एक सुसम्पन्न सागर हमारे भीतर भी भरा पड़ा है।

July 1972

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इस पृथ्वी को दो तिहाई भाग जल में डूबा हुआ है और एक तिहाई पर थल दिखाई पड़ता है। थल में जो जीवन सौंदर्य और वैभव दिखाई पड़ता है वह भी जल का ही अनुदान है। समुद्री पानी भाप बनकर बादलों की तरह आकाश में उड़ता है और फिर वही बरस कर वृक्ष वनस्पति, अन्न, फल आदि उत्पन्न करता है। जीव उसी पर जीवित है। जल देवता का यह अनुग्रह यदि थल पर न हो, पानी न बरसे तो सर्वत्र श्मशान जैसी भयंकरता दीख पड़े, फिर न कहीं पेड़ पौधे घास पास दिखाई पड़े और न जीव जन्तु। तवे की तरह जलती हुई जमीन तब केवल रेतीले आँधी तूफानों की गर्द गुबार से ही भरी रहे।

समुद्र में अपार सम्पदा भरी पड़ी है। जितना सोना, चाँदी, रत्न राशि धातुएँ, रसायनें पृथ्वी पर दिखाई पड़ती हैं उनसे सैंकड़ों गुनी अधिक सागर तल में दबी पड़ी हैं। मनुष्य उन्हें जानता नहीं, या अभी ढूंढ़ नहीं पाया इससे उस अपार सम्पत्ति भण्डार की गरिमा कम नहीं होती।

इस पृथ्वी पर जितना पेट्रोलियम है उसका 40 प्रतिशत भाग समुद्र के गर्भ में है। उसे निकालने का थोड़ा सा प्रयत्न अभी सिर्फ कम्यूनिस्ट देशों में आरम्भ हुआ है। वह जब बड़े पैमाने पर निकाला जाने लगेगा तो पैट्रोल की कोई कमी नहीं रहेगी। लगभग 40 प्रकार के उपयोगी खनिज एवं रसायन समुद्र में प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं उन्हें जब बाहर लाया जायगा तो उनसे भी सम्पत्ति एवं सुविधाएं बढ़ाने में बड़ी सहायता मिलेगी।

शोध कर्ताओं के अनुसार अकेले प्रशान्त महासागर में ही 10 अरब टन सोना, 50 करोड़ टन चाँदी 20 अरब टन यूरेनियम और अरबों टन मैग्नीज भरा पड़ा है। इन सम्पदाओं के भण्डार में हर वर्ष करोड़ों टन की वृद्धि हो जाती है। यह आँकड़े तो एक समुद्र के हैं संसार के अन्य समुद्रों का भी लेखा-जोखा लिया जाए तो प्रतीत होगा कि इस समुन्नत कही जाने वाली परिस्थिति में भी धरती की सम्पदा की तुलना में समुद्र का वैभव कहीं अधिक है।

बढ़ती हुई आबादी को खुराक देने के लिए अब समुद्र का द्वार खटखटाने की तैयारी की जा रही है। लाँक्डीह एयर क्राफ्ट कार्पोरेशन के अध्यक्ष श्री ए.कार्ल कोशियन का कथन है अगले दिनों धरती मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकने में असमर्थ हो जायेगी। तब जीवित रहने के लिये समुद्र का आश्रय लेने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहेगा।

जो समुद्री अनुसंधान इन दिनों चल रहा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि समुद्र से मीठा पानी प्राप्त करने के-खाद्य सामग्री उगाने के-खनिज तथा बिजली प्राप्त करने के इतने उपाय अगले दस वर्षों में खोज निकाले जायेंगे जिनके आधार पर भावी पीढ़ी को जीवन निर्वाह की आवश्यकता साधन सामग्री उपलब्ध हो सके।

