आदर्शवाद अपनाकर हम घाटे में नहीं रहते।

March 1978

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भौतिक जीवन में लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए ही विविध-विधि जाल जंजाल रचे जाते रहते हैं और उन्हीं की लिप्सा लालसाओं में यह सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन निरर्थक विडम्बना की तरह समाप्त हो जाता है। यह तृष्णाएँ कौन कितनी तृप्त कर सका है? यह पूछने पर रावण, सहस्रबाहु, हिरण्याक्ष, सिकन्दर जैसे पराक्रमियों को भी यही कहना पड़ा है कि आग को घी डाल-डालकर बुझाने की बहुत चेष्टा की, पर उसमें सफलता मिलना तो दूर उलटे उद्विग्नता ही बढ़ती गई। इसके अतिरिक्त क्षुद्र प्राणियों का तो और हो ही नहीं सकता। एषणाओं से संत्रस्त मनुष्य मृग-तृष्णाओं में भटकता रहता है। वासना, तृष्णा, अहंता में से एक की भी तृप्ति नहीं होती। आशा दीखती भर है, हाथ तो निराशा ही लगती है। अनीति अपनाये रहने पर भी अभीष्ट परिमाण में धन नहीं मिलता। उपभोग के कुचक्र में उलटा शरीर ही गलता जाता है। जिन कुटुम्बियों को प्रसन्न करने के लिए कोल्हू के बैल की तरह साधन जुटाने में खपते रहना पड़ा वे कृतघ्नता का ही परिचय देते हैं। अहंकार तृप्त करने के लिए रची गई विडम्बनाएँ समय और धन तो बहुत खर्च करा लेती हैं, पर बदले में चापलूसों की झूठी वाहवाही के अतिरिक्त वस्तुतः व्यंग, उपहास, अनादर, अविश्वास, द्वेष, तिरस्कार जैसे दुःखद तत्व ही हाथ लगते हैं।

आध्यात्मिक जीवन में आत्मिक लाभ तो सुनिश्चित ही है। भौतिक लाभ भी ऐसे है जिन्हें मायाग्रस्त अदूरदर्शी क्षुद्रजनों की तुलना में कहीं अधिक पाया जा सकता है। जागृत आत्माओं को युग आमन्त्रण मिला है। वे यदि उसे स्वीकार करती हैं तो भौतिक दृष्टि से भी घाटे में नहीं रहतीं। सच तो यह है कि कसौटी पर भी वे अधिक लाभान्वित होती और अधिक बुद्धिमान सिद्ध होती है।

सादगी के साधु जीवन में आर्थिक मितव्ययिता अपनानी पड़ती है और स्वादेन्द्रियों पर अंकुश करना पड़ता है। इसका प्रतिफल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सुधार रूप में तत्काल दृष्टिगोचर होता है। विलासी अपव्यय में पैसा और समय ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन भी नष्ट होता है। संयम के बदल सम्मान बरसता है। इस तथ्य को हर कसौटी पर कसा जा सकता है। प्रामाणिकता, आदर्शवादिता और शालीनता का समन्वय ही संयम है। यह व्यावहारिक जीवन की तपश्चर्या है। तपस्वी को कितने ही प्रकार के आन्तरिक और भौतिक लाभ मिलते हैं। शान्ति-कुंज को घर बनाने वाले पहले दिन से ही यह लाभ उठाने लगेंगे।

रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त न तो किसी की कोई वास्तविक आवश्यकता है और न इसकी सीमित मात्रा के अतिरिक्त किसी के लिए अधिक उपभोग करना सम्भव होता है। अनावश्यक संग्रह उत्तराधिकारियों को दुर्गुणी बनाने के अतिरिक्त और किसी काम नहीं आता। दस रोटी, दस गज कपड़ा और रहने के लिए छाया के अतिरिक्त किसी के लिए और कुछ उपभोग कर सकना सम्भव ही नहीं हो पाता। उतना प्रबन्ध जब आत्मदानी भी प्राप्त कर सकते हैं, अधिक निश्चिन्ततापूर्वक बिना अनीति अपनाये जब निर्वाह साधन मिल सकते हैं तो इसमें घाटा क्या रहा? पाप और पतन का, खीज और उद्वेग का, चिन्ता और आशंका का बोझ ही उतरा। शान्ति की खोज सबको है। यह शान्ति एकान्त में नहीं निश्चिन्तता की स्थिति में ही मिलती है। इस स्थिर शान्ति की उपलब्धि आध्यात्मिक जीवन अपनाने में जितनी अधिक मिल सकती है उतनी और किसी प्रकार नहीं।

स्त्री, बच्चों के सुख-सुविधा की, उज्ज्वल भविष्य की, चिन्ता तो सभी करते हैं, पर यह जानते नहीं कि उन्हें वस्तुतः सुखी और समुन्नत कैसे बनाया जा सकता है? तथ्य यह है कि सद्विचारों और सुसंस्कारों की सम्पदा के सहारे ही मनुष्य सुखी रहता और प्रगतिशील बनता है। दूसरों के अनुदान पर किसी का भी भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सका है। जो उठा है अपने ही बलबूते खड़ा हुआ और बढ़ा है। सज्जनता, श्रमशीलता, मितव्ययिता, सहकारिता, सुव्यवस्था के पंच रत्न जिन शिक्षण में-जिस वातावरण में मिल सकें उसमें रहने पर हर व्यक्ति दिन-दिन ऊँचा उठेगा, आगे बढ़ेगा। परिवार को अपंग समझना और उनके लिए सुविधाएं जुटाते रहने में खपना व्यर्थ है। सुशिक्षित और स्वावलम्बी बनाकर ही अपने आश्रितों का वास्तविक हित साधन किया जा सकता है।

ऐसी व्यवस्था हर कोई अपने बलबूते नहीं बना सकता। क्योंकि कहीं न तो वैसा प्रचलन है, न वातावरण, न साधन। यह सुव्यवस्था आत्मदानियों के लिए गायत्री नगर में उपलब्ध हो सकती है। जो यहाँ बसेंगे उनकी महिलाओं को आजीवन-नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त करते रहने का अवसर मिलेगा। शिक्षा के लिए महिलाएँ तरसती रहती है, पर उन्हें व्यस्त एवं प्रतिबन्धित स्थित में उसके लिए अवसर ही नहीं मिलता। गायत्री नगर में यह व्यवस्था की जा रही है कि आश्रम में रहने वाली हर महिला सीमित समय में अपना घरेलू काम-काज निपटालें और न्यूनतम चार घण्टा अपने महिला विद्यालय में पढ़ने जाया करे। इस क्रम को अपनाये रहने पर अगले दस वर्ष में उसकी शिक्षा किस स्तर तक जा पहुँचेगी इसकी कल्पना करने भर से चित्त में उत्साह भर जाता है।

अपनी महिला शिक्षा मात्र स्कूली पढ़ाई तक सीमित नहीं है। उसके साथ स्वावलम्बन के लिए कुटीर उद्योगों की कक्षाएं भी चला करेंगी। अभी तो इतना ही प्रबन्ध है कि समय पड़ने पर वे कुछ कमा सकने की योग्यता प्राप्त कर ले, पर पीछे ऐसा प्रबन्ध किया जायेगा कि जापान में जिस तरह घर-घर कुटीर उद्योग चलते हैं, उस तरह छोटी-छोटी मशीनों के सहारे बचे हुए समय में कुछ कमा सकने की व्यवस्था बन जाय। यह स्वावलम्बन की क्षमता उत्पन्न कर देना उत्तराधिकार में धन छोड़ जाने से अधिक उत्तम और अधिक सुनिश्चित है।

महिला शिक्षा में नारी के व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास, शिशु निर्माण, घर की सुव्यवस्था, परिवार में सघन स्नेह, सौजन्य को न केवल पुस्तकों से वरन् व्यावहारिक परामर्श से भी (इन तथ्यों को ) समझाया हृदयंगम कराया जाता रहेगा। दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान के माध्यम से आदर्शवादी शिक्षण का दुहरा लाभ होता है। सत्परामर्श को अपनाने से तत्काल किस प्रकार कितना लाभ होता है इसे प्रत्यक्ष देख लेने पर शालीनता के सिद्धान्त जितनी अच्छी तरह हृदयंगम होते हैं उतने और किसी प्रकार नहीं।

