स्वाध्याय-महापुरुष ढालने का स्टील प्लान्ट

March 1978

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एक स्पेनिश पत्रकार ने एक बार महात्मा गाँधी से प्रश्न किया−”आप अब जिस रूप में हैं वह बनने की प्रेरणा कहाँ से मिली?” गाँधी जी ने बताया−भगवान् श्री कृष्ण, महापुरुष ईसा, दार्शनिक रस्किन और संत टॉलस्टाय से।

पत्रकार अचम्भे में आ गया। उसने अनुभव किया−इनमें से कोई भी तो गाँधी जी के समय में नहीं रहा पर फिर उनसे प्रेरणा वाली बात वह कैसे कहते हैं। उसने अपनी आशंका व्यक्त की इस पर गाँधी जी बोले−”महापुरुष सदैव बने नहीं रहते यह ठीक है समय के साथ उनको भी जाना पड़ता है किन्तु विचारों, पुस्तकों के रूप में उनकी आत्मा इस धरती पर चिरकाल तक बनी रहती है; जिन्हें लोग कागज के निर्जीव पन्ने समझते हैं उनका आत्मा उन्हीं में लिपटा हुआ रहता है उनमें जब तक जीवित रहें लोगों को दीक्षित करने संस्कारवान् बनाने और जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिये शक्ति प्रकाश और प्रेरणायें देने की सामर्थ्य बनी रहती है। मुझे भी इसी प्रकार उनसे प्रकाश मिला है।”

“गीता के प्रतिपादन किसी भी शंका शील व्यक्ति का सही मार्ग दर्शन कर सकते हैं। संसार में रहकर कर्म करते हुये भी किस तरह विरक्त और योगी रहा जा सकता है यह बातें मुझे “गीता” ने पढ़ाई। इस तरह मैं भगवान् कृष्ण से दीक्षित हुआ। दलित वर्ग से प्रेम व उनके उद्धार की प्रेरणा मुझे “बाइबिल” से मिली−इस तरह मैं महापुरुष ईसा का अनुयायी बना। युवा अवस्था में ही मेरे विचारों में प्रौढ़ता कर्म में प्रखरता तथा आशा पूर्ण जीवन जीने का प्रकाश− “अण्टु दिस लास्ट” से मिला इस तरह रस्किन मेरे गुरु हुये और बाह्य सुखों, संग्रह और आकर्षणों से किस तरह बचा जा सकता है यह विद्या मैंने “दि किंगडम आफ गॉड विदइन यू” से पाई इस तरह मैं महात्मा टॉलस्टाय का शिष्य हूँ। सशक्त विचारों की मूर्तिमान प्राण पुंज इन पुस्तकों के सान्निध्य में नहीं आया होता तो अब मैं जिस रूप में हूँ उस तक पहुँचने वाली सीढ़ी से मैं उसी तरह वंचित रहा होता जिस तरह स्वाध्याय और महापुरुषों के सान्निध्य में न जाने वाला कोई भी व्यक्ति वंचित रह जाता है।

स्वाध्याय वस्तुतः आत्मोन्नति का ऐसा ही साधन है। “स्वाध्यायान्मत्प्रमदः” “विद्याध्ययन से, स्वाध्याय से कभी भी प्रमाद नहीं करना”−ऋषियों की इस शिक्षा में यही तथ्य सन्निहित है कि व्यक्ति के आत्मिक परिमार्जन की प्रक्रिया उसी से सम्पन्न होती है दीन हीन जीवन को ऊँचा उठाने की शक्ति उसी से मिलती है इतिहास साक्षी है कि संसार में जितने भी सफल और महापुरुष हुये हैं उनको आगे ले जाने वाला यान किसी न किसी पुस्तक की प्रेरणा के रूप में ही मिला है।

