व्यष्टि को श्रेष्ठ बनाये बिना समष्टि की समर्थता का कोई अर्थ नहीं रह सकता। संघ बद्धता की उपयोगिता तभी है जब उसके घटकों में सज्जनता मौजूद हो। दुष्टों का समूह दूसरों के लिए संकट उत्पन्न करेगा और आपस के जादती विग्रह खड़ा करके आत्मघात जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा। अपनी शताब्दी में संघबद्धता पर इतना जोर दिया गया है कि उसमें व्यक्ति की मौलिकता ही पिस गई। अधिनायक वादी देशों ने अपनी समूह शक्ति का विकास तो बहुत किया पर व्यक्ति की अन्तरात्मा की विवशता की कातरता से बँध कर रह जाना पड़ा। समाज हित का नारा लगाकर नैतिक मूल्यों को झुठला दिया गया। फलतः व्यक्ति की दुष्टता ने समूह की पीठ पर चढ़ कर विनाश के और भी बड़े आधार खड़े कर दिये। कत्लेआमों का, जातीय विनाशों का, सामूहिक अत्याचारों का इतिहास रोमांचकारी है। व्यक्ति की दुष्टता समझ में आती है पर समूह द्वारा इस प्रकार की नृशंसता क्यों कर अपनाई जा सकती है। यह आश्चर्य का विषय है। समूह तभी नृशंसता पर उतरता है जब उसकी भाव सम्वेदना, आदर्शवादिता समाप्त हो जाती है। मनुष्यों और पशुओं का सामूहिक−संहार देश भक्ति के, सुविधा संवर्धन के, सांस्कृतिक विस्तार के आकर्षक नाम देकर किया जाता रहा है जब कि न्याय और सहयोग को सच्ची इच्छा लेकर चलने पर अधिक−अच्छी परिस्थितियों और परिणामों का लाभ लिया जा सकता था। सामूहिक विकास यदि व्यक्ति की गरिमा का अपहरण करके किया जाता है तो उसमें उत्पादित शक्ति का परिणाम भी सामूहिक विनाश के रूप में ही सामने आ सकता है।
विज्ञान, उद्योग, शस्त्र सज्जा, शिक्षा, वाहन, संचार आदि साधनों में वृद्धि होती रहे इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, पर ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि भौतिक प्रगति के साथ−साथ आत्मिक प्रगति का क्रम समानान्तर चलते रहना चाहिए अन्यथा बढ़ी हुई समृद्धि, नैतिकता का अंकुश न रहने पर उन्मत्त हाथी की तरह विनाश के इतने कुत्सित दृश्य खड़े करेगा जिसकी तुलना में दरिद्रता एवं बिखराव की वह स्थिति भी बुरी न लगेगी जिसे पिछड़ापन और असभ्यता कहकर तिरस्कृत किया जाता है।
समर्थता और सम्पन्नता के साथ आदर्शवादी नीति सत्ता के अभिवर्धन का भी उतने ही उत्साह से प्रयत्न किया जाना चाहिए जितना कि भौतिक प्रगति के लिए किया जाता है। दुःख इसी बात का है कि हम एकांगी प्रगति से सन्तुष्ट हैं। मानव बुद्धि, आस्था और सम्वेदना में किस प्रकार आदर्शों का प्रतिष्ठापन हो सके इसके लिए मूर्धन्य प्रतिभाओं में आकुलता दिखाई नहीं पड़ती है। जीभ की लपालपी करके इस महान प्रयोजन की चिह्न पूजा ही जहाँ−तहाँ की जाती है जबकि मनुष्य को एक उत्कृष्टतम यन्त्र मानकर उसके द्वारा उच्चस्तरीय उत्पादन की कारगर योजना बननी चाहिए। इतना बड़े काम बोलने या लिखने भर से पूरे नहीं हो सकते। मानवी प्रकृति और सामाजिक परिस्थितियों को उपयुक्त ढाँचे में ढालने के लिए आर्थिक उन्नति से भी बढ़ी−चढ़ी योजना बनाने और उसे कार्यान्वित करने की आवश्यकता पड़ेगी।
समूह शक्ति को विकसित करते समय भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसे अव्यवस्थित उन्माद की तरह ही तो संघबद्ध नहीं किया जा रहा है। ईसा को फाँसी एक संघबद्ध सरकार ने ही दी थी। उसके लिए न्याय का नाटक रचा गया था। सरकारी लोगों ने भीड़ को ईसा के विरुद्ध भड़काया था और दर्शक उस सन्त की जान लेने पर उतारू हो गये थे। संगठन के पास साधन होते हैं और उनके सहारे सामान्य लोगों को बहकाया और भड़काया भी जा सकता है। ईसा के सम्बन्ध में जो हुआ वही सामूहिक संगठनों ने अन्यत्र भी किया है। जर्मनी के यहूदी न तो नाजी तहखानों को भूले हैं और न जापानी जनता अणु संहार की व्यथा के आँसू सुखा पाई है। ऐसी नृशंसता वर्ग, समाज, धर्म भी अपनी−अपनी घात लगाने पर करते रहे हैं। बड़े देश छोटे देशों का शोषण उत्पीड़न करते हैं कुलीनों द्वारा अंत्यजों को पददलित करने के पीछे उनकी सामूहिक शक्ति ही काम करती है। युद्धों में आक्रमण संगठित सैन्य बल ही करता है। चोर और डाकुओं के द्वारा भी गिरोह और षड्यन्त्र बनाये जाते हैं। सामूहिक शक्ति की जो प्रशंसा है वह तभी स्थिर रह सकती है जब उसके पीछे नैतिक आदर्शों का समावेश बना रहे अन्यथा अनीति के लिए खड़ी की गई संगठता तो बिखराव से भी महंगी पड़ेगी राजमहलों में दास−दासियों के लिए जो यंत्रणा गृह बने हुए थे वे स्मरण दिलाते हैं कि शक्ति का केन्द्रीकरण यदि न्याय के नियन्त्रण से बाहर चला गया तो वह मनुष्य जाति के लिए और भी अधिक बढ़ा−चढ़ा अभिशाप सिद्ध होगा।
बड़ी बात व्यक्ति है; समाज नहीं। व्यक्तियों के समन्वय का नाम समाज है। समाज में से व्यक्ति नहीं टपकते। सिद्धान्त कितने ही बड़े क्यों न हों उन्हें कार्यान्वित करने के लिए चरित्रवान व्यक्ति चाहिए। अन्यथा समाज हित के नाम पर ऐसे कार्य होते रहेंगे जो देखने भर के लिए लोक−कल्याण के लिए किये गये प्रतीत होंगे। वस्तुतः उनके पीछे दुरभि सन्धियाँ छिपी होंगी और फलस्वरूप उनसे अहित और विनाश के परिणाम ही सामने आवेंगे सिद्धान्त अपने आप तो कार्यान्वित नहीं होते उन्हें व्यवहार में उतारना ईमानदार मनुष्यों के लिए ही सम्भव होता है। बेईमान तो सिद्धान्तों की आड़ लेकर वैसे अनर्थ करते हैं जैसे खुली दुष्टता करने वाले अपराधी भी नहीं कर सकते।
सिद्धान्तों के लेबल लगाकर दुनिया में अनर्थ कम नहीं किये गये हैं। जन क्रान्तियों की आड़ में जनता से विश्वासघात कितने हुए हैं इसका विवरण तैयार किया जाय तो यह समझना कठिन हो जायगा कि क्रान्ति कह कर जो किया गया वह प्रतिक्रान्ति तो नहीं थी। धर्म के नाम पर चल रही कुरीतियाँ, अध्यात्म के नाम पर पनपने वाला परावलम्बन ही पल्ले बाँध दिया जाता है। समाजवाद की रक्षा के लिए हंगरी पर, और प्रजातन्त्र बचाने के लिए जापान पर जो कहर बरसा उससे समाजवाद, प्रजातन्त्र पर से ही निष्ठा डगमगाने लगती है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान को आजादी कितनी महंगी पड़ी है। स्वतन्त्रता पाकर भी प्रकारान्तर से अधिक कड़ी गुलामी में फँस जाने वाले देशों की सूची काफी लम्बी है। कम्युनिज्म और दूसरे प्रकार के अधिनायकवाद द्वारा व्यक्ति की नागरिक स्वतन्त्रता का हनन जिस प्रकार किया गया उससे प्रतीत होता है कि जितने उच्च उद्देश्यों की बातें कही जा रही थीं उस कथनी और करनी में कितना अन्तर हैं।