अपनी शाक-वाटिका लगाना और अपने लिए फल शाक उगाना हर परिवार को सिखाया जायगा। इसके लिए उन्हें जमीन मिलेगी। यह भी एक प्रकार का शिशु पालन जैसा मनोरंजन ही है। व्यायाम, ड्रिल, लाठी आदि शस्त्र संचालन, खेल-कूल के साधन रहने से महिलाओं का स्वास्थ्य सुधरना स्वाभाविक है। खुली धूप, खुली वायु, गंगा तट, हिमालय का आरोग्य वर्धक वातावरण इस पर भी समूचे नगर में शालीनता की परम्परा। इन परिस्थितियों में रहने वाले बिना किसी अतिरिक्त प्रयत्न के सुखी रहते और समुन्नत बनते देखे जा सकते हैं। ओछे वातावरण से जहाँ दिन-रात क्लेश, कलह, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, चुगली, बहकावा, फुसलावा, कुसंग, कुकर्म, व्यसन, प्रमाद, विलास, अपव्यय की जो पतनोन्मुखी प्रवृत्तियां छाई रहती है, उनका अभाव रहने से सहज ही ऐसा अनुभव होगा कि किसी भाव भरे स्वर्गलोक में जीवित रहते हुए ही रहने का अवसर मिल गया।

आत्मदानियों को नये बच्चे उत्पन्न न करने के लिए कहा गया है, पर जो हैं उनकी शिक्षा स्वस्थता और संस्कारिता की समुचित व्यवस्था रहेगी। गायत्री नगर में ही बाल विद्यालय रहेगा, जिसमें अक्षर ज्ञान से लेकर हाई स्कूल तक की पढ़ाई अपने ही आश्रय में रहेगी। स्कूली परीक्षाएँ दिलाई जाती रहेंगी किन्तु पाठ्य-पद्धति पूरी अपनी ही रहेगी। इसे विशुद्ध गुरुकुल शैली की शिक्षा प्रक्रिया समझा जा सकता है। इस नगर में शिक्षण पाये हुए बालक-बालिकाओं के विवाह एवं स्वावलम्बन की चिन्ता उनके अभिभावकों को नहीं करनी पड़ेगी। मिशन का उत्पादन होने से किसी के कन्धे पर लादने की चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी वरन् अपनी विशेषताओं के कारण सहज ही अपनी उपयोगिता सिद्ध करेंगे। उनकी माँग, आवश्यकता सर्वत्र रहेगी उनके लिए सम्मान और सहयोग का कहीं अभाव नहीं रहेगा। बच्चों की चिन्ता व्यक्ति को होनी स्वाभाविक है क्योंकि उसका स्तर और दायरा सीमित है। मिशन व्यक्ति से बड़ा है, समर्थ है, सम्मानित है, प्रामाणिक है। उसके बच्चों का भविष्य कैसा होगा? इसकी चिन्ता से अभिभावक पहले दिन से ही मुक्त हो सकते हैं और यह भार मिशन पर पूरी तरह छोड़ सकते हैं।

भौतिक जीवन में लोभ, मोह और अहंकार यही तीन आवेश उन्माद मनुष्य पर छाये रहते हैं और उन्हीं की पूर्ति के लिए व्यस्त रहना पड़ता है। युग-निर्माण मिशन के सहारे आध्यात्मिक जीवन आरम्भ करने वालों की यह तीनों ही समस्याएं उद्धत तरीके से तो नहीं, पर शालीनता को विधि-व्यवस्था के साथ सहज ही पूरी हो जाती है। गुजारे के लिए औसत भारतीय के स्तर पर निर्वाह करना हो तो खर्च की कमी नहीं पड़ने वाली है।

संचित पूँजी को बैंक में डालकर उसके ब्याज से गुजारा करने वाले ही अभी प्रथम चरण में बुलाये गये हैं। उसमें कुछ कमी पड़ती दीखेगी तो उसकी पूर्ति मिशन भी कर सकता है। अपनी कमाई घर वालों के लिए छोड़कर-दान के पैसे से गुजारा करने की चतुरता बरतने वालों के लिए पहले से ही द्वार बन्द है आत्मदानी का मतलब मुफ्त में प्रचुर साधन पाना और मौज उड़ाना नहीं हैं। वरन् यह भी है जो साधन मौजूद हैं उनसे गुजारा किया जाय। यही बात मोह के सम्बन्ध में भी है। स्त्री बच्चों को विलासी बनाकर प्रसन्न करना हो तो बात दूसरी है अन्यथा वे इस वातावरण से रहकर उससे कहीं अधिक सुखी और समुन्नत बनेंगे जैसा कि मोहग्रस्त व्यक्ति उनके लिए सोचते हैं। इस तरह लोभ और मोह दोनों से ही निवृत्ति, तृप्ति और पूर्ति हो जाती है।