यदि जनसंख्या वर्तमान क्रम से बढ़ती रही और उसे जीवित रखना भी आवश्यक प्रतीत हुआ तो खाद्य समस्या का हल समुद्रीय वनस्पतियों से ही निकलेगा। अन्न की तो वर्तमान आबादी के लिये भी कमी पड़ती है। रासायनिक खादों, जल व्यवस्थाओं एवं यन्त्रों द्वारा समुन्नत कृषि करने पर भी खाद्य उत्पादन में इस क्रम से वृद्धि नहीं हो सकती है जिस क्रम से कि जनसंख्या बढ़ रही है। इस अन्न संकट को दूर करने के लिये समुद्र की शरण में जाने के अतिरिक्त और कहीं आश्रय नहीं मिल सकता।

समुद्र से लेकर छोटे से छोटे पोखर जोहड़ों तक में कई प्रकार की-वनस्पतियाँ उगती हैं। काई को हर कोई जानता है पर एक काई ही नहीं, जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का व्यापक क्षेत्र है, जिनके अंतर्गत उनके लाखों आकार प्रकार और वंश वर्ग आते हैं। आमतौर से वह जलचरों का आहार रही है। मनुष्य के लिये धरती पर उपजने वाली वनस्पतियाँ ही काफी थीं, वह उन्हीं से गुजारा कर लेता था तो उन जल वनस्पतियों की बात क्यों सोचता। पर अब तो स्थिति ही बदल गई। जनसंख्या की वृद्धि ने नये आधार खोजने के लिये विवश कर दिया है इस विवशता में वरुण देवता का दरवाजा खटखटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

जल वनस्पतियों में मनुष्य के खाये जाने योग्य सबसे उपयुक्त वनस्पति ढूंढ़ निकाली है- नाम है उसका- क्लोरेला। यह बहुत छोटे प्रकार की एक काई की ही किस्म है पर तो तत्व पाये जाते हैं वे मनुष्य ही नहीं अन्य थलचरों की-पशु पक्षियों की भी खुराक बन सकने योग्य है। क्लोरेला में - प्रोटीन 50 प्रतिशत, चिकनाई 7 प्रतिशत होती है। पके नीबू की तुलना में विटामिन और उपयोगी किस्म के कार्बोहाइड्रेट उसमें पर्याप्त मात्रा में होते हैं।

भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संसार के प्रमुख दस देशों ने इसकी कृषि करनी आरम्भ की है। बड़े पैमाने पर इस प्रयोग को हाथ में लेने वालों में अमेरिका, जापान, हालैण्ड, जर्मनी और इसराइल मुख्य हैं। यह कृषि बड़ी सरल है और कम खर्च की है। एक किसान बिना किसी मदद के अकेला ही 100 एकड़ कृषि की देखभाल तथा बुवाई, कटाई कर सकता है। इसकी वृद्धि आश्चर्यजनक है 12 घंटे में इसका वजन चौगुना हो जाता है। एक एकड़ में- एक साल में 40 टन फसल काटी जा सकती है। इसके लिए खादें तैयार की जा रही है ताकि इस काई को और भी अधिक गुणकारी बनाया जा सके।

वनस्पति शास्त्री डॉ. सिडनी ग्रीन फील्ड का कथन है कि अन्तरिक्ष यात्रियों के लिये क्लोरेला आदर्श खुराक की तरह काम में लाई जा सकती है, वह यान में रखे पानी के टैंक में रोज उगाई और रोज खाई जा सकती है। उसकी कृषि अन्तरिक्ष यानों में भी हो सकती है। उसे खाद आदि की सहायता से और भी उन्नत किस्म की बनाया जा सकता है।

समष्टि जगती का आधार जिस प्रकार समुद्र है उसी प्रकार व्यक्ति की निजी सत्ता का अस्तित्व एक निजी सागर पर ठहरा हुआ है। यह सागर रक्त के रूप में हमारे समस्त शरीर में व्याप्त है। मोटी आँख से देखने पर यह लाल पानी भर दीखता है पर बारीकी से देखने पर उसमें वे समस्त विशेषताएं और सम्पदाएं मौजूद हैं जो दृश्यमान सागर में दिखाई पड़ती हैं। प्राणि जगत का जीवनाधार सागर जल है और जीवधारा का व्यक्तिगत अस्तित्व उसके रक्त पर निर्भर है। जीवात्मा एक प्रकार की हेल मछली है जो रक्त रूपी शरीर में स्वच्छन्द विचरण करती है और उसी से अपने लिये सभी सुविधा सामग्री प्राप्त करती है। रक्त की महत्ता यदि हम समझें उसे शुद्ध और सशक्त बनाये रहें तो शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं आत्मिक प्रगति की दृष्टि से भी हम उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं।

