पाप न करें पौधे बात खोल देंगे

March 1978

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सन् 1823 में सुप्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री श्री जगदीश वसु ने जब वृक्ष वनस्पतियों में भी जीवन के अस्तित्व का सिद्धान्त प्रस्तुत किया जो वैज्ञानिक जगत में एक नई हलचल उत्पन्न हो गई। इससे भारतीय तत्व−दर्शन की वह मान्यता पुष्ट होती थी जिसमें आत्म−सत्ता को विशाल वनस्पति तथा विराट् जगत में समासीन बताते हुए कहा गया है−

यो देवो अन्नो यो अप्पु योविश्वम भुवनमावशेष। या ओषधींषु यो वनस्पतीशु देवाय तस्मै नमोनमः॥

जो आत्मा अन्न, जल, औषधि एवं वनस्पतियों में व्याप्त है जो विश्व ब्रह्माण्ड का मूल घटक है उसे बारम्बार नमस्कार है।

उक्त धारणा का आधार यह प्रयोग था कि जब पौधों को जीवनदायी तत्व प्रदान किये जाते तब उनमें विकास की गति और जब उन्हें किसी तरह का विष दिया जाता तो उससे उनके द्वारा बनाये गये वैज्ञानिक यन्त्र कोशाओं में मरण−क्रिया अंकित करने लगते।

श्री वसु का यह अनुसन्धान मनुष्य शरीर के बाह्य अध्ययन के ही समान था। अभी वृक्षों में भावना व कल्पनाशील आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए बड़ा कार्य शेष था। तो भी शरीर विज्ञान के समान ही यह कम महत्वपूर्ण नहीं था। रचना की स्थूल दृष्टि से ही देखा जाये तो मनुष्य शरीर अपने आप में इतना जटिल किन्तु उपयोगी वाहन है कि आज तक सृष्टि का कोई भी रचनाकार इतनी सर्वांगपूर्ण कृति प्रस्तुत नहीं कर सका। स्पष्ट है उसके एक−एक अवयव में निर्माण का जो अन्यतम कौशल छिपा हुआ है वह किसी समर्थ रचनाकार−परमात्मा से ही सम्भव हो सकता है, किन्तु मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अपने विशिष्ट निर्माण के विशिष्ट उपयोग की बात विचार तक में नहीं लाता और भौतिक सुखों की मृग तृष्णा में ही गँवाकर पश्चाताप करता हुआ एक दिन उसे छोड़ने को विवश होता है।

शरीर में विद्यमान विचारणाएँ और भावनाएँ उसमें अतीन्द्रिय सत्ता का बोध कराती हैं। यही वह तत्व है जिससे विराट् सत्ता की अनुभूति होती है उसी का चिन्तन, मनन तथा निदिध्यासन कर भारतीय तत्वदर्शियों ने कहा कि उसे ही जानो उसे ही प्राप्त करो। आत्मा को जाने बिना व्यक्ति की क्षुद्रताएँ, तृष्णा और वासनाएँ, अभाव अशक्ति और अज्ञान विगलित नहीं होते।

किन्तु कुछ वैज्ञानिकों की यह धारणा कि विचारणाएँ मात्र शारीरिक रसायन का वैसा ही परिणाम हैं जैसे जल में विद्युत या आमाशय में पित्त। किन्तु जैसे−जैसे जगदीश चन्द वसु के अनुसंधान को दूसरे वनस्पति, शास्त्रियों, वैज्ञानिकों ने आगे बढ़ाया यह स्पष्ट होता गया कि शरीरों की रचना की भिन्नता के बावजूद भावनाओं की सूक्ष्म सत्ता सर्वव्यापी तत्व है और वह अन्य जीवधारियों में ही नहीं वृक्ष, वनस्पति, खनिज और संसार के प्रत्येक कण में विराजमान है स्थूल शरीर उसका वाहन मात्र है। वह स्वयं शारीरिक उपादान नहीं।

1869 में “लाई डिटेक्टर विशेषज्ञ”। यह एक अति सम्वेदनशील यन्त्र है जिससे व्यक्ति झूठ बोल रहा है या सच। इस बात का पता चलता है, झूठ बोलते समय शरीर की ग्रन्थियों से कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण रसों का या तो बहुत अधिक मात्रा में स्राव होता है या कुछ का बिलकुल ही नहीं। इसी आधार पर यह यन्त्र वस्तुस्थिति का संकेत दे देता है। डॉ0 क्लाइडवैक्स्टर ने एक अति सम्वेदनामापी यन्त्र एक ऐसे पौधे को पत्तों से जोड़ा जो पानी ग्रहण कर रही थी, उसकी प्रतिक्रिया देखने के लिए वे अभी माचिस जलाने की बात सोच ही रहे थे कि डिटेक्टर ने तुरन्त प्रतिक्रिया दर्शायी, इसका यह अर्थ हुआ कि पौधे ने मन की बात पकड़ ली। आश्चर्यचकित वैक्स्टर ने एक दूसरा यन्त्र बनाया जिससे उन्होंने जीवित समुद्री केकड़े को ठण्डे पानी से निकाल कर गर्म पानी में डाला जैसे ही उसे गर्म जल में डाला उस यन्त्र ने 1/100 सैकिंड में एक रेखा चित्र बना दिया वही यन्त्र एक−एक कर समीप के कई पौधों के साथ जोड़कर रखा गया था। उन सबने भी नाटकीय प्रतिक्रिया दर्शायी और प्रत्येक यन्त्र ने केकड़े से जुड़े यन्त्र के समान ही 1/100 सैकिंड में वैसा ही रेखा चित्र बना दिया। विज्ञान जगत में यह परीक्षण “वैक्स्टर इफेक्ट” के नाम से जाना जाता है। उन्होंने यहाँ तक पाया कि यदि कमरे में बैठे किसी व्यक्ति को उँगली या दाढ़ी बनाते समय ब्लेड लग जाये तो समीपवर्ती पौधा तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। पोली ग्राफिक (इलेक्ट्राड्स) से तीव्र स्पन्दन आधारित कर जाँच करने से पता चलता है कि यही बात बड़े पौधों के बारे में भी है। किसी ऐसे स्थान, जहाँ हत्या हुई हो, पशु मारे जाते हों या शवदाह किया जाता हो−वृक्ष भय की ऐसी प्रतिक्रिया धारण कर लेते हैं कि उसका प्रभाव लम्बे समय तक उनमें बना रहता है। पशु वध तथा शवदाह के समीप वाले पौधों में जीवन के प्रति अनुत्साह बना रहता है। वैज्ञानिक तो अब यहाँ तक सोचने लगे हैं कि ऐसा यन्त्र निर्मित हो सकता है जो अपराधी का हुलिया तक बता देने में भी सहायक होगा।

इन शोधों के आधार पर ही वैज्ञानिक वैक्स्टर ने अपना विश्वास व्यक्त किया है कि पौधों में इतनी गहन संवेदनशीलता पायी जाती है कि वे अपने समीपवर्ती प्राणियों जिनमें मनुष्य भी शामिल हैं वे स्वर में स्वर मिलाने लगते हैं। अर्थात् वे न केवल हमारी प्रसन्नता के क्षणों में प्रसन्न होते हैं अपितु शोक की घड़ी में सम्वेदना भी व्यक्त करते हैं। प्रकृति को यह साझेदारी इस बात की द्योतक है कि प्राणिमात्र आत्मीयता के एक घनिष्ठ गठबन्धन में जुड़े हुए हैं सबके प्रति दया, स्नेह, कर्त्तव्य भावना रखकर उसे जितनी शान्ति, सुख और सन्तोष मिल सकता है, घृणा, शत्रुता और परायेपन को घृणित स्वार्थपरता से सैकड़ों साधन उपलब्ध होने पर भी वैसी प्रसन्नता सम्भव नहीं।

सेंट लारेंस ने भी अपनी शोधों में उपर्युक्त तथ्यों को सत्य पाया। वे लिखते हैं कि पौधों में “इलेक्ट्रो डायनिक” गुण का होना इस बात का प्रमाण है कि वे वातावरण के संकेत व प्रभाव संगठक से भी विस्मयकारक ढंग से ग्रहण करते हैं यह तो ज्ञात नहीं कि उनमें मनुष्य की तरह का मन होता है या नहीं, किन्तु वे प्रतिक्रिया निश्चित रूप से व्यक्त करते हैं। जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि उनमें भी मनुष्य की तरह का मन हो और वे भी अपने किसी भाग में स्मृति रखने वाला संग्राहक तत्व रखते हों। यदि यह बात पूरी तरह ज्ञात हो जाती है, तब फिर “कानून और पुलिस से बच सकते हैं, किन्तु परमात्मा से नहीं” यह उक्ति मनोवैज्ञानिक और धार्मिक आस्था के रूप में ही नहीं वरन् वैज्ञानिक तथ्य के रूप में भी स्वीकार की जाने लगेगी। हमारे ऋषि तो इस गूढ़ तत्व के विज्ञ होने के कारण वृक्षों वनस्पतियों से परामर्श और सहयोग तक प्राप्त किया करते थे। पीपल को तो देव वृक्ष तक इसी आधार पर माना गया है कि उसकी संवेदनशीलता अन्य वृक्षों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है।

यह तथ्य तब प्रकट हुए जब सेंट लारेंस के मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि क्या पौधे ब्रह्माण्ड की जानकारियाँ देने में भी सहायक हो सकते हैं। यह बात मस्तिष्क में तब आई जब माइक्रोइलेक्ट्राड से पौधे की कोशिका में विद्युत प्रवाहित कर वे उसका अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने देखा कि उस स्थिति में उसके “कोश” का साइटोप्लाज्मा सिकुड़ता है तथा सर्दी, गर्मी, प्रकाश, क्षति, स्पर्श, चमक आदि के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। 350000 पौधों पर प्रयोग कर उन्होंने निकाला कि पौधे सर्वोत्तम मौसम विशेषज्ञ हो सकते हैं तथा वे ब्रह्माण्ड की और भी सूक्ष्मतम हलचलों की जानकारी दे सकते हैं। उनकी इस विलक्षण समझ शक्ति को सेंट लारेंस ने मानव मस्तिष्क के समान ही विराट् बताया है। उनकी प्रजनन कोशिकाओं पर पड़ने वाले चुम्बकीय प्रभाव को तो और भी सरलता से मापा जा सकता है और उससे जो नैस्टिक (मलिन) प्रतिक्रिया पैदा होती है उससे उसके भय, निराशा, प्रसन्नता आदि का ही पता नहीं लगाया जा सकता है। वरन् उसके आधार पर ब्रह्माण्ड में चल रही आज की घटनाओं को भविष्य की घटनाओं के रूप में जाना जा सकता है।

28 अक्टूबर 1871 में मोजिव रेगिस्तान जो−लागबेगास के पास है 7 मील दूर तक एक−एक परीक्षण किया गया। इसे “प्रोजेक्ट साइक्लोव्स” नाम दिया गया। पौधों को फैरेडाइज्ड पिंजड़ों में रखा गया ताकि ये पार्थिव प्रभाव से विमुक्त रहें उन्हें “मेजरिंग सेट” से जोड़ा गया तो हर सेट ने एक ही तरह के विशिष्ट रेखा चित्र प्रदान किये, चुम्बकीय तरंगों से जोड़ने पर यह सिद्ध हो गया कि यह रेखा चित्र ब्रह्माण्ड की किसी प्रतिक्रिया के ही हैं, पर मन की बात न जानने की विज्ञान की असमर्थता और पौधों में प्राणी के अभाव के कारण इन रेखा चित्रों का अर्थ ज्ञान न हो सका। अलबत्ता वैज्ञानिकों ने यह माना कि वह ब्रह्माण्ड को किसी अत्यन्त सूक्ष्म सम्वेदना के स्वर थे और किन्हीं तारों से अथवा क्वासास के संकेत थे।

इन दिनों विज्ञान की एक नई शाखा “इकॉलाजी” का विकास हो रहा है−जिसकी मान्यता यह है कि संसार का हर कण एक ही जीवित चेतना से पिरोया है, सृष्टि के किसी कोने में भी हलचल हो उसकी प्रतिक्रिया ब्रह्माण्ड के हर कण में होती है। इस विज्ञान के पण्डित डॉ0 इवान एल मैकहर्ग ने वनस्पति विज्ञान की उक्त शोधों का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है− वनस्पति जगत एक दिव्य प्रभा से युक्त है और उसका अध्ययन अलंकारिक रूप में नहीं अपितु यथार्थ और वैज्ञानिक ढंग से यह सिद्ध करता है कि यदि कहीं कोई दिव्य शक्ति है तो वह सर्वव्यापी है। इससे भारतीय तत्वदर्शियों का यह विश्वास भी सत्य होता है कि न केवल चेतन प्राणियों में अपितु वृक्ष वनस्पति में भी अपना ही आत्मा समाया हुआ है। उस दिव्य विराट् का अनुभव करें। धारण करे तो कण−कण में अपना ही प्राण बसता दिखाई देने लगे, उसकी पुलक और प्रसन्नता हमें दिव्य आनन्द का रसास्वादन कराने लगे।


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