय निर्माण अल्प समय में सम्भव नहीं होता। आयुर्वेदिक औषधियों को देर तक घोंट कर एवं बार−बार पुटि देकर सशक्त बनाया जाता है। अस्तु भारतीय गौरव की पुनः स्थापना कर सकने योग्य प्रखर व्यक्तित्वों के निर्माण कर सकने योग्य प्रखर व्यक्तित्वों के निर्माण के लिए भी सामान्य की अपेक्षा अधिक समय लगाया जाना आवश्यक है। सामान्य दृष्टि से तीर्थ यात्री 2-4, दिन के लिए भी जाते हैं, पर विशेष लाभ पाने के इच्छुक दीर्घ प्रवास के लिए ही जाते रहे हैं।

काशी, अयोध्या, मथुरा आदि में निवास करने के लिए अभी भी कितने ही वृद्ध जन यह व्रत लेकर पहुँचते हैं कि वहाँ से फिर वापिस न लौटेंगे। बृज क्षेत्र में इन दिनों हजारों बंगाली इस संकल्प के साथ रह रहे हैं। कि मरण पर्यन्त वे इसी पवित्र भूमि में रहेंगे और कहीं शरीर का त्याग करेंगे। ‘काशी करवट’ के सम्बन्ध में मान्यता है कि वृद्धावस्था में वहीं जाकर रहने और प्राण त्याग करने वाला शान्ति सद्गति पाता है। कई व्यक्ति जब मरणासन्न होते हैं तब यह इच्छा व्यक्त करते हैं कि उनका शरीर त्याग उसी तीर्थ की पवित्र भूमि में सम्पन्न हो। जो नहीं जा पाते, उनके मृत शरीर की अस्थियाँ और भस्मी हरिद्वार, प्रयाग जैसे तीर्थों में प्रवाहित की जाती है। इस प्रचलन का एक मात्र कारण यही है कि तीर्थों के वातावरण में जीवित या मृत शरीर का निवास जितने समय हो उतना ही उत्तम हैं। पुराणों में तीर्थ निवास का महात्म्य और प्रचलन असाधारण रूप से वर्णन किया गया है। कई बार तो लगता है कि यह अलंकारिक और अत्युक्ति पूर्ण है। स्कन्द पुराण में तो तीर्थ खण्ड के अन्तर्गत इस प्रकार के महात्म्यों की ही भरमार है।

इस प्रतिपादन पर तात्विक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि तीर्थों में निवास करने की बात पर जोर देने का कुछ ठोस कारण है। यदि किसी भूमि, या नदी, पर्वत, मन्दिर आदि की ही महिमा गाई गई होती तो निश्चय ही वह अत्युक्ति पूर्ण कही जाती किन्तु तीर्थ का स्वरूप आज जो भी हो प्राचीन काल में अत्यन्त उच्चस्तरीय था। वहाँ श्रेष्ठ मनीषियों का निवास था। उनके आश्रम थे। उन आश्रमों में लोगों के लिए सद्ज्ञान शिक्षण और आत्मोत्कर्ष के साधनों का समुचित प्रबन्ध था। जो वहाँ आते, ठहरते थे वे पर्यटक नहीं होते थे वरन् मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने और आत्मिक प्रगति का आधार प्राप्त करने के लिए ही आते थे। उनका सोद्देश्य आगमन पूर्णतया सार्थक भी होता था।

गंगा के किनारे, हरिद्वार में ब्रह्मवर्चस् आरण्यक की स्थापना के पीछे साधकों की इसी स्तर की उपलब्धियों को मूर्तरूप देने का लक्ष्य रखा गया है। उसके लिए आदर्श तीर्थवास अथवा शाश्वत ऋषि आश्रमों में निवास के स्तर से कम की व्यवस्था से काम नहीं चल सकता। ऋषियों ने जिस आधार पर भारतभूमि के निवासियों को ‘देवता’ स्तर का बनाया था, उसी प्रकार को पुनर्जागृत करना अभीष्ट है।