हमारे शरीर में पानी की मात्रा अत्यधिक है। देह के पूरे वजन में दो तिहाई भाग पानी और एक तिहाई में दूसरी चीजें हैं। रक्त मुख्य रूप से पानी ही है। शरीर में प्रायः 5 लीटर रक्त होता है, उसमें 90 प्रतिशत तो पानी ही होता है। अन्य तत्व तो उसमें बहुत कम ही रहते हैं। ठोस और कठोर दीखने वाली हड्डी में भी पानी की काफी मात्रा रहती है।

औसतन हर मनुष्य को ढाई तीन लीटर पानी हर रोज पीना पड़ता है। अधिक मेहनत करने वाले- अधिक और बैठे ठाले लोग कम पीते हैं। गर्मी में प्यास अधिक लगती है और सर्दियों में कम। गर्मी के कारण शरीर का बहुत सा पानी पसीना तथा भाप बनकर बाहर निकल जाता है। इसी की पूर्ति के लिये उन दिनों अधिक प्यास लगती है। पेशाब और साँस में होकर भी पानी बाहर निकलता रहता है। साँस द्वारा प्रायः 250 ग्राम पानी बाहर निकलता है। यह निकासी अंदरूनी सफाई के लिये ही नहीं- शरीर को शीतल रखने की दृष्टि से भी आवश्यक है।

स्वस्थ मनुष्य के शरीर में उसके वजन का चौदहवाँ भाग वजन रक्त का रहता है। इसे डेढ़ गैलन माना जा सकता है। स्त्रियों में मासिक धर्म तथा प्रजनन के कारण उसकी मात्रा कुछ कम रहती है। औसत महिला में एक गैलन से कुछ कम ही खून होता है। रक्त में जल की मात्रा 70 प्रतिशत रहती है।

यों ठोस दीखने वाली भी कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसमें पानी का अंश न हो। हड्डियों तक में 25 प्रतिशत पानी होता है। चर्बी में कोषों में जरूर जलाँश 20 प्रतिशत रहता है। बाकी सर्वत्र उसका बाहुल्य है। गुर्दों में 81 प्रतिशत और मस्तिष्क में उसकी मात्रा 85 प्रतिशत रहती है।

रक्त का एक महत्वपूर्ण भाग है- प्लाज्मा। यह मटमैले पीले से रंग का एक तरल पदार्थ है। रक्त का 55 प्रतिशत आयतन प्लाज्मा से और 45 प्रतिशत अन्य कणों से भरा रहता है। प्लाज्मा में तैरते रहने वाले तैराकों को रक्त के लाल कण, सफेद कण तथा सफेद पपड़ियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

रक्त के मुख्य कार्य पाँच हैं-

(1) विभिन्न अवयवों के तन्तु कोषों तक उपयुक्त आहार पहुँचाना तथा उन कोषों में उत्पन्न मल को उस स्थान से हटाना।

(2) विभिन्न अवयवों में जल तथा अम्ल की मात्रा का नियन्त्रण तथा शारीरिक तापमान की स्थिरता रखना।

(3) हारमोन आदि ग्रन्थियों में उत्पन्न अतिरिक्त रसों को अपने में मिलाकर उनका लाभ समस्त शरीर को-तथा उनकी अपेक्षा रखने वाले अंग विशेष तक को-पहुँचाना।

(4) प्रत्येक कोष को ऑक्सीजन पहुँचाना और वहाँ से उत्पन्न कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर निकालना।

(5) रोग कीटाणुओं से लड़कर शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध रखना।