कभी देश भक्ति की बड़ी धूम थी। राष्ट्रीयता का झण्डा हर जगह बुलन्द था। पर जब देखा गया कि धर्म विशेष के पक्षपात के लिए उसके अनुयायी अन्य धर्मावलम्बियों के साथ जैसी अनुदारता बरतते हैं, उससे भी गई गुजरी स्थिति राष्ट्रवाद ने उत्पन्न की है। सिकन्दर नैपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, माओ अपने−अपने देशों की भलाई के नाम पर अन्यों के साथ जो कुछ करते रहे हैं उससे प्रतीत होता है कि राष्ट्रवाद भी कट्टरता ग्रसित होने पर साम्प्रदायिक उन्माद का रूप धारण कर सकता है युग मनीषियों में से सेगान, सिमोन, मात्र, बर्ट्रेण्ड रसेल, जैसे मूर्धन्य लोगों ने संकीर्णता ग्रस्त राष्ट्रीयता को मानवी एकता और सार्वभौम नीति न्याय के विरुद्ध एक पक्षता पूर्ण षड्यन्त्र कहा है।
कला की महत्ता के सम्बन्ध में जितना कहा जाय उतना ही कम है; किन्तु कौन नहीं जानता कि कला के नाम पर नैतिक मर्यादाओं के अवमूल्यन का कैसा कुचक्र चलता रहा है। गीत, वाद्य, नृत्य, अभिनय के क्षेत्र का पर्यवेक्षण किया तो ज्ञात हुआ इस संदर्भ में शताब्दियों से जो भी उत्पादन किया गया है उसका बहुत बड़ा भाग कुरुचिपूर्ण, अशालीन और पशु प्रवृत्तियों को भड़काने के दोष का दोषी है। कला ने जिस दिमागों ऐयाशी और आवारा−गर्दी को जन्म दिया है उससे कोई यथार्थवादी अपरिचित नहीं होगा। साहित्य ने व्यक्ति को कितना उठाया और कितना गिराया इस कटु सत्य पर दृष्टिपात करने से यह असमंजस उत्पन्न होता है कि लेखन, प्रकाशन, पुस्तक विक्रय एवं अध्ययन में लगने वाली मानवी शक्ति का वस्तुतः कोई उपयोग भी है या नहीं? जिस प्रकार कला और साहित्य की देवियों को दुष्टता की दुरभि सन्धियों ने बाजारू वेश्या और कुटनी बनाकर रख दिया है उसी प्रकार स्वतन्त्रता, देशभक्ति, धर्मधारणा, संस्कृति रक्षा के जैसे पुनीत तथ्य के साथ भी बलात्कार किया गया है। शास्त्रीयता को तोड़−मरोड़कर विकृतियों के समर्थन में उनका कैसा वीभत्स उपयोग हो सकता है। इसे देखकर आदमी की बुद्धि से चमत्कृत होने की उतनी नहीं जितनी भयभीत होने की आवश्यकता पड़ती है। संस्कृति रक्षा के नाम पर भारत विभाजन के समय श्रोणित तर्पण के दृश्य जिनने देखे हैं वे अभी भी यह निर्णय नहीं कर पाये कि जिस संस्कृति की रक्षा के लिए यह नरमेध रचे गये थे वह आखिर थी किस वर्ग की? मानवीय अथवा अमानवीय उन दिनों पूरा जोर देकर−पूरा गला फाड़कर धर्म की−जाति रक्षा की−दुहाई दी जाती थी। इसका अर्थ होता है अधिकाधिक पैशाचिकता का उपयोग। यह धर्म अथवा जाति आखिर थे क्या वस्तु जिसके लिए इतना कुछ करने और सहने के लिए भोले भावुक लोगों को विवश होना पड़ा वे आखिर थे क्या, हैं क्या? यह प्रश्न अभी भी विचारणीय है। यहाँ न्याय और न्यायकर्त्ता का अन्तर समझना