ऋषियों के जीवन यापन की−रहन−सहन, निवास, आचार−व्यवहार की शोध करने पर प्रतीत होता है कि उनमें से अधिकांश के विशालकाय आश्रम में से कुछ में गुरुकुल चलते थे, कुछ में आरण्यक। गुरुकुल ब्राह्मण वर्ग के ऋषि चलाते थे और आरण्यक तपस्वी स्तर के। गुरुकुलों में विद्यार्थी पढ़ते थे और आरण्यकों में वानप्रस्थी। बच्चों को गुरुकुलों में इसलिए नहीं भेजा जाता था कि वहाँ कुछ अतिरिक्त पढ़ाई ही विचारवान व्यक्ति अपने बालकों को वहाँ पढ़ने भेजते थे। यद्यपि सुख सुविधा की दृष्टि से वहाँ कठिनाई ही रहती थी। कठिनाई की परिस्थितियों में जीवन विकास का प्रशिक्षण होना, विज्ञजनों की दृष्टि में एक सौभाग्य है। दरिद्रता में पिछड़ेपन में कष्ट सहना एक बात है और आदर्शों के परिपालन की साधना के निमित्त तितीक्षा भरा जीवन यापन करना दूसरी। दरिद्रता के साथ जुड़ी हुई हीनता व्यक्तित्व को दबोचती है। किन्तु आदर्श पालन के साथ जुड़े हुए कष्ट सहन से प्रतिभा और प्रखरता निखारने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल में गृहस्थ ब्राह्मणों के संचालकत्व में गुरुकुल चलते थे। बौद्धिक शिक्षण ऋषि करते थे और दुलार भरा व्यवहार ऋषिकाएँ सिखाया करती थीं। ऋषि उनकी चेतना जगाते थे ऋषिकाएँ उपयुक्त व्यवस्था बनातीं। दोनों के सहयोग से ऐसे गुरुकुल चलते थे, जिनमें पढ़ने के उपरान्त जो भी छात्र अपने घरों को लौटते थे; नर रत्न होते थे। उनमें महामानवों के सारे गुण भरे रहते थे। व्यवसाय की दृष्टि से वे जो भी करें, परिष्कृत व्यक्तित्व जुड़ा रहने के कारण वे सामान्य काम भी व्यक्ति और समाज की सुख शान्ति का सर्वतोमुखी अभिवर्धन करते थे। गुरुकुलों में विद्यार्थी आरण्यकों में वानप्रस्थ रहते थे। प्रशिक्षण पद्धति की सार्थकता उन विद्यालयों के वातावरण के साथ जुड़ी रहती थी। वहाँ तपस्वी जीवन की उच्च स्तरीय अध्यात्म की−शिक्षा व्यवस्था रहती थी। इसका संचालन उसी स्तर के ऋषि करते थे। आरण्यकों का वातावरण गुरुकुल से इस आधार पर भिन्न रहता था कि दोनों प्रकार के शिक्षार्थियों के स्तर और उद्देश्य में भिन्नता होती थी। गुरुकुल के छात्रों को वयस्क होते ही जीवन संग्राम में उतरना था और आरण्यक के शिक्षार्थी परमार्थ की भूमिका में प्रवेश करते थे। स्वभावतः दोनों की शिक्षण प्रक्रिया एक-दूसरे से भिन्न रहती थी। तदनुसार व्यवस्था, परम्परा आदि में भी भिन्नता का रहना आवश्यक था। इतने पर भी दोनों प्रकार की शिक्षण संस्थाओं का उद्देश्य एक ही रहता था−व्यक्तित्व में देवतत्व का अवतरण।

ब्रह्म वर्चस् प्रशिक्षण को प्रकारान्तर से वानप्रस्थ प्रक्रिया की ही शिक्षा, साधना एवं व्यवस्था का समन्वय कहना चाहिए। प्रशिक्षण दो महीने का हो अथवा लम्बे समय का उसमें प्रातः तीन घन्टे योगाभ्यास एवं तपश्चर्या की साधना मध्याह्न तीन घन्टे ब्रह्म विद्या, आत्म विज्ञान का स्वाध्याय सत्संग, सायंकाल तीन घन्टे लोक सेवा का प्रशिक्षण। यही तीनों क्रम निरन्तर चलते रहेंगे। गंगा की गोद, हिमालय की छाया एवं दिव्य चेतना का प्राण भरा अनुदान यही है। ये विशेषताएँ हैं जिनके आधार पर यहाँ का वातावरण ऐसा बन पड़ा है जिसमें उच्चस्तरीय साधनाओं के सफल होने की पूरी−पूरी सम्भावना बनती है।

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