कलकत्ता के लिए अनेक लोग अनेक रास्तों से आते हैं। उसी प्रकार ईश्वर को प्राप्त करने के लिये अनेक भक्त साधक अनेक साधन विधान अपनाते हैं। यदि लक्ष्य निश्चित हो और चलने का क्रम ठीक बना रहे तो सभी को सफलता मिल जाती है।
भगवान के साथ भगवान का समर्पण भाव रहना चाहिए। मैं को मिटाकर तू में लीन होना चाहिए। इस संबन्ध में साँसारिक दृष्टि से किसी भी स्तर का माना जा सकता है। पिता, पुत्र, माता, बहिन, सहायक, स्वामी, सेवक, सखा, पति, पत्नी आदि कोई भी रिश्ता उससे माने इससे कुछ अन्तर नहीं आता। दूध को-दही, छाछ, रबड़ी, खोया आदि कुछ भी बनाकर खाया जा सकता है।
-सूर्य बहुत बड़ा है पर जरा सी बदली उसका प्रकाश हम तक आना रोक देती है। इसी प्रकार ईश्वर अति विशाल और सर्वसमर्थ है पर अज्ञान की अँधियारी उसका अनुग्रह हम तक आने का मार्ग अवरुद्ध कर देती है।
-माया ऐसी है जैसी पानी पर तैरने वाली काई। काई को हटा देने पर तुरन्त तो वह हट जाती है पर थोड़ी ही देर में फिर जमा हो जाती है। उसी प्रकार स्वाध्याय, सत्संग और मनन चिन्तन से वह कुछ समय को हट जाती है पर अवसर पाते ही वह फिर जमा हो जाती है। एक बार के ज्ञानोदय को पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए।
-पानी जब तक गन्दा रहता है तब तक उसमें सूर्य चन्द्र तक का प्रतिबिम्ब नहीं चमकता, पर जब वह निर्मल हो जाता है तो जल तल में पड़ी वस्तुओं से लेकर अपनी छाया तक सब कुछ दीखने लगता है। मन की मलीनता नष्ट होने पर निर्वाण और ब्रह्म दर्शन का लाभ मिलता है।
-दीपक की अपनी महिमा है सो वह हर स्थिति में अक्षुण्य रहेगी। कोई उसके प्रकाश में पूजा करे, भोजन बनाये अथवा चोरी , हत्या करे। यह कर्ता की इच्छा के ऊपर है। ईश्वर एक प्रकाश है। उससे शक्ति और बुद्धि मिलती है। इसका उपयोग भले या बुरे कामों में करना मनुष्य के अपने हाथ में है। पर कर्त्तव्य के फल से वह बच नहीं सकता।
-शीत से जल बरफ बनकर जम जाता है और गर्मी से पिघल कर वहीं प्रवाही बन जाता है। भक्ति भावना से ईश्वर साकार बन जाता है और तत्व दर्शन से निराकार। सो अपनी मनःस्थिति के अनुसार हम ईश्वर को साकार भी देख सकते हैं और निराकार भी अनुभव कर सकते हैं।