रक्त में उपस्थित कणों पर लाल रंग चढ़ा होता है। इस रंग को ‘हीमोग्लोबिन’ कहते है। यह प्रोटीन जैसा पदार्थ है। इसके एक अण्ड में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन के कितने ही परमाणुओं के साथ-साथ एक लौह कण भी रहता है। लाल रंग इस लौह कण के कारण ही होता है। समुद्री जीव जन्तुओं में रक्त नीले रंग का होता है। क्योंकि उनके रक्त कणों में लोहा न होकर ताँबा रहता है। नीले रक्त का नाम शरीर शास्त्र में- हेमोस्यनिक दिया गया है।

प्लाज्मा में तैरने वाले ठोस कणों को ही - रक्त का सार भाग माना जाता है। उन्हीं के द्वारा शरीर के कोषों को ऑक्सीजन तथा आहार मिलता है। इन लाल कणों की बनावट गोल चपटी तश्तरी जैसे होती है। किनारे मोटे बीच का भाग पतला और व्यास 7.2 माइक्रोन होता है।

यों रक्त का भण्डार हृदय माना गया है पर इन लाल कणों की उत्पत्ति का केन्द्र शिर की हड्डी के खोखले भाग में और रीढ़ की हड्डी में होता है। हाथ पाँव की हड्डियों के अन्तिम छोरों पर भी यह लाल कण बनते हैं। इन लाल कणों की औसत आयु 125 दिन है। इसके बाद वे मरने लगते हैं। मृतकों की यह लाश ‘हेमोकोमिया’ कहलाती है। इन लाशों को हटाने का काम तिल्ली के जिम्मे है। तिल्ली में प्रचुर संख्या में मैकरोफ्लेजेज कोशिकाएं होती हैं। इनका काम है मृत लाल कणों की लाशों को जलाकर उस राख को अपने में आत्मसात कर लेना।

साधारणतया यह लाल कण प्रति सेकेंड 23,00,0000 की संख्या में मरते रहते हैं। सन्तोष की बात इतनी ही है कि बुढ़ापे और बीमारी की स्थिति को छोड़कर उनकी जन्म संख्या, मृत्यु संख्या की तुलना में कुछ अधिक ही रहती है।

रक्त में अशुद्धि अभक्ष्य आहार से उत्पन्न होती है। रोगों का प्रारम्भ यहीं से होता है। मिर्च, मसाले, माँस मदिरा, तले भुने तामसिक पदार्थ एक तो पचते ही कठिनाई से हैं, फिर वे पच भी जायें तो अशुद्ध रक्त ही उत्पन्न करते हैं। जिस प्रकार गन्दगी डालने से स्वच्छ सरोवरों का जल भी दुर्गन्ध युक्त हो जाता है उसी प्रकार अभक्ष्य भोजन से उत्पन्न अशुद्ध रक्त अनेक रोगों का केन्द्र बना रहता है। मनोविकार भी रक्त को विषैला बनाते हैं। क्रोध, भय, शोक, चिन्ता, निराशा जैसी मनः स्थिति का प्रभाव धीरे-धीरे रक्त में सन्निहित जीवनी शक्ति को नष्ट करता चला जाता है और उसकी दुर्बलता देखकर कितनी ही बीमारियाँ चढ़ाई कर देती हैं।

