नारी वर्ग आधी जनसंख्या है। उसका पिछड़ापन दूर करना मनुष्य जाति को अर्धांग पक्षाघात से मुक्त करने के सामान अपने युग का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। युग निर्माण योजना ने महिला जागृति अभियान के अन्तर्गत नारी के मानवी अधिकारों की मान्यता दिलाने के लिए व्यापक आन्दोलन आरम्भ किया है। इसमें नर को न्याय एवं औचित्य को स्वीकार करने तथा व्यापक हित साधन को अपनाने की दूरदर्शिता अपनाने के लिए अनुरोध किया है। साथ ही नारी को शिक्षा, स्वावलंबन, सुरुचि एवं योग्यता की दृष्टि से समर्थ बनने का प्रयत्न करने के लिए जगाया है। इन प्रयोजनों के लिए प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक गतिविधियों का सामान्य प्रयास तो आरम्भ से ही किया जा रहा था। शान्तिकुञ्ज की स्थापना के बाद उसमें नया उत्साह उत्पन्न हुआ है। महिला जागरण शाखाएँ देश भर में अपनी संगठनात्मक और रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों में तत्परतापूर्वक लगी हुई हैं। मिशन की देवकन्याओं के जत्थे देश के कोने−कोने में महिला जागृति के लिए प्राण फूँक रहे हैं। महिला पवित्र का एवं प्रेरणाप्रद साहित्य ने उद्देश्य का समर्थन करने के लिए जन−जन को सहमत करने के लिए इन दिनों अथक परिश्रम किया है और उसका सत्परिणाम भी सामने आया है।
एक−एक वर्षीय कन्या प्रशिक्षण सत्र और दो−दो महीने के महिला सत्र इसी अभियान के अन्तर्गत शान्ति कुञ्ज में पिछले चार साल से चल रहे हैं। इस वर्ष से उस सन्दर्भ में एक नई प्रगति यह होने जा रही है कि महिला सत्रों के लिए भविष्य में अधिक सुविधा रहेगी और शिक्षा के लिए उत्सुक महिलाओं के लिए जो सीमित स्थान था वह बढ़ जायगा। वे बच्चों समेत भी आ सकेंगी और सुविधानुसार दो महीने से अधिक समय भी ठहर सकेंगी। नये गायत्री नगर में उनके लिए एक अतिरिक्त कक्ष रहेगा जिसमें नारी को सुयोग्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए यथा सम्भव सभी साधन उपलब्ध कराने का सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जायगा। युग निर्माण परिवार के सदस्य अब तक व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के लिए बहुधा अपने प्रयास नियोजित करते रहे हैं। परिवार निर्माण का कार्य अपने घर से ही आरम्भ हो सके तो उसका तात्कालिक लाभ सीधा उसी कुटुम्ब को मिलेगा। साथ ही उस आकर्षण से सम्पर्क में आने वाले परिवार भी अनुकरण का प्रकाश ग्रहण कर सकेंगे।
कन्या शिक्षण सत्रों की सफलता अब मिशन के परिचित क्षेत्र में एक प्रकार से प्रख्यात ही हो चुकी है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में उत्साहजनक उन्नति करके कन्याएँ वापिस लौटी हैं तो उनके अभिभावक बहुत प्रसन्न हुए हैं कि एक वर्ष की यह शिक्षा लड़की के अब तक ही पूरी शिक्षा की तुलना में अधिक सार्थक हुई। पाठ्यक्रम के अनुसार संगीत, कुटीर उद्योग, भाषण कला, गृह विज्ञान, जैसे वही सामान्य विषय है जो हर जगह कन्या विद्यालयों में सीखे जा सकते हैं। यहाँ की विशेषता है−व्यक्तित्वों को सुसंस्कारी और प्रतिभावान बनाना। अब तक के परिणामों को देखते हुए प्रशिक्षण प्रयासों को सर्वथा सफल ही कहा जा सकता है।
सुसंस्कारिता का अनुदान लेकर लौटी हुई छात्राओं ने अपने प्रयास से अपने अपने घरों को नये ढाँचे में ढालने में आशाजनक सफलताएँ पाई हैं। वे पितृ घर में रह रही हों या ससुराल में हर जगह उनकी भूरि−भूरि प्रशंसा हुई है। उनकी आकृति तो वैसी ही रही है पर देखने वालों ने देखा है कि प्रकृति बदल गई। नारी के नाम के साथ प्रायः देवी शब्द लगता है। यह कहने मात्र का ही प्रयोग था पर शान्ति कुञ्ज की शिक्षा प्राप्त करके लौटने वाली छात्राओं ने सिद्ध किया है कि उनकी परम्परागत पदवी−देवी−निरर्थक नहीं है। जन्मजात रूप से उनमें वह विशेषताएँ विद्यमान हैं मात्र खरादे जाने भर की कमी रह जाती है यदि वह शान्ति कुञ्ज जैसी प्रयोगशालाओं में पूरी की जा सकें तो वे सच्चे अर्थों में गृह लक्ष्मी की भूमिका सम्पन्न कर सकती है। अपने और अपने पड़ोस, सम्पर्क, रिश्तेदारी क्षेत्र में उनने जो प्रभाव छोड़ा है उसे देखते हुए सर्वत्र यह अनुभव किया जा रहा है कि हमारे घरों की कन्याओं और वधुओं को भी इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होना चाहिए।
बदनामी की तरह नेक नामी भी हवा के साथ उड़ती और फैलती है। शान्तिकुञ्ज की प्रशिक्षित कन्याओं की परिवार को स्वर्ग में बदल देने वाली विशेषताओं को देखकर विवाह योग्य सुयोग्य लड़कों के माता−पिता यह खोज करते हैं कि हमारे घर कन्या प्रशिक्षण से लौटी हुई वधू आये। जहाँ इस प्रशिक्षण की गन्ध जानकारी पहुँच गई है वहाँ नव वधुओं की तलाश में रंग, रूप, स्वास्थ्य, शिक्षा, कुशलता, खानदान, दहेज आदि की परख एक कोने पर उठा कर रख दी जाती है और यह पूछा जाता है कि कन्या शान्तिकुञ्ज की शिक्षा में कितने समय तक सम्मिलित रही है। साधारण एक वर्ष का पाठ्यक्रम है। परिवार के लाखों सदस्यों की कन्याओं को लाभ देने की दृष्टि से अवधि थोड़ी ही रखी गई है। वह अवधि पूरी होने पर भी कितनी ही कन्याओं और अभिभावकों को आग्रह कुछ और समय तक शिक्षा पाने का अवसर दिये जाने का रहता है। कइयों को वैसी सुविधा देनी भी पड़ती हैं। स्कूली शिक्षा बीच में छोड़कर भेजने में जहाँ एक वर्ष मारा जाने का असमंजस रहता था, वहाँ लौटी हुई कन्याओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह लाभ तो दस वर्ष की पढ़ाई हर्ज करके भी उठाया जाना चाहिए। यही कारण है कि वर्ष मारा जाने, पढ़ाई बीच में छूटने की बात अब युग−निर्माण परिवार के सदस्यों में कहीं भी नहीं सोची जाती और शिक्षार्थी छात्राओं के आवेदन पत्र हर साल पहले की अपेक्षा बढ़ ही जाते हैं। स्थान सीमित होने के कारण इच्छुक छात्राओं में से तिहाई चौथाई को ही जगह मिल पाती है।
आरम्भ में जब कन्या सत्र और महिला सत्र चले थे तब उनके परिणामों के सम्बन्ध में अनुमान ही लगाया जाता था, पर अब जबकि प्रतिफल सामने आये हैं और उपयोगिता समझी गई है तो छात्राओं के लिए अधिक स्थान बनाने का दबाव बढ़ रहा है। गायत्री नगर के निर्माण में एक कारण यह दबाव भी है। बहुत दिन तक विचार चलता रहा कि कन्या शिक्षणों के लिए अधिक स्थान बनाया जाय और महिलाशिक्षण के लिए? दोनों के पक्ष में मजबूत तर्क हैं। कन्याओं का समय रहता है, उनमें स्फूर्ति, स्मरण शक्ति की अधिकता, उमंग, आदि कितनी ही विशेषताएँ रहती हैं और वे जल्दी ही अधिक सीख सकती हैं। भविष्य कन्याओं के ही हाथ में है इसलिए उन्हीं की व्यवस्था अधिक होनी चाहिए।
महिलाओं के पक्ष में दलील यह है कि उनकी बुद्धि प्रतिभा परिपक्व हो चुकी हैं। वे अपने परिवार और सम्पर्क के लोगों पर प्रभाव दबाव डालने में समर्थ हैं महिला जागरण और परिवार निर्माण के लिए यदि कुछ ठोस काम जल्दी ही करना हो तो महिला प्रशिक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए। कन्याएँ तो जल्दी ही ससुराल चली जाती हैं। जाते जाते गोदी में बच्चे आ जाते हैं। सयानी लड़कियों और वधुओं को घर से बाहर जाने पर भारत के वर्तमान वातावरण में भारी प्रतिबन्ध है नव जागरण की तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति महिलाओं के माध्यम से ही हो सकती है। दोनों ही तर्कों में तथ्य है। बहुत विचारने के वाद कन्याओं की संख्या पिछली जितनी ही रखने और बढ़ाने का निश्चय किया गया है। कन्याओं के लिए तो वर्तमान स्थान से ही काम चल जायगा। महिला छात्राओं की संख्या वृद्धि की दृष्टि से गायत्री नगर बनाने और बसाने की विशेष व्यवस्था की गई है।
आज परिवार संस्था टूट रही है। पाश्चात्य देशों में विलासिता और संकीर्णता के कारण वह परम्परा नष्ट होती जा रही है। अपने देश में पिछड़ेपन के कारण संयुक्त परिवार भेड़ों के बाड़े बन कर रह रहे हैं। प्रगतिशील और पिछड़े वर्गों में परिवार टूटने के कारण तो भिन्न-भिन्न हैं, पर उसका प्रभाव समाज रचना की दृष्टि से बहुत ही अहितकर सिद्ध हो रहा है। नव−युग का आधार पारिवारिकता ही होगी। गायत्री परिवार युग−निर्माण परिवार−नाम इसी लिए रखे गये हैं कि अपनी समाज रचना के सिद्धान्त संयुक्त परिवार प्रक्रिया के साथ जुड़े होंगे। समाजवाद का लक्ष्य भी यही है। लार्जर फैमिली गठन के सम्बन्ध में कहा-सुना तो बहुत कुछ जाता रहा है। पर उनका प्रयोग, परीक्षण एवं शुभारम्भ विधिवत् कहीं भी नहीं हो सका है।
विचार पूर्ण विशालकाय संयुक्त परिवारों का प्रयोग विज्ञ समाज में भावी समाज रचना का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। संयुक्त परिवारों में जिन कारणों से कलह और मनो मालिन्य रहता है उन्हें हटा दिया जाय और एक सहकारी समिति की तरह आचार और व्यवस्था के तत्वों को मिला कर परिवार बसाये जायें, यदि ऐसा हो सके तो श्रम, समय, व्यय, व्यवस्था में अलग-अलग रहने के कारण जो शक्ति नष्ट होती है वह बच जायगी सद्भाव और सहकार का अभ्यास बढ़ेगा। लार्जर फैमिली विशाल परिवार−का यह प्रयोग छोटे रूपों में आरम्भ किया जा सकता है और पीछे इसी को वसुधैव कुटुम्बकम् के−विश्व परिवार के बड़े पैमाने पर प्रयुक्त किया जा सकता है।
स्त्रियाँ ससुराल में तो श्रमिक की तरह ही दिन गुजारती हैं। उन्हें शिक्षा, दीक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार आदि का लाभ तो बाप के घर ही मिलता है। सुयोग्य महिलाओं की प्रशंसा में उनके कुल, खान−दान एवं माता−पिता को भी भागीदार बनना पड़ता है। नारी की शिक्षा योग्यता एवं श्रेष्ठता की उपलब्धि प्रायः बाप के घर ही होती है। आज के बाप बच्चों को जन्म देने और पेट भरने तक ही हाथ पैर पीटते हैं। उनके पास संस्कार देने के न तो साधन होते हैं और न अनुभव अभ्यास हो रहता है। इस कमी को पूरा करने के लिए ऐसा वातावरण, साधन बनाना चाहिए जहाँ अभिभावकों की इस कमी को पूरा किया जा सके। प्रयत्न यही किया जा रहा है कि गायत्री नगर युग−निर्माण परिवार की महिलाओं के लिए ‘बाप का घर’ बन सके और वे बड़ी आयु हो जाने पर भी सुसंस्कारी माता−पिता के आश्रय में पलने और ढलने का नये सिरे से लाभ प्राप्त कर सकें।
ऋषिकाओं के संरक्षण में महिलाओं के व्यक्तित्व के एवं उनके बच्चों के भविष्य निर्माण का कार्य सम्पन्न होते रहने के अनेक उदाहरण इतिहास में विद्यमान हैं।
सीता परित्याग के समय राम के सामने दो प्रश्न थे। महलों के सुख से अधिक बढ़ा चढ़ा संतोष जानकी जी को कहाँ मिल सकेगा? गर्भस्थ बालक को सुसंस्कारी बनने का अवसर कहाँ मिल सकेगा? इन प्रश्नों का समाधान उन्हें एक ही सूझा कि सीता जी को महर्षि बाल्मीकि आश्रम में रखा जाय। तदनुसार वैसी ही व्यवस्था बना दी गई। आश्रम जीवन में सीता राजमहल की तुलना में अधिक संतुष्ट रही। बच्चों की प्रतिभा का विकास जितना किसी महंगी से महंगी शिक्षण व्यवस्था से हो सकता था उसमें कम नहीं वरन् अधिक ही हुआ। लव, कुश की जोड़ी राम लक्ष्मण के समकक्ष ही तेजस्विता सम्पन्न थी।
भरत का परिपालन महर्षि कन्व के आश्रम में हुआ था। शकुन्तला वहीं रहती थी, सिंह शावकों से खेलते रहने का पराक्रम उस बालक को इसी आश्रम में उपलब्ध हुआ था बड़ा होने पर उसी के द्वारा किये गये पुनर्गठन के आधार पर इस देश का नाम भारत रखा गया।
व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी परिवार है। इसी खदान से नर रत्न निकलते हैं। परिष्कृत परिवार का निर्माण सुयोग्य नारी ही कर सकती है। उसकी सुसंस्कारिता से घर के हर सदस्य को अपेक्षाकृत अधिक सुखी और समुन्नत बनने का अवसर मिल सकता है। नारी शिक्षा का तो जगह−जगह प्रबन्ध है, पर उसमें सुसंस्कारिता उगाने और बढ़ाने की व्यवस्था ढूँढ़े नहीं मिलती। इसी अभाव की पूर्ति नये गायत्री नगर में होने जा रही है। उसे उज्ज्वल भविष्य की सृजन प्रक्रिया का उत्साह वर्धक समाचार कहा जा सकता है।