रांका अत्यन्त ही निर्धन व बिना पढ़े−लिखे व्यक्ति थे (kahani)

March 1978

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रांका अत्यन्त ही निर्धन व बिना पढ़े−लिखे व्यक्ति थे, परन्तु थे बचपन से ही वैराग्य वृत्ति वाले। रंक होने के कारण ही कदाचित् उनका नाम रांका पड़ा हो! उनकी पत्नी भी बड़ी साध्वा व पतिव्रता महिला थीं। रांका के प्रभाव में आकर उनकी पत्नी को भी सांसारिक सम्पत्ति से वैराग्य हो गया था। ये दोनों पति−पत्नी जंगल से लकड़ी काटकर लाते व उन्हें बेचकर जो मिल जाता उससे ही अपना गुजारा कर लेते।

एक दिन जब पति−पत्नी दोनों जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे तो राँका ने देखा कि रास्ते में सोने की मुहर पड़ी है। राँका ने सोचा ऐसा न हो सोने की मुहर देखकर उनकी पत्नी लालायित हो उठें व यह मुहर उठा ले। अतः राँका ने मुट्ठी भर धूल उठाकर मुहर पर डाल दी।

पत्नी ने पूछा−“आप किस चीज पर धूल ढक रहे हैं।” रांका ने उत्तर दिया− “मार्ग में सोने की मुहर पड़ी थी सोचा इसे धूल से ढक दूँ कहीं ऐसा न हो तुम इससे आकर्षित हो इसे उठा लो” राँका की पत्नी ने कहा−“स्वामी मैं तो सोने और धूल में कोई अन्तर नहीं समझती। मैं समझती थी आपने धूल पर ही धूल डाली है लगता है आप अभी भेद अभेद से परे नहीं हैं” अपनी परम वैराग्यवती पत्नी के इस बाँके तर्क को सुनकर राँका स्वयं ही लज्जित तो हुए, परन्तु उनको गर्व भी हुआ कि उनकी पत्नी कितनी परम विरक्त हैं। अपने बाँके वैराग्यभाव के कारण ही शायद इस महिला का नाम ‘बांका’ पड़ा होगा।

बांका की तरह सहयोग यदि हर गृहस्थ को भी मिल जाय तो भेद अभेद करने की स्थिति से वह क्रमशः दूर होता चला जाय।

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