पाश्चात्य देशों में लोग−पुनर्जन्म का सिद्धान्त नहीं मानते−किन्तु स्टालिन के बारे में किसी समय समस्त योरोप यह कहा करता था कि उसमें “मार्क्स” की आत्मा का पुनर्जन्म हुआ है। बात कुछ भी रही हो पर इतना सुनिश्चित है कि मार्क्स और स्टालिन−दो शरीर अवश्य थे किन्तु स्टालिन के मस्तिष्क में विचार पूरी तरह मार्क्स के थे। स्टालिन तब कुल 15 वर्ष के बालक थे एक दिन उनके हाथ मार्क्स की “कैपिटल” पड़ गई। स्टालिन इस पुस्तक से इतना अधिक प्रभावित हुये कि उस नन्हीं सी आयु में ही मार्क्स वादियों के गुप्त संगठन के सदस्य बन गये थे। कार्ल मार्क्स के पके पकाये विचारों की खुराक ने ही उन्हें यह प्रौढ़ता प्रदान की कि वह कम उम्र में ही संगठन में छा गये और कुछ ही समय में उसका संचालन तक उन्हीं के हाथ आ पड़ा था। स्वाध्याय से मनुष्य का विचार बल उसी तरह पोषण पाता है जिस तरह खेतों को उर्वरता बढ़ाने के लिये नहरों से लिया गया जल। यह सौभाग्य हर किसी के लिये सुलभ है, हर तरह की दिशायें मीडडडडड समुपलब्ध रहती हैं मनुष्य जिस किसी भी दिशा में आगे बढ़ना चाहे उसे उसी तरह का प्रशिक्षण और मार्ग दर्शन घर बैठे मिल सकता है।

पेरिस के “लूव लला संग्रहालय” में एक पाण्डुलिपि नैपोलियन के हाथ की लिखी हुई रखी है। यह लगभग दो सौ विभिन्न पुस्तकों की सूची है जिन्हें नैपोलियन बोनापार्ट ने किसी समय अपने स्वाध्याय के लिये चुना और मँगाया था। इन पुस्तकों में वीरतापूर्ण इतिहास, युद्ध विद्या ही नहीं मानवीय जीवन की समस्याओं पर लिखे गये महापुरुषों के निबन्ध और उपन्यास भी सम्मिलित थे। नैपोलियन जैसे तानाशाह का यह पुस्तक प्रेम अन्यथा नहीं था यदि उसने अपनी यह अभिरुचि विकसित न की होती तो 23 वर्ष की आयु में ही “ब्रिगेडियर जनरल” के पद तक पहुँचने की योग्यता, क्षमता और विचार बल उसे नहीं मिल सका होता। पुस्तकें ज्ञान और अनुभव का वह सार होती हैं जो दूसरे लोग कंटकाकीर्ण मार्ग पर चल कर प्राप्त करते हैं और अपने पीछे की पीढ़ी के लिये सरल सुबोध और निर्विघ्न राजपथ के रूप में छोड़ जाते हैं जिनमें चल कर कोई भी व्यक्ति सुविधा पूर्वक, सुरक्षा पूर्वक इच्छित लक्ष्य तक जा पहुँचता है।

पं0 जवाहर लाल नेहरू एक सम्पन्न परिवार के विलास प्रिय नवयुवक थे, यह बात अलग थी कि वे क्या पढ़ते थे किन्तु निरंतर पढ़ने का पैतृक गुण उन्हें पिता श्री मोती लाल नेहरू से मिला था। वे कहा करते थे एकान्त की सर्वोत्तम मित्र पुस्तकें ही हो सकती हैं उनसे जितनी शान्ति मिलती है उतना ही विचारों को पोषण और आत्मा को बल। यह बात उनके जीवन से ही चरितार्थ होती है जिन दिनों वे कैंब्रिज में पढ़ते थे उनके हाथ टाउनऐड मेरी डिथ की सुप्रसिद्ध पुस्तक “एशिया एण्ड योरोप” हाथ लग गई। अब तक जवाहर लाल नेहरू ने कभी राजनीति का विचार तक नहीं किया था। किन्तु इस पुस्तक ने एकाएक उनके जीवन की धारा को बदल दिया और वे राजनीति में रुचि लेने लगे। मेरी डिथ एक तरह से उन्हें उँगली पकड़ कर आगे बढ़ाते रहे और उसी मार्गदर्शन का यह प्रतिफल था कि पं0 जवाहर लाल नेहरू न केवल भारत एशिया अपितु समूचे विश्व के गण्य मान्य राज−नेताओं की सूची में जा बैठे। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद से ही उनकी इतिहास और राजनीति की रुचि गहराती गई और उन्होंने भारत एशिया और विश्व इतिहास का गहन तम स्वाध्याय किया और इस तरह संसार के सफल सम्राटों, राजनीतिज्ञों की सूझ−बूझ, चिंतन, निष्कर्ष, अनुभव उन्हें एक सम्पन्न खजाने के रूप में मिलते गये जिससे उनकी राजनैतिक प्रतिभा निखर उठी। विन्सेन्ट स्मिथ, मार्शल प्लेटो, मैक्समूलर, मैकडोनल तथा सुकरात में से जिस किसी को ढूँढ़ना हो अपने विचारों के रूप−में−सिद्धान्तों के रूप में सबके सब जवाहर लाल नेहरू में मिल सकते थे।

