प्राचीन भारतीय इतिहास को आध्यात्मिक उपलब्धियों की शृंखला कहें, तो आध्यात्मिक साहित्य और दर्शन को तत्वदर्शी, ऋषियों, योगी और सन्तों का इतिहास कहना पड़ेगा। आध्यात्मिक जगत की प्रसिद्ध घटना है कि मण्डन मिश्र के जगद्गुरु शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने के बाद उनकी धर्मपत्नी विद्योत्तमा ने मोर्चा सम्भाला। उन्होंने शंकराचार्य से “काम−विद्या” पर ऐसे जटिल प्रश्न पूछे जो उन जैसे ब्रह्मचारी संन्यासी, की कल्पना से भी परे थे, किन्तु वे योगी थे। उन्हें मण्डन मिश्र जैसे महान् पण्डित की सेवाओं की अपेक्षा थी सो उन्होंने महिष्मती नरेश के मृतक शरीर में “परकाया−प्रवेश” किया और “काम−विद्या” का गहन अध्ययन किया। उनके द्वारा प्रणीत “काम−सूत्र” इस विद्या का अनुपम ग्रन्थ माना जाता है।
इतिहास में इस घटना की तरह ही पाटलिपुत्र के सम्राट महापद्मनन्द और चाणक्य भी प्रख्यात हैं, पर वे केवल शासकीय दृष्टि से। बहुत थोड़े लोग जानते हैं कि महापद्मनन्द का शरीर एक था, पर उस शरीर से यात्रायें दो आत्माओं ने की थी। एक स्वयं महापद्मनन्द ने तो दूसरे तत्कालीन विद्वान् आचार्य उपवर्ष के प्रसिद्ध योगी शिष्य “इन्द्र दत्त” ने।
महर्षि उपवर्ष और उनके अग्रज महर्षि वर्ष का पाटलिपुत्र में ही विशाल तपोवन और गुरुकुल आश्रम था, जिसमें देश−विदेश से आये स्नातक साहित्य, भेषज व्याकरण और योग विद्या करते थे। उपवर्ष के शिष्यों में तीन शिष्य ऐसे थे जिन्हें त्रिवेणी संगम कहा जाता था। प्रथम वररुचि या कात्यायन जो पीछे सम्राट चन्द्रगुप्त के महामन्त्री बने। इन्होंने पाणिनि के व्याकरण सूत्रों की टीका की थी। दूसरे थे ‘व्याडी’ इन्होंने एक विशाल व्याकरण ग्रन्थ लिखा था जिसमें सवा लाख श्लोक थे, यह ग्रन्थ अंग्रेजों के समय जर्मनी उठा ले गये थे और आज तक फिर उसका पता ही नहीं चल पाया। केवल मात्र कुछ श्लोक ही यत्र−तत्र मिलते हैं। तीसरे देवरारू थे जिनकी योग विद्या में इतनी गहन अभिरुचि थी कि उस युग में उनके समान कोई अन्य योगी न रह गया था। “उपवर्ष” ने उन्हें ‘परकाया प्रवेश’ तक की गूढ़ विद्या सिखलाई थी।
तीनों शिष्यों में प्रगाढ़ मैत्री थी। आश्रम से विदा होते समय तीनों साथ ही महर्षि उपवर्ष के पास गये और उनसे गुरु दक्षिणा माँगने का आग्रह किया। आचार्य प्रवर! ने समझाया− वत्स आचार्यों की विद्या योग्य शिष्य पाकर स्वतः सार्थक हो जाती है, तुमने अपने−अपने विषयों में दक्षता और प्रवीणता पाकर मेरा यश बढ़ाया है यही मेरे लिए पर्याप्त है तो भी मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि तुम्हें जो ज्ञान जो प्रकाश और मार्गदर्शन यहाँ मिला उसका तुम सारे देश में प्रचार प्रसार करना।
बात पूरी हो गई थी किन्तु वे तीनों सिद्धि के अहंकार में थे अतएव कोई न कोई लौकिक वस्तु माँगने के आग्रह पर अड़ गये। गुरु को क्षोभ हुआ उन्होंने कहा भी−हमने तुम्हें सिद्ध बनाया किन्तु सिद्धि को आत्म सात करने वाली सरलता और गम्भीरता नहीं दिखाई उसी का यह प्रतिफल है−नहीं मानते जाइये और हमारे लिए एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का प्रबन्ध कीजिये।
तीर धनुष से निकल चुका था मर्मस्थल तो विधना ही था। वररुचि और व्याडी दोनों अभी इस चिन्ता में थे कि इस कठिन समस्या का निराकरण कैसे हो तभी देवदत्त ने मुस्करा कर कहा−तात! आपने सुना है आज महापद्मनन्द ने देह परित्याग कर दिया है, मुझे परकाया प्रवेश−विद्या आती है। मैं महापद्मनन्द की मृतक देह में प्रवेश कर स्वयं पद्मनन्द बनूँगा, इसी खुशी में राजभवन में उत्सव होगा दान−दक्षिण बटेगी उसी में इस धन का प्रबन्ध वररुचि को कर दूँगा। व्याडी इस बीच मेरे शव की रक्षा करें ताकि अपना कार्य पूरा करते ही मैं पुनः अपनी देह में आ जाऊँ।
पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार देवदत्त ने अपने कुटीर में लेटकर “प्राणायाम” क्रिया के द्वारा अपने प्राणों को शरीर से अलग कर लिया और महापद्मनन्द के शरीर में प्रवेश किया। महापद्मनन्द पुनः जीवित हो उठे। यह घटना इतिहास प्रसिद्ध घटना है। सारे राज्य में छाई दुःख की लहरें एकाएक खुशी में बदल गई। चारों ओर उत्सव मनाये जाने लगे।
महापद्मनन्द के संस्कार, गुण, कर्म, स्वभाव, मूल सम्राट के गुणों से बिलकुल भिन्न संस्कृत के अल्पज्ञ महापद्मनन्द का महान् पांडित्य ही सन्देह के लिए पर्याप्त था उधर शकटार को यह भी ज्ञात था कि “देवदत्त” ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें परकाया प्रवेश की विद्या आती थी सो यह अनुमान करते देर न लगी कि महापद्मनन्द के शरीर में “देवदत्त” की आत्मा के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकता था।
शकटार कुशाग्र बुद्धि थे परिस्थितियों के सूक्ष्म विश्लेषण के साथ वे प्रख्यात प्रत्युत्पन्नमति महामंत्री थे। यह वह समय था जब सिकन्दर झेलम तक आ पहुँचा था और उसने सम्राट् पुरु को भी पराजित कर लिया था। अगली टक्कर महापद्मनन्द से ही होने वाली थी। यदि उनके निधन की बात सिकन्दर तक पहुँच जाती तो उसका तथा उसके सिपाहियों का मनोबल बढ़ जाता, अतएव शकटार ने निश्चय किया कि महापद्मनन्द वे चाहे जोहों पुनः मरने नहीं दिया जाना चाहिए। शकटार को कई दिनों से व्याडी का पता नहीं चल रहा था जबकि वररुचि इन दिनों व्यर्थ ही राजभवन के आसपास घूमते दिखाई देते थे, अतएव उसे यह अनुमान करते देर न लगी कि व्याडी और कही नहीं देवदत्त के शव की रक्षा में ही होगा। शकटार ने विश्वास पात्र सैनिकों को भेजकर व्याडी के विरोध के बावजूद देवदत्त के पूर्ववर्ती शरीर का “शवदाह” करा दिया। महापद्मनन्द के शरीर में निर्वासित देवदत्त को इस बात का पता चला तो वे माथा पीटते रह गये, पर अब बाजी हाथ से निकल चुकी थी, अतएव रहे तो महापद्मनन्द ही पर अब वह पद्मनन्द नहीं थे जो कभी पहले थे। बदले की भावना से उन्होंने जीवन भर स्वामि भक्त सेवक की तरह काम करने वाले महामन्त्री शकटार को ही बन्दी बना लिया और वररुचि को अपना महामन्त्री नियुक्त कर लिया। राजकाल से सर्वथा शून्य देवदत्त (अब महापद्मनन्द) ने सर्वत्र अस्त−व्यस्तता फैलाई उसी का प्रतिफल यह हुआ कि उसे एक दिन चाणक्य के हाथों पराजय का मुँह देखना पड़ा।