तीसरा भौतिक प्रयोजन बचता है अहंकार। इसे प्रकारान्तर से सम्मान पाने की आशंका ही कहना चाहिए जो ओछे मनुष्य उद्धत तरीके अपनाकर पूरा करते हैं। शृंगार, व्यसन, फिजूलखर्ची, ठाट-बाट, शान-शौकत, राजकाज, बात-बात में नौकर, वाहन, वैभव आदि के सहारे ओछे लोग दूसरों पर अपनी अमीरी की छाप डालते हैं और बड़े आदमी समझे जाने की अपेक्षा करते हैं। इसी प्रकार ऐंठ, अकड़, आतंक, आक्रमण, उद्धत आचरण, शक्ति प्रदर्शन करके अपने को सामर्थ्यवान सिद्ध करते हुए देखे जाते हैं। गुण्डागर्दी और फिजूलखर्ची के पीछे अहंकार की पूर्ति ही ललकती दिखाई पड़ती है। इस मार्ग को अपनाने वाले पाते कुछ नहीं, खोते बहुत हैं। दरिद्रता और अप्रतिष्ठा ही उनके हाथ लगती है।

अध्यात्म जगत की गतिविधियाँ अपनाते ही-उसकी घोषणा करते ही-मनुष्य लोक-श्रद्धा का भाजन बनता है। घाटा होने की बात सोचकर मोहग्रस्त सम्बन्धी इसे मूर्खता बताते और रोकते देखे जाते हैं किन्तु आदर्शवादी साहसिकता के मार्ग नत-मस्तक वे भी होते हैं। जबकि हर व्यक्ति लोभ, मोह में डूबा पड़ा है तब जो व्यक्ति अपनी क्षमताएँ लोकहित के लिए अर्पित करेगा वह सहज ही श्रद्धा भाजन बनेगा। साधु और ब्राह्मण सदा से पृथ्वी के देवता भूसुर-कहे जाते रहे हैं। आज उनके वंशजों में वे विशेषताएँ न मिलने पर भी वरिष्ठता मिलती है। लोकसेवियों को धर्मोपदेशकों को सदा उच्च स्थान मिलता है। आदर की दृष्टि से देखा जाता है और जहाँ भी वे जाते हैं भाव-भरा अभिनन्दन पीछे-पीछे, फिरता पाते हैं- (1) लोकसम्मान (2) आत्मसन्तोष (3) परमार्थ संचय (4) उज्ज्वल परलोक (5) ईश्वर का अनुग्रह (6) चिरस्थायी यश (7) युग शिल्पियों का गौरव यह सात लाभ ऐसे हैं जिसमें अहंकार की तो नहीं, पर आत्म-गौरव की-आत्म-सम्मान की उपलब्धि बड़ी मात्रा में सहज ही प्राप्त हो जाती है। उद्धत अपव्यय अनुचित संग्रह और उच्छृंखल आतंकवाद का आश्रय लेकर अहंकार की पूर्ति निरर्थक भी है और अनर्थ मूलक भी। किन्तु आदर्शवादिता का परिचय देने में जो घाटा सहा और कष्ट उठाया जाता है उसके बदले में इतना आत्म-सन्तोष मिलता है कि वह खरीद किसी भी प्रकार महंगी प्रतीत नहीं होती।

अनुभवहीनता एवं वस्तुस्थिति का सही चिन्तन न कर सकने वाले ही आदर्शवादिता का मार्ग अपनाने में घाटा और मोहग्रस्त जीवन-क्रम बनाये रहने में नफा सोचते हैं। वस्तुतः यह उनका भ्रम है। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति भी सच्चे अर्थों में उत्कृष्टता अपनाकर ही पाई जा सकती है। जागृत आत्माओं को युग का निमन्त्रण स्वीकार करने में घाटा प्रतीत हो सकता है, पर है उसमें हर दृष्टि से लाभ ही लाभ।

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