व्यक्तित्व को परिष्कृत कर सकने वाला वातावरण!

March 1978

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युग शिल्पियों में वाक् पटुता और क्रिया कुशलता का होना आवश्यक है। किन्तु उसमें भी अधिक महत्वपूर्ण है उसका परिष्कृत व्यक्तित्व। अपना परिवर्तन कर सकने वाला ही दूसरों में परिवर्तन कर पाता है। व्यक्ति निर्माण चाहे अपना हो या पराया मात्र प्रशिक्षण चाहिए। इसी के अभाव में न लोक सेवा में प्रखरता उत्पन्न होती है और न उसके प्रयत्नों को सफलता मिलती है। व्यक्तित्वों को ढालना ही युग परिवर्तन का प्रमुख आधार है। जनमानस के परिष्कार से ही नव−निर्माण का उद्देश्य पूरा होगा। इस परिष्कार में प्रशिक्षण के साथ−साथ वातावरण की व्यवस्था भी बननी चाहिए। समाज में परिवर्तन के लिए उत्साह भरा वातावरण पैदा किया जाय और युग शिक्षकों को ऐसी परिस्थितियों में रहने का अवसर दिया जाय जहाँ वे लोक सेवा का तत्वदर्शन एवं क्रिया कौशल ही सीख कर छुट्टी न पालें वरन् अपने व्यक्तित्व में परिपक्वता उत्पन्न करने की भी सफलता प्राप्त कर लें।

युग शिल्पियों को कार्यक्षेत्र में उतरने से पहले बहुत समय तक ऐसे वातावरण में रहना चाहिए जिससे उनके संग्रहीत कुसंस्कारों का निराकरण और अभीष्ट परिपक्वता का समुचित सम्वर्धन हो सके। ऐसे वातावरण का परिपोषण न मिलने से आदर्शवादिता कभी−कभी भावुकता की तरह सवार हो तो जाती है, पर नशा उतरते ही उसके समाप्त होने में भी देर नहीं लगती। कच्ची ईंटें देर तक भट्टे की गर्मी में पकते रहने के उपरान्त ही सुदृढ़ बनती है, यह कार्य तुर्त-फुर्त नहीं हो सकता। विशेषताएँ विशेष वातावरण में नियम समय तक रहने से ही पैदा होती देखी जाती हैं।

आज का चिकित्सा विज्ञान अपने आप में पर्याप्त विकसित हो चुका है, किन्तु वह भी वातावरण का महत्व स्वीकार करता है। क्षय रोग की चिकित्सा का प्रबन्ध यों सभी अस्पतालों में है किन्तु भुवाली जैसे उपयुक्त जलवायु में बने अस्पतालों का चिकित्सा परिणाम अन्य स्थानों की तुलना में कहीं अधिक उत्साह वर्धक रहता है। इसमें चिकित्सकों की योग्यता एवं औषधियों की विशेषता नहीं वरन् उस क्षेत्र का वातावरण ही आधार पर भूत कारण होता है। ऐसे स्थानों पर सहज स्वभाव रहने से भी स्वास्थ्य सुधारता है, बीमारियाँ अपने आप भी अच्छी हो जाती हैं।

मनुष्यों के शरीरों में ही नहीं उनके स्वभावों में भी क्षेत्रीय विशेषता के अनुरूप अन्तर रहते हैं। संस्कृतियाँ दो आधारों पर बनती हैं एक तो उस क्षेत्र के निवासियों का चिन्तन एवं रहन−सहन, दूसरे उस क्षेत्र की प्रकृतिगत भिन्नता विशेषता इन दोनों प्रभावों के कारण उस क्षेत्र के निवासियों का एक विशेष ढर्रा बन जाता है और वह गुण, कर्म, स्वभाव में गहराई तक अपनी जड़ जमा लेता है। संस्कृतियों को भिन्नताओं के यही दो प्रमुख आधार है। यों मनुष्य स्वतन्त्र और समर्थ है वह अपनी संकल्प शक्ति के बल पर परम्परागत सभी दबावों को बदल सकने में सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतया सक्षम है पर व्यवहार में होता यही है कि वातावरण अपने प्रभाव से उस क्षेत्र के मनुष्यों को ढालता चला जाता है। व्यक्ति की मौलिक विशेषता को मान्यता देते हुए भी यह स्वीकार करना ही होगा कि जन समाज की बहु संख्या विचारपूर्ण नहीं वातावरण के प्रभाव जीवनयापन करती है। व्यापक क्रान्तियाँ कुछ व्यक्तियों के बदलने से सम्पन्न नहीं होती वरन् वातावरण में ऐसा परिवर्तन लाना पड़ता है जिसके प्रभाव से जन साधारण को परिष्कृत ढंग से सोचने और उपयोगी क्रिया कलाप अपनाने का साहस एवं अवसर उपलब्ध हो सके।

जातियों और वंशों में कई प्रकार की अपनी−अपनी विशेषताएं पाई जाती हैं। ब्राह्मण में धार्मिकता, क्षत्रिय में अक्खड़ता, वैश्य में अर्थ दृष्टि, शिल्पकारों में क्रिया कुशलता जैसी विशेषताएँ दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा में पाई जाती है। कायस्थ समाज में शिक्षा का बाहुल्य रहेगा। पिछड़े वर्गों में प्रायः अस्वच्छता, अशिष्टता और अस्त−व्यस्तता सर्वत्र पाई जायगी। कुछ में चोरी उठाईगीरी की आदत जातीय विशेषता के रूप में मिली होती है। कुछ कायरता और बेवकूफी के लिए बदनाम है। इनके कारणों की खोज करने पर एक यही तथ्य सामने आता है कि अमुक वर्ग के व्यक्तियों को अमुक प्रकार के वातावरण में रहने का अवसर मिलता है जिससे उसी के अनुरूप विशेषताएँ उनमें विकसित हो जाती हैं। वातावरण प्रयास पूर्वक बनाया गया था काल प्रभाव से संयोगवश बना, यह बात भिन्न है, किन्तु उसके प्रभाव का महत्व तो हर स्थिति में स्वीकार करना ही पड़ता है।

किसी नवजात बालक को अपने परम्परागत वातावरण से भिन्न प्रकार की परिस्थितियों में रखा जाय तो वह उस बदले हुए वातावरण से ही पला हुआ होगा उसमें पूर्वजों की विशेषताओं का वंशानुक्रम जितना थोड़ा−सा ही प्रभाव रह जायगा। शेष सब कुछ बदला हुआ ही होगा। प्राचीन काल में जाति परिवर्तन के अनेक उदाहरण इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। इसका कारण जन्म क्षेत्र की अपेक्षा कर्म क्षेत्र में भिन्नता उत्पन्न हो जाना ही रहा है। परिस्थितियों का प्रभाव बालकपन में ही नहीं बड़ी आयु में भी पड़ता है लोग मानसिक काया−कल्प करते−कुछ से कुछ बनते देखे गये हैं। इस परिवर्तन में वातावरण का दबाव ही प्रधान रूप से काम करता है।

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में एक तीन वर्ष का बालक शिकारियों ने भेड़िये की माँद से बरामद किया था। भेड़िये उसे कहीं से उठा लाये थे। संयोगवश मादा ने उसे अपना बच्चा मानकर दूध पिलाना आरम्भ कर दिया और पाल लिया। शिकारियों ने भेड़ियों को मारकर जब इस मनुष्य बालक को पकड़ा तो उसमें सारी आदतें भेड़ियों जैसी थी। चार पैर से चलना, कच्चा मांस खाना, वैसा ही बोलना तथा अन्य आदतों में भेड़ियों का अनुकरण करना उसका स्वभाव बन चुका था। इस बालक को लखनऊ मेडिकल कालेज में सुधारने के लिए रखा गया। वातावरण के प्रभाव से मनुष्य कैसे भेड़ियों जैसी जीवन चर्या का आदी हो गया। यह देखने को भारी संख्या में देश-विदेश के व्यक्ति वहाँ पहुँचते रहे।

वनवासी जन−जातियों में चित्र−विचित्र रिवाज पाये जाते हैं। उनके स्वभाव और अभ्यास भी अपने ढंग के होते हैं। सुधारकों के प्रयास उनमें परिवर्तन लाने के होते हैं पर वैसा कुछ अधिक प्रभाव हो नहीं पाता क्योंकि उनके चारों ओर घिरा हुआ वातावरण उन्हें यत्किंचित् सुधार स्वीकार करने की ही छूट देता है। परिवर्तन के लिए वातावरण बदलना आवश्यक है। बहुत से अफ्रीकी नीग्रो बहुत समय से अमेरिका में बस गये हैं। उनकी और उनके अफ्रीकी वंशधरों की आकृति में तो थोड़ा-सा ही फर्क पड़ा है, पर प्रकृति में भारी परिवर्तन आ गया है। अमेरिकी नीग्रो प्रायः अमरीकी गोरों के स्तर का ही जीवन यापन करते हैं। उत्तरी ध्रुव के एस्किमो लोगों में से बहुत से कनाडा में आ बसे हैं। उस वर्ग के मूल निवासियों और कनाडी एस्किमो वर्ग में आश्चर्यजनक अन्तर आ गया है। इसी प्रकार अन्यान्य देशों में जा बसने वाले अपने मूल देश की अपेक्षा नई परिस्थितियों में नये ढंग में ढलते बदलते देखे जाते हैं। वातावरण के प्रभाव से बचे रहना आग्रहशील लोगों के लिए ही सम्भव है। सामान्य लोग तो परिस्थितियों के अनुरूप ढलते बदलते चले जाते हैं।

वातावरण का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है यह एक तथ्य है। मनुष्य में जितनी विचार क्षमता है उससे अधिक उसकी अनुकरण प्रवृत्ति प्रबल है। विचारपूर्वक जो होता है उससे अधिक क्रिया कलाप देखा देखी चलते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि विचारशील जिसे अनावश्यक एवं अवांछनीय समझते हैं उसे भी इसलिए करना पड़ता है ताकि दूसरे कर रहे हैं। कई उपयोगी कार्य इसलिए सम्भव नहीं हो पाते कि उन्हें दूसरे लोग नहीं करते तो हम क्यों करें? प्रथा परम्पराओं में अनेक ऐसी हैं, जिनको बुद्धिपूर्वक स्वीकार न करने वाले भी इसलिए अपनाये रहते हैं कि दूसरे लोग वैसा करते हैं तो हम उनका अनुकरण क्यों न करें? इसे वातावरण का प्रभाव ही कहना चाहिए। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसनों को लोग बुद्धिपूर्वक किसी लाभ हो पाने की सम्भावना से नहीं करते वरन् देखा-देखी ही सीखते हैं बच्चों पर तो पूरी तरह इसी प्रवृत्ति का साम्राज्य छाया रहता है। विवेक बुद्धि का उदय तो बहुत पीछे होता है, पहले तो अनुकरण की प्रवृत्ति ही बढ़ी−चढ़ी रहती है। परिपक्व अवस्था आने पर भी उस मूल प्रवृत्ति का असर बना ही रहता है। धर्म सम्प्रदायों के प्रथा प्रचलन−भाषा, संस्कृति आदि की कट्टरता में विवेक का दबाव नहीं, सम्बद्ध वातावरण का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है।

व्यक्ति जैसा कुछ है उसके निर्माण में अधिकांश योग उसके वातावरण का ही रहा होता है। पिछड़े और समुन्नत वर्गों के व्यक्तियों का गम्भीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करने से सहज ही वह पता चलता है कि प्रकृति संरचना की दृष्टि से दोनों के शारीरिक मानसिक गठन में कोई विशेष अन्तर नहीं था, पर उनके बीच जो जमीन-आसमान जैसी भिन्नता पैदा हो गई उसका कारण मुख्यतया वह वातावरण ही था जिसमें इन्हें रहने का अवसर मिला। मनुष्य अपनी मौलिक क्षमताओं का उपयोग बहुधा वातावरण से प्रभावित होकर उसी के अनुरूप करने लगता है। युग निर्माण के लिए व्यक्ति निर्माण आवश्यक है। व्यक्ति निर्माण के लिए जो अनेक उपाय किये जाने हैं उनमें प्रमुखता ऐसे वातावरण के निर्माण को भी देनी पड़ेगी जिसमें रहकर व्यक्ति अनायास ही ढलता बदलता चला जाय। प्रशिक्षण से व्यक्ति बदलता है यह ठीक है पर यह भी निश्चित है कि इतने से ही अभीष्ट परिणाम नहीं निकलता। उस प्रशिक्षण को फलित बना सकने वाला वातावरण भी चाहिए।

सामान्य स्तर पर कोई कार्य सामान्य वातावरण में भी किया जा सकता है। किन्तु विशिष्ट स्तर का अथवा बड़े पैमाने पर काम करना हो तो उपयुक्त वातावरण का सहयोग भी लेना ही पड़ता है। अच्छा सूत कातने के लिए वातावरण में एक निश्चित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है। सामान्य स्तर पर चर्खों से सूत कातते समय न तो उसकी उतनी आवश्यकता अनुभव की जाती है, और न हर जगह वह स्थिति पैदा करना ही सम्भव है; किन्तु कताई मिलों में जहाँ महीन किस्म का सूत बड़ी तेजी से काता जाता है, वहाँ वायु में निश्चित आद्रता पैदा करनी ही पड़ती है। जहाँ फोटो ग्राफिक फिल्में बनाई जाती है, उस फैक्ट्री में तापमान को एक निश्चित मर्यादा में ही रखना पड़ता है। यदि इसकी उपेक्षा की जाय तो सारे साधनों के होते हुए भी अच्छी फिल्में बनाना सम्भव नहीं हो सकता। विशेष औषधियों एवं रासायनिक पदार्थों के निर्माण में भी इसी प्रकार विशेष परिस्थितियाँ बनाकर रखी जाती हैं।

यह सभी उदाहरण ऐसे हैं जिनमें चाहे जितनी तकनीकी सुविधा एवं कुशलता प्राप्त हो, फिर भी वातावरण का सहयोग लिए बिना वांछित प्रतिफल पाना सम्भव नहीं हैं। युग प्रवर्तक व्यक्तियों के निर्माण के लिए भी इस विधा को स्वीकार करना तथा अपनाना आवश्यक है इस अति महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति के लिए उच्च आदर्श, दृढ़ आस्था, प्रखर प्रेरणा, स्पष्ट मार्गदर्शन, दिव्य अनुदानों आदि को तकनीकी व्यवस्था के साथ साथ समुचित वातावरण की सुविधा जुटाना भी आवश्यक समझा गया है।

उपयुक्त वातावरण बनाने में विशेष पुरुषार्थ के साथ क्षेत्रीय विशेषताओं का तालमेल बिठाना भी लाभदायक होता है। जब किसी प्रयोगशाला, चिकित्सालय अथवा शोध संस्थान की योजना बनती है तो उसके लिए उपयुक्त स्थल भी खोजा जाता है। क्षेत्र विशेष की अपनी विशेषताएँ होती है। स्वास्थ्य के लिए कुछ पर्वतीय क्षेत्र (हिलस्टेशन) बहुत उपयोगी माने जाते हैं। भुसावल क्षेत्र में केले, नागपुर क्षेत्र में सन्तरे, मैसूर में चन्दन तथा आसाम में चाय आदि के उत्पादन की विशिष्ट क्षमता से सभी परिचित है। बंगाल एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्र में धान तो पंजाब हरियाणा में गेहूँ की पैदावार भरपूर होती है। तत्सम्बन्धी प्रयोग परीक्षण बीज विकास आदि के लिए वही क्षेत्र उपयुक्त माने जाते हैं।

निश्चित रूप से आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए इस विश्व में भारत एवं भारत में हिमालय क्षेत्र को अद्वितीय गौरव प्राप्त है। अस्तु युग निर्माण योजना के सूत्र संचालकों ने युग सृजेताओं के व्यक्तियों की प्रयोगशाला टकसाल बनाने के लिए वही क्षेत्र चुना है। समुचित वातावरण के निर्माण हेतु अपनी शक्ति सामर्थ्य का प्रयोग इसी सनातन दिव्य संस्कार युक्त भूमि में करना उचित समझा।

हिमालय क्षेत्र ऋषि योगियों की भूमि मानी जाती है। उच्च आध्यात्मिक प्रयोग इसी क्षेत्र में अनादि काल से होते चले आ रहे हैं इसे ऋषि भूमि एवं देवभूमि की संज्ञा दी जाती है। पौराणिक मान्यताओं एवं तथ्य तर्कों के आधार पर भी यह क्षेत्र दिव्य स्थल सिद्ध होता है पृथ्वी पर देवभूमि के अस्तित्व की बात यदि आगे बढ़ानी हो तो उसका क्षेत्र हिमालय ही ठहरता है। कैलाश और मानसरोवर उसी में है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण का स्थान बद्रीनाथ के समीप है। देवलोक के पर्वत का नाम सुमेरु है। यह सुमेरु बद्रीनाथ और गंगोत्री के बीच एक हिमाच्छादित शिखर है। स्वर्ग से गंगा का अवतरण धरती पर होने की कथा की संगति हिमालय के भूगोल के साथ ठीक प्रकार बैठ जाती है। “स्वर्ग में गंगा दूध की थी। धरती पर आई तो पहले शिवजी की जटाओं पर उतरी पीछे पानी बनकर बहने लगी।” इस वर्णन का सन्दर्भ इस प्रकार ठीक बैठ जाता है कि गोमुख से आगे शिवलिंग शिखर है। उसकी चोटी पर जमी हुई बर्फ जब पिघलती है तो गाढ़े बर्फीले पानी की धारा दूध की तरह ऊपर से नीचे उतरती दिखाई पड़ती है। चोटी के नीचे एक सरोवर है जिसे मानसरोवर कहा जाता है। शिवलिंग चोटी का दूसरा नाम कैलाश भी है। यही पानी गंगा ग्लेशियर में होता हुआ गोमुख पर निकलता है और धरती पर गंगा का प्रथम दर्शन होता है भागीरथ ने जिस शिला पर खड़े होकर तप किया था वह भी गंगोत्री क्षेत्र में ही है। गोमुखी से ऊपर नन्दन वन है। नन्दन वन देवताओं का उद्यान कहा गया है। इस क्षेत्र में बड़े वृक्ष तो नहीं है, पर अगणित प्रकार के चित्र−विचित्र फूलों की संख्या और भिन्नता इतनी अधिक है कि वैसा प्राकृतिक पुष्प सौन्दर्य संसार भर में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। फूलों की घाटी पुष्प अन्वेषियों का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। यह पट्टी गोमुख से ऊपर नन्दन वन के पठार तक चली गई है। इन संगतियों से भी स्वर्ग का अस्तित्व धरती पर खोजने वालों की आँखें हिमालय के ऊपरी क्षेत्र पर ही जा टिकती हैं।

हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र पूरा दौरा कर लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पुराणों से वर्णित प्रायः सभी ऋषियों की तपोभूमि और क्रिया भूमि उत्तराखण्ड से ही सम्बन्धित रही है। उनके गुरुकुल और आवश्यक इसी क्षेत्र में थे। आत्म विज्ञान की शोध प्रयोगशालाएँ इसी प्रदेश में बिखरी हुई थी। तपश्चर्याएँ इसी अनुसंधान के लिए होती थीं। इसके लिए उपयुक्त स्थान और वातावरण तलाश करने पर इसी क्षेत्र को सर्वश्रेष्ठ पाया गया था। आत्म साधना के लिए शीत प्रधान क्षेत्र उपयुक्त बैठते हैं जलवायु की दृष्टि से वही असाधारण रूप से आरोग्यवर्धक भी है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक इस प्रदेश में जितनी उच्चस्तरीय साधनाएँ इस क्षेत्र में की हैं उसके कारण वहाँ के वातावरण में विशिष्ट अध्यात्म तत्वों की भरमार है।

इस गये गुजरे जमाने में भी उस क्षेत्र में सतयुगी वातावरण के दृश्य देखे जा सकते हैं और लगता है कि संव्याप्त कलुषित वातावरण से यह क्षेत्र अभी भी उतना प्रभावित नहीं हुआ है। पहाड़ी कुली तीर्थयात्रियों का सामान ढोते हैं। बिस्तर आदि लेकर कुली बहुत आगे निकल जाता है और यात्री घन्टों पीछे पहुँचते हैं। सारा सामान ठीक तरह पहुँचता है। चोरी उठाईगीरी की घटनाएँ सुनने में नहीं आतीं। उस क्षेत्र में रहने वालों के घरों में अभी भी ताले नहीं लगते। कुंडी बन्द करके सूना मकान छोड़ जाते हैं। चोरी की घटनाएँ प्रायः नहीं ही होतीं।

उत्तराखण्ड को साधना के सर्वथा उपयुक्त संस्कारवान देवभूमि समझ लेने के उपरान्त ही इसे सृजन सैनिकों के प्रशिक्षण के लिये उपयुक्त समझा गया और उसे एक छावनी के रूप में विकसित करने का निश्चय किया गया है अन्यत्र स्थानों में व्यापक परिश्रम से भी जो सत्परिणाम उपलब्ध होने असम्भव थे वह यहाँ अल्प प्रयास से सम्भव होंगे क्योंकि यहाँ के वातावरण में चिरकाल से आच्छादि ऋषियों के विचारों के संकल्प का लाभ साधकों को मिलेगा। शान्ति कुञ्ज, ब्रह्मवर्चस और गायत्री नगर का संगम तो उसे तीर्थराज ही बनाने जा रहा है। स्वर्गीय वातावरण के अतिरिक्त दिव्य चिन्तन और युगान्तर सत्ता के प्राणवान् सत्संग का लाभ जुड़ जाने से उसकी महत्ता बहुत अधिक बढ़ गई है। जागृत आत्माओं को इस वातावरण, इस तीर्थ के पर्व स्नान की तैयारी प्रारम्भ कर देनी चाहिये।

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