पड़ेगा। लारेन्स ठीक ही कहते थे−कोई बात न्यायोचित हो सकती है, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि जज ने जो निर्णय दिया वह न्याय ही था। सत्य के पुजारी ईश्वर भक्त और धर्म निष्ठ कहलाने वाले लोग जो करते या कहते हैं−तथ्य वही है। यह नहीं कहा जा सकता। भ्रान्तियों एवं दुर्भावनाओं में उलझा हुआ व्यक्ति जिस निष्कर्ष पर पहुँचता है वे सदा वैसे ही नहीं होते जैसे कि उन्हें प्रस्तुत या प्रतिपादित किया गया है। अमानवीय हठों और दुराग्रहों का दुःखदायी इतिहास बहुत लम्बा है। दुर्भाग्य से उनके पीछे दिग्भ्रान्त भाव बोध ही अपना काम कर रहा होता है। यह भावबोध बहुत बार तो यथार्थता से दूर ही नहीं विपरीत भी होते हैं। आग्रही व्यक्ति उन भाव−बोधों को सत्य के समतुल्य ही मानता है।
मानव जाति में न तो शौर्य साहस की कमी है न सूझबूझ की और न त्याग बलिदान की। इन विशेषताओं के होते हुए भी उसे पतन और संकट के दलदल में फँसा रहना पड़ता है। इसका एक मात्र कारण है गलत लक्ष्य एवं आदर्श का निर्धारण। युद्धों में लड़ने वाले सैनिक अपनी सूझबूझ और बहादुरी का अच्छा परिचय देते हैं, पर युद्ध का लक्ष्य न्यायोचित न होकर जब कुटिलतापूर्ण होता है तो वह नहीं मिलता जो उन सद्गुणों का मिलना चाहिए। डाकू भी जंगलों में छिपे रहते, एकाकी जीवन जीते, सतर्कता रखते और जान हथेली पर लिये फिरते हैं। यह सभी गुण तपस्वियों से मिलते−जुलते हैं फिर भी वे निन्दा और दुर्गति के भागी बनते हैं। कारण स्पष्ट है−लक्ष्य विहीन रहने पर गुण और कर्म दोनों का स्तर कुछ भी क्यों न हो उससे व्यक्ति और समाज को केवल हानि ही होती है। दिशा तो आदर्शों से मिलती है। ऊँचा लक्ष्य लेकर चलने का श्रम किया जाय तो उस आधार पर उत्कृष्टता के प्रशंसा योग्य स्तर तक पहुँचा जा सकेगा। अन्यथा अस्त−व्यस्त घन्टों घूमते रहने पर केवल थकान ही पल्ले पड़ती है। दिशा उलटी हो तो चलते रहने पर भी गन्तव्य की दूरी क्रमशः अधिक ही बढ़ती चली जाती है।
अपने समय की मानवी प्रवृत्ति विलासिता के साधनों की आतुरता, अपव्यय के लिए प्रचुर धन की आवश्यकता, दर्प प्रदर्शन के लिए चित्र विचित्र आडम्बर जैसे तुच्छ प्रयोजनों में ही सीमाबद्ध होती चली जा रही है। व्यक्ति आत्म केन्द्रित होता चला जाता है। दूसरों के सुख दुख में उसकी रुचि घटती जा रही है। फलतः आनन्द की अनुभूति का पलायन हो रहा है।
आनन्द साझेदारी का उत्पादन है। वह एकाकी चिन्तन या प्रयत्न से उपलब्ध नहीं होता। मिलजुल कर ही उसे उगाया, कमाया और बढ़ाया जाता है। आत्मीयता का विस्तार करने से जितने क्षेत्र में गहरी घनिष्ठता उत्पन्न कर ली जाती हैं उसमें चल रहे सहयोग से भौतिक आनन्द मिलता है। इस प्रकार का पारस्परिक आदान−प्रदान उच्च आदर्शों के आधार पर ही बन पड़ता है। स्वार्थों की मैत्री में जल्दी ही खींचतान आरम्भ हो जाती है और जहाँ उनमें कमी पड़ती है वहीं टकराव आरम्भ होकर शत्रुता तक की स्थिति बन जाती है। गहरी मित्रता का आधार उच्च स्तरीय सद्भावना और निर्मल निश्छल ममता के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। आनन्द उसी मैत्री का प्रतिफल है। यह निश्छलता, पवित्र उदारता जो मैत्री उत्पन्न करती है आदर्शवादी आस्थाओं का परिणाम है। इसी से अन्तःज्योति से आन्तरिक उल्लास उत्पन्न होता है और इसी के प्रकाश में सम्पर्क क्षेत्र में भावभरी मित्रता के आनन्द का रसास्वादन कर सकना सम्भव होता है। उन लोगों को इन आत्मिक और लौकिक दिव्य अनुभूतियों से वंचित ही रहना पड़ेगा जो आत्म−केन्द्रित होते चले जाते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर मनुष्य सुविधा साधन तो इकट्ठे कर सकता है, पर उसे उस उल्लास एवं आनन्द से वंचित ही रहना पड़ता है जिसे जीवन की सरसता एवं सफलता कहा जा सकता है।
रश्किल कहते थे−“झूठ धोखे पर खड़ा है, वह शब्दों तक ही सीमित नहीं होता। चुप रह कर, किसी बात पर विशेष जोर देकर−किसी वाक्य को विशेष महत्व देकर−आँख मटका कर भी झूठ बोला जा सकता है। झूठ की यह सभी किस्में, शब्दों के माध्यम से गलत बयानी करने की अपेक्षा अधिक कमीनी और गिरी हुई है। “आल्डुअस हक्सले ने लिखा है”−कोई भी सुधार आन्दोलन तब तक व्यक्ति और समाज में उपयुक्त परिवर्तन न ला सकेगा जब तक कि उसका संचालन उचित वातावरण और उचित तरीकों से न किया जाय। गान्धी जी का मत था। हम अपने लक्ष्य की दिशा में उतने ही आगे बढ़ सकते हैं जितने कि हमारे साधन शुद्ध हों। यह रास्ता लम्बा भले ही मालूम होता हो पर मुझे पूरा विश्वास है कि यही सबसे छोटा रास्ता है।
व्यक्ति ऊँचे हों, आदर्शवादी हों, चरित्र वान हों तो सामान्य नीति मर्यादा की नोटी−मोटी बातें जानने वाला ही ब्रह्म विद्या के गूढ़ रहस्यों को समझने वाला और तत्व दर्शन में प्रवीण विद्वान उस व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ सिद्ध होगा जो जानता तो बहुत है, पर करता कुछ नहीं। इसी प्रकार समाज गठन में बहुत बड़ी सुव्यवस्था न होने पर भी भले मनुष्यों का समूह शान्ति का वातावरण भली प्रकार बनाये रह सकता है।
ईसा के साथ साम्यवादी, लिंकन के साथ प्रजातन्त्रवादी अशोक के साथ राजतन्त्रवादी, मूसा के साथ धर्मतन्त्रवादी और बुद्ध के साथ बैरागी होने में आपत्ति की कोई बात नहीं हैं। सिद्धान्तों के बीच प्रतिकूलता रहते हुए भी व्यक्ति या समाज को कोई क्षति पहुँचने वाला नहीं है। यहाँ तक पूँजीवाद या समाजवाद में से किसी भी व्यवस्था के अन्तर्गत शान्तिपूर्वक निर्वाह हो सकता है। स्वतन्त्रता और पराधीनता के सम्बन्ध में भी यही बात है। आत्मीयता के संघ−बन्धनों में बाँध लेने वाली परतन्त्रता का अपना आनन्द है इसी प्रकार घुटन भरे वातावरण से छुटकारा पाने की स्वतन्त्रता भी सराहनीय है। इन परस्पर भिन्न विचारधाराओं और क्रिया−पद्धतियों के बीच किसे कितना श्रेय दिया जाय किसे कितना अमान्य ठहराया जाय इसका सीधा उत्तर नहीं हो सकता, देखना यह होगा कि यह पद्धतियाँ किन लोगों के द्वारा संचालित की जा रही हैं। भ्रष्ट व्यक्तियों के हाथ में पहुँचने पर तो स्वर्ग की सुव्यवस्था भी नरक के रूप में परिणत हो जायगी।