जार्ज बर्नार्ड शा को “शा” बनाने का श्रेय भी पुस्तकों को ही है उनकी माँ ने जब वे 8 वर्ष के थे तभी स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न कर दी थी। “शा” के पिता अक्सर कहा करते थे बच्चे को खेलने कूदने भी दिया करो तो माँ कहती−पुस्तकों में सिनेमा, खेल कूद, यात्रा−भ्रमण, इतिहास, दर्शन आदि सभी कुछ है और वह भी है जो बच्चे की विचार शक्ति के लिये ईंधन का कार्य करेगा। उसकी विचार−ऊष्मा को निरंतर प्रज्ज्वलित रखेगा। 7 वर्ष से 8 वर्ष तक वे पहले ही बाइबिल पढ़ चुके थे जिससे उनका मन आध्यात्मिक भावनाओं में संस्कारित हो चुका था। अब उन्हें शेक्सपियर बनियन तथा−दि अरेबियन नाइट्स” आदि को पढ़ने का अवसर मिला डिकिन्स, उससे वायरिन, डिंडन जान स्टुअर्ट मिल तथा शैले साहित्य का 12 वर्ष की आयु तक पूर्ण अध्ययन कर लिया। एक दूसरे के विरोधी विचार पढ़ने से न केवल उनकी तार्किक शक्ति, बौद्धिक पैनापन उभरा अपितु चिन्तन के नये आयामों का उदय हुआ। जिसके मस्तिष्क में दो विचार हों उनसे वह अधिक से अधिक चार बना सकता है किन्तु हजार विचारों वाले के लिये लाख चिंतन भी कम है। यह शक्ति मात्र स्वाध्याय से उभरती है−शा में उभरी। स्वाध्याय को जीव का प्राण मानने के कारण ही उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों तक पढ़ने का क्रम बराबर बनाये रखा और चाहे सब कुछ छोड़ दिया हो। यही स्थिति पाश्चात्य विचारक जान स्टुअर्ट मिल की भी थी। विचार भले ही भौतिक दिशाओं में बढ़ गये हों किन्तु उनके साहित्य में उनकी बौद्धिक प्रखरता बराबर झाँकती मिलती है यह भी “लाइफ आफ टरगट” के रचयिता कंडोर−ऐट तथा झिलिप क्रुक ड्रेक प्रेडरिक आदि के मकदूनिया की देन थी।

चार्ल्स डार्विन जिन्हें विकास वाद सिद्धान्त का जनक कहा जाता है पुस्तकों के अनन्य भक्त और प्रेमी थे। व्हाइट की सेलवोर्न हेनरी तथा पार्क की “केमिकल कैर सिज्म तथा” वान्डर्स आफ दि वर्ल्ड ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया था। इन्हीं पुस्तकों के स्वाध्याय ने ही उनके मस्तिष्क में इस नये दर्शन की पृष्ठ भूमि विनिर्मित की थी।

माइकेल फैराड़े, मार्कोनी गैलेसियस, हम्फ्री डैवी, हों या भारतीय इतिहास के नक्षत्र सुभाष, शास्त्री, राधाकृष्णन और सरदार बल्लभ भाई पटेल सब ने जीवन में जो कुछ पाया वह सब उनकी स्वाध्याय सुरुचि का वरदान था। जिसने उनकी प्रसुप्त क्षमताओं को अनेक गुना सक्रिय बना दिया। विचार की सत्ता हर व्यक्ति में होती है स्वाध्याय उसे पैना कर उपयोगी बना देता है जिनकी पढ़ने में अभिरुचि नहीं होती, यह कहना चाहिये कि उनके विचारों को खाद पानी नहीं मिलता और वे फलने फूलने की अपेक्षा मुरझा कर नष्ट हो जाते हैं निराशायें, चिंतायें, उद्विग्नतायें और व्याधियाँ ऐसे ही लोगों को घेरती हैं। स्वाध्याय शील तो आपदाओं में हँसी खुशी और प्रसन्नता का जीवन जी लेते हैं।


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