इस घटना के पीछे किसी राजतन्त्र के इतिहास की व्याख्या करना उद्देश्य नहीं वरन् एक बड़े इतिहास−आत्मा के इतिहास की ओर−मानव जाति का ध्यान मोड़ना है, सांसारिकता में पड़कर जिसकी नितान्त उपेक्षा की जाती है। एक शरीर के प्राण किसी अन्य शरीर में रहें, यह इस बात का साक्षी और प्रमाण है कि आत्मा शरीर से भिन्न और स्वतन्त्र अस्तित्व है। इस शाश्वत सत्ता को न समझने की अज्ञान दृष्टि ही मनुष्य को भौतिकतावादी बनाती है, स्वार्थी बनाती है, ऐसे अज्ञान ग्रस्त मनुष्य अपने पीछे अन्धकार की एक लम्बी परम्परा छोड़ते हुए जाते हैं और प्रकाश पथ का पथिक, आनन्द मूर्ति आत्मा, अन्धकार और सांसारिक बाधाओं में मार−मारा फिरता रहता है।
योग मार्ग उस सत्ता से सम्बन्ध जोड़ने, आत्मानुभूति कराने का सुनिश्चित साधन है। यह राह भले ही कठिनाइयों की आत्म नियन्त्रण, आत्म सुधार की हो, पर एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसके परिणाम सुनिश्चित होते हैं। उस कठिन मार्ग पर चलाने वाली आस्था को ऐसी परिस्थितियाँ निःसन्देह परिपुष्ट करती हैं, इस तरह की घटनाएँ उसी युग में ही होती रही हों सो बात नहीं आज भी इस देश में ऐसे योगी हैं जो इस विद्या को जानते हैं।
बात उन दिनों की है जब भारतवर्ष में अंग्रेजों का राज्य था उन दिनों पश्चिमी कमाण्ड के मिलिटरी कमाण्डर एल. पी. फैरेल थे उन्होंने अपनी आत्म−कथा में एक मार्मिक घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया हैं−
मेरा कैम्प असम में ब्रह्मपुत्र के किनारे लगा हुआ था। उस दिन मोर्चे पर शान्ति थी। मैं जिस स्थान पर बैठा था उसके आगे एक पहाड़ी ढलान थी, ढाल पर एक वृद्ध साधु को मैंने चहलकदमी करते देखा। थोड़ी देर में वह नदी के पानी में घुसा और एक नवयुवक के बहते हुए शव को बाहर निकाल लाया। वृद्ध साधु अत्यन्त कृशकाय थे, शव को सुरक्षित स्थान तक ले जाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी तथापि वे यह सब इतनी सावधानी से कर रहे थे कि शव को खरोंच न लगे यह सारा दृश्य मैंने दूरबीन की सहायता से बहुत अच्छी तरह देखा।”
“इसी बीच अपने सिपाहियों को आदेश देकर मैंने उस स्थान को घिरवा लिया। वृद्ध वृक्ष के नीचे जल रही आग के किनारे पालथी मारक बैठे। दूर से ऐसा लगा वे कोई क्रिया कर रहे हों थोड़ी देर यह स्थिति रही, फिर एकाएक वृद्ध का शरीर एक ओर लुढ़क गया; अभी तक जो शव पड़ा था वह युवक उठ बैठा और अब वह उस वृद्ध के शरीर को निर्ममता से घसीट कर नदी की ओर ले चला इसी बीच मेरे सैनिकों ने उसे बन्दी बना लिया। तब तक कौतूहल वश मैं स्वयं भी वहाँ पहुँच गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया−महाशय! वह वृद्ध मैं ही हूँ। यह विद्या हम भारतीय योगी ही जानते हैं। आत्मा के लिए आवश्यक और समीपवर्ती शरीर प्राण होते हैं, मनुष्य देह तो उसका वाहन मात्र है। इस शरीर पर बैठकर वह थोड़े समय की जिन्दगी की यात्रा करता है, किन्तु प्राण शरीर तो उसके लिए तब तक का साक्षी है जब तक कि वह परम−तत्व में विलीन न हो जाये?”
“हम जिसे जीवन कहते हैं−प्राण, शरीर और आत्मा की शाश्वत यात्रा की रात, उसका एक पड़ाव मात्र है जहाँ वह कुछ क्षण (कुछ दिनों) विश्राम करके आगे बढ़ता है यह क्रम अनन्त काल तक चलता है, जीव उसे समझ न पाने के कारण ही अपने को पार्थिव मान बैठता है, इसी कारण वह अधोगामी प्रवृत्तियाँ अपनाता, कष्ट भोगता और अन्तिम समय अपनी इच्छा शक्ति के पतित हो जाने के कारण मानवेत्तर योनियों में जाने को विवश होता है। मुक्ति और स्वर्ग प्राप्ति के लिए प्राण शरीर को समझना, उस पर नियन्त्रण आवश्यक होता है। यह योगाभ्यास से सम्भव है। अभी मुझे इस संसार में रहकर कुछ कार्य करना है, जबकि मेरा अपना शरीर अत्यन्त जीर्ण हो गया था इसी से यह शरीर बदल लिया।”
उस व्यक्ति की बातें बड़ी मार्मिक लग रही थीं। मन तो करता था कि और अधिक बातें की जायें, किन्तु हमारे आगे बढ़ने का समय हो गया था, अतएव इस प्रसंग को यहीं रोकना पड़ा, पर मुझे न तो यह घटना भूलती है और न यह तथ्य कि हम पश्चिम वासी रात को दिन, अन्धकार को ही प्रकाश मान बैठे है, इससे अवान्तर जीवन के प्रति हमारी प्रगति एकदम रुकी है यह मरण का वीभत्स रास्ता है उससे बचने के लिए एक दिन पूर्व का अनुसरण करना ही पड़ेगा।
ऊपर की दो घटनाएँ परकाया प्रवेश की, यह सिद्ध करती हैं कि शरीरों और शारीरिक सुखों के लिए मानवीय मोह, माया मिथ्या है शरीर को, आत्मा का देवमन्दिर समझकर उसकी पवित्रता तो रखी जाये, पर उसे विषय वासनाओं के द्वारा इस तरह गन्दा गलीज और घृणास्पद न बनाया जाये कि अपना अन्तःकरण ही धिक्कार कर उठे। पश्चिम की एक ऐसी ही घटना यह सिद्ध करती है कि शारीरिक विषय वासनाओं की आसक्ति किस तरह बार−बार शरीरों में आने को विवश होती है, यहाँ तो प्राण बल था, अतएव दो आत्माएँ एक शरीर के लिए झगड़ती रहीं, किन्तु जब प्राण निर्बल हो तो कीड़े−मकोड़ों की अभावग्रस्त जिन्दगी ही मिलना स्वाभाविक हैं।
मिशिगन (अमेरिका) के एक छोटे से गाँव वैटल क्रीक में वाल्टर सोडरस्ट्राम नामक एक व्यक्ति रहता था वह एक ऊन की फैक्ट्री में काम करता था। प्रस्तुत घटना 13 सितम्बर 1851 के “न्यूयार्क मरकरी” अंक में इन्हीं सोडर स्ट्राम ने छपाई।
वाल्टर को समुद्री नौकायन का शौक था वे जिस टापू पर नौका बिहार और मछलियाँ पकड़ने जाया करते उस पर एक कुटिया थी जिस पर एक अधेड़ आयु का व्यक्ति रहता था। अक्सर आते−जाते वाल्टर की उनसे जान−पहचान हो गई थी। एक दिन तूफान और आकस्मिक वर्षा के कारण वाल्टर ने रात उस कुटिया में ही बिताई। जिस समय तूफान का दौर चल रहा था स्ट्रैण्ड नामक उस व्यक्ति की स्थिति बड़ी विचित्र रही वह इस तरह काँपता रहा जैसे कोई पत्ता काँपता हो यही नहीं बीच−बीच में वह भयंकर चीत्कार भी करता। इस चीत्कार में वह कभी एक भाषा निकालता कभी सर्वथा अनजान दूसरी वाल्टर स्काट ने वह रात बड़ी कठिनाई से बिताई−वे लिखते हैं−उसकी देह बुरी तरह कसमसा कर ऐठती थी तो लगता था कि दोनों ओर से पकड़कर दो आदमी उसे निचोड़ रहे हों। थोड़ी देर तक शरीर पीला और निढाल रहा पीछे स्ट्राण्ड मुस्काकर उठ बैठा। पूछने में पहले तो वह टालता रहा, पर बहुत आग्रह करने पर उसने बताया कि एक फ्रांसीसी की आत्मा भी इस शरीर पर आने के लिए अक्सर प्रतिद्वन्द्विता करती है। उसने बताया कि वास्तव में यह शरीर उसी का है, किन्तु शक्तिशाली होने के कारण इस पर मैंने आधिपत्य जमा रखा है। उसने जेब से एक लाइटर और एक डायरी भी दी जो इस फ्रांसीसी के थे लाइटर पर जेकब व्यूमांट लिखा था। वाल्टर उन्हें लेकर चले आये यह घटना उनके मस्तिष्क पर छाई रही।
कुछ दिन बाद वाल्टर को पेरिस जाने का अवसर मिला, कौतूहल वश वह डायरी के अनुसार पता लगाते हुए व्यूमांट तक पहुँच गये वहाँ जाकर उसने पाया कि वही स्ट्रैण्ड जो टापू में रहता था वहाँ विद्यमान था। वाल्टर को उसने पहचाना तक नहीं, पर उसने अपनी जेब से वाल्टर का फोटो निकालकर बताया कि आपका यह फोटो मेरे पास कैसे आया मुझे ज्ञात नहीं। वाल्टर के स्मरण कराने पर वह अपने को व्यूमाण्ट ही बताता रहा−अलबत्ता उसने यह बात स्वीकार की कि उसका एक अमेरिकी आत्मा से लम्बे समय तक शरीर के लिए संघर्ष हुआ है और उसमें अन्तिम विजय मेरी रही।
एक तीसरी घटना जिसमें एक ही आत्मा द्वारा विभिन्न शरीर उसी तरह बदलने का जिक्र है। जिस तरह एक शहर से ट्रान्सफर के बाद दूसरे शहर में आवास किराये पर लेना पड़ता है। यह घटना अभी थोड़े दिन पूर्व की है।
अपनी पुस्तक में लेखक ने अपने लामा गुरु मिंग्यार का वर्णन करते हुए लिखा है कि परकाया प्रवेश की विद्या मैंने उन्हीं से सीखी और उन्हीं के आदेश से अब तक मैंने तीन शरीर बदले हैं। यह ग्रन्थ पूरा करने के बाद ही मैं यह अंग्रेज शरीर भी छोड़ दूँगा और सचमुच ही पुस्तक लिखने के बाद यह अंग्रेज मृत पाये गये। मृतक की देह पर न तो किसी आघात के लक्षण है न कृत्रिम मृत्यु। शरीर के प्रत्येक अंग को व्यवस्थित करके इस तरह प्राण निकले हैं मानो सचमुच किसी यात्रा की तैयारी में रहे हों। इस घटना के बाद जहाँ एक ओर इसके बारे में तहलका मचा, खोज करने पर वह स्थान, वह परिस्थितियाँ सच निकलीं दूसरी ओर लोग “भारतीय प्राण विज्ञान” की प्रामाणिकता और उसकी उपयोगिता स्वीकारने और समझने को विवश हो रहे हैं।