गुरु से काम नहीं चलेगा- सद्गुरु की शरण में जाएं

July 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गुरु बाहर रहते हैं और वे सद्गुरु तक पहुँचने का रास्ता बताकर वहाँ तक पहुँचाकर अपना कर्तव्य पूरा कर देते हैं। इसके बाद ‘सद्गुरु’ का कार्य आरम्भ होता है, उसका परामर्श और प्रकाश ही परम-लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होता है।

सद्गुरु अन्तः करण में निवास करता है। इसे निर्मल आत्मा या प्रकाश स्वरूप परमात्मा कह सकते हैं। प्रकाश का अर्थ रोशनी नहीं- सन्मार्ग गामिनी प्रेरणा है। उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा भी कहते हैं। सद्गुरु का उपदेश इसी वाणी - इसी भाषा और इसी परिधि में होता है। उनका परामर्श और मार्ग दर्शन हमें निरन्तर उपलब्ध रहता है।

बाहर के गुरु अनेक विषयों पर बात कर सकते हैं- पर सद्गुरