कौत्स ऋषि कण्व के आश्रम में तप साधना करते थे। एक दिन वन से लौटते हुए मार्ग में उन्हें एक आहत रूपवती स्त्री पड़ी दिखाई दी। कौत्स एक क्षण इसे देखने व उसकी सहायता करने को रुके परन्तु दूसरे ही क्षण वे अपने आश्रम की ओर चल दिए।
उनके पीछे महर्षि कण्व भी आ रहे थे। उन्हें अपने शिष्य की हृदय हीनता व असहाय अबला के प्रति दर्शाई गई उदासीनता पर आश्चर्य हो रहा था। कण्व ने उस महिला की सहायता की, उसकी चिकित्सा की तथा उसे वे आश्रम में ले आए।
आश्रम में उन्होंने कौत्स को बुला कर पूछा तो कौत्स बोले, “भगवन् मैंने देखा वह स्त्री इतनी रूपवती व सौंदर्यशाली थी कि मुझे अपने पर ही आशंका होने लगी थी−कि ऐसा न हो उसका सान्निध्य मुझे साधना से विचलित कर दे अतः मैंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के आसक्ति विषय को टाल देना ही उचित समझा” महर्षि कण्व ने कौत्स को समझाया “वत्स निर्धन, दरिद्र व अकर्मण्य मनुष्य यदि यह कहे कि उसे धन−सम्पत्ति का मोह नहीं है−उसे कर्म करने, एवं परिश्रम कर धनोपार्जन में कोई रुचि नहीं तो यह उसकी त्याग वृत्ति का नहीं परन्तु उसकी अक्षमता का सूचक है। संसार में प्रवृत्त रहते हुए भी अपने धन वैभव, ज्ञान, पुत्र पौत्रों में “अलिप्त भाव” से रहना सच्ची साधना है तुम्हारी साधना की सफलता की कसौटी ही यह है कि तुम पानी में रहकर भी पानी से दूर रहो।”
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