रक्त केवल रंगीन पानी नहीं है। उसमें चेतना के कण कोशिकाओं के रूप में भर पड़े हैं। इन्हीं की सम्मिलित शक्ति हमारी वैयक्तिक चैतन्य सत्ता के रूप में दृष्टि गोचर होती है। यह रक्त के चेतन कण उस आहार और संपर्क से प्रभावित होते हैं जो खाया या अपनाया जाता है। यदि अनीति उपार्जित, दुष्ट प्रकृति वालों के द्वारा पकाया या परोसा हुआ होगा तो उसके साथ जुड़े हुए संस्कार रक्त कणों को प्रभावित करेंगे और मनुष्य की मनः स्थिति वैसे ही दुष्टता और निष्कृष्टता से घिरती भरती चली जायगी। संपर्क का अर्थ है समीपता। जैसे लोगों के साथ या समीप रहा जाता है। उसकी विद्युत चेतना भी अपना प्रभाव छोड़ती है। शारीरिक या मानसिक घनिष्ठता जितनी गहरी होगी यह प्रभाव भी उतना ही गहरा पड़ेगा। नर-नारी का यौन संपर्क तो पारस्परिक चेतना का अत्यन्त सघन प्रत्यावर्तन करता है। इसलिये जहाँ कुसंग से बचने दुष्टों से दूर रहने के लिये कहा जाता है वहाँ रक्त की उच्च स्तरीय सशक्तता की रक्षा के लिए निकृष्ट स्तर के व्यक्तियों से दाम्पत्य सम्बन्ध नहीं स्थापित करना चाहिए। विवाह सम्बन्ध में यदि ऐसा ध्यान न रखा जाय काम सेवन का कुत्सित स्तर अपनाया जाय तो न केवल घृणित मूत्र रोग उठ खड़े होते हैं वरन् चेतना स्तर की उत्कृष्टता को भी भारी आघात पहुँचता है। इसलिए साथी के चुनाव में रंग रूप का नहीं वरन् उसके चेतनात्मक स्तर का ध्यान रखना आवश्यक होता है। अन्यथा कुसंग से प्रभावित रक्त अपनी आत्मिक विशिष्टता और प्रतिभा सम्पदा को गँवा बैठेगा।

ब्रह्मचर्य से रक्त कणों में चैतन्यता और ऊर्जा अक्षुण्य बनी रहती है, यही शक्ति एकत्रित होकर चेहरे पर ओजस् मस्तिष्क में कुशाग्रता, व्यक्तित्व में प्रतिभा, वाणी में प्रखरता और अन्तःकरण में महानता के रूप में प्रतिबिम्बित होती है। कामसेवन में अति रुचि रखने वाले एवं अश्लील चिन्तन में निरत रहने वाले शारीरिक, मानसिक सम्भोग से क्षति उठाते रहते हैं।

समुद्र के गर्भ में छिपी हुई सम्पदा की तरह रक्तकणों में रत्न मणियों से अधिक वैभव छिपा हुआ है। जिस तरह उपलब्ध करने का ज्ञान और साधन न होने के कारण समुद्र जैसे महान भाण्डागार के समीप रहकर भी बच्चे कुछ लाभ नहीं उठा पाते, खेलने के लिये सीप घोंघे भर बटोरते रहते हैं वैसे ही हम रक्त रूपी चेतना के समुद्र में निवास करते हुए उन सम्पदाओं से लाभान्वित हो नहीं पाते जिनसे सिद्ध योगी और तपस्वी सम्पत्तिवान बनते हैं।

गरम करके सस्ती और विषैली पारा-धातु को कुशल चिकित्सक मकरध्वज जैसी संजीवनी रसायन में बदल देते हैं। तपस्वी लोग तितीक्षा और साधना की योगाग्नि में अपनी रक्त सम्पदा को प्रचण्ड विद्युत शक्ति सम्पन्न बना लेते हैं और इस हाड़ माँस के शरीर से प्रचण्ड विद्युत शक्ति संवाहक यन्त्र का प्रयोजन पूरा करते हैं। हमारे रक्त सागर में अपार सम्पदाएं दबी पड़ी हैं। साधना विज्ञान की क्रिया-पद्धति यही सिखाती है उस अविज्ञात को कैसे जाना जाय और उस अनुपलब्ध को कैसे प्राप्त किया जाय जो हमें दिव्य सम्पदाओं से सुसम्पन्न बना सकता है। बाहर भटकने की अपेक्षा यदि हम अपने भीतर ही तलाश करें तो विभूतियों भरा ‘आपा’ हमें वह सब कुछ प्रदान कर सकता है जिसकी हमें आवश्यकता है और उन सब समस्याओं को हल कर सकता है जिनके कारण हम उद्विग्न हैं।



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