विनम्रता की विजय

March 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महर्षि कण्व का आश्रम, अभी−अभी महाराज दुष्यन्त विदा हुये हैं। कौशिकसुता शकुन्तला के प्रणय से आविर्भूत महाराज दुष्यन्त ने मृगया के मध्य यह समय निकाला था। आश्रमवासी दूर तक विदाकर लौट आये किन्तु शकुन्तला उपवन की एक सघन वल्लरी से ही अपने हृदय सम्राट को जाते अपलक आत्म विस्मृत निहारती रही। उसे पता भी नहीं चला महर्षि दुर्वासा उधर से निकले और वह प्रणाम भी नहीं कर सकी।

दुर्वासा के क्रोध का ठिकाना न रहा। कामार्त्त नारी। उन्होंने चिल्लाकर कहा−जिसकी स्मृति में तू इस तरह आत्म विस्मृत हो रही है−जा मेरा शाप है कि वही तुझे भूल जायेगा। पास जाने पर भी वह तुझे पहचानने से इनकार कर देगा।

अब शकुन्तला को अपनी भूल का पता चला, उसने क्षमा भी माँगी, किन्तु महर्षि तिरस्कारपूर्ण दृष्टि डालते हुए उधर से आगे बढ़ गये।

और सचमुच ही एक दिन जब वियोगिनी शकुन्तला स्वयं ही महाराज दुष्यन्त के समक्ष उपस्थित हुई तो आर्य श्रेष्ठ ने उन्हें पूर्व परिचित होने तक से इनकार कर दिया। यह ठीक है इस दुर्दैव को भी अपनी तपश्चर्या के बल पर साध्वी शकुन्तला ने सौभाग्य में बदल लिया ऐसा न होता तो वह चक्रवर्ती भरत की माँ होने का गौरव कैसे प्राप्त कर सकतीं, तो भी उन्हें असीम कष्ट तो झेलने ही पड़े।

महर्षि मुद्गल, देवकन्या द्रौपदी ऐसे−ऐसे अनेकों आत्माओं को पराभूत करने की दुर्वासा की ख्याति सर्वत्र फैली हुई थी सो सहसा कोई भी उनसे भिड़ने का साहस नहीं करता था। अहंकार की जितनी विजय होती है, वह उतना ही दुर्द्धर्ष होता जाता है, उसकी न केवल विवेक शक्ति अपितु अपनी सामर्थ्य भी साथ छोड़ती चली जाती हैं, इसीलिए अहंकार को साधना की, तप की और ब्रह्म प्राप्ति की सबसे बड़ी बाधा माना जाता है। किन्तु अपनी गहन तपश्चर्या द्वारा दुर्वासा शक्ति के स्वामी बन चुके थे अतएव उनका अहंकार घटा नहीं, निरन्तर बढ़ता ही गया।

तभी उनकी भेंट सरयू तट पर महाभाग सम्राट अम्बरीष से हो गई। महाराज एकादशी व्रत का पारण करने समुद्यत हुये थे अभी वे तट पर जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि महर्षि आ पहुँचे। उन्होंने महाराज अम्बरीष का वर्जन करते हुए राजन! तुम्हीं एकादशी पारण नहीं करते, मैं भी करता हूँ सम्राट हो तो क्या? तुम क्षत्रिय हो, मैं ब्राह्मण। यहीं ठहरो जब तक मैं पारण नहीं कर लेता तुम्हें उसका अधिकार नहीं।

महाराज ने विनीत वाणी से वर्जना स्वीकारी और वहीं तट पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। समय तेजी से बीतने लगा, किन्तु महर्षि गये तो फिर मानों लौटना भूल ही गये। समय समाप्त होने को आया अब क्या किया जाये? उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों से विकल्प पूछा तो−उन्होंने कहा−“महाराज आप बिना प्रतीक्षा किये अपना पारण सम्पन्न करें।” तप का महत्व अहंकार प्रदर्शन और शाप देने में नहीं संसार का कल्याण करने की भावना में है, प्रतिवाद न करने से ही अवांछनीयताएँ बढ़ती हैं आप धर्मज्ञ हैं, अनैतिक आचरण का विरोध धर्म का ही तो अंग है। फिर आप डरते क्यों हैं।

महाराज ने आचार्यों की बात स्वीकार कर ली और पारण प्रारम्भ कर दिया। यह देखते ही दुर्वासा का क्रोध भड़क उठा उन्होंने अम्बरीष पर कृत्याघात किया। कृत्या अभी महाराज तक पहुँची ही थी कि महाराज के शरीर से धर्म, न्याय, सदाचरण, चरित्र और विनय−पाँच देव निकले और महाराज के चारों ओर कवच की तरह विराज गये, कृत्या को आघात का अवसर न मिला तो वह प्रहारक दुर्वासा को ही विनष्ट करने को तुल गई। दुर्वासा हाहाकार कर उठे। यह देखते ही महाराज की करुणा उमड़ पड़ी। उस धार ने कृत्या को शीतल कर दिया।

आज दुर्वासा पराजित हुए और उन्होंने अनुभव किया शक्ति की शोभा विनम्रता में है अहंकार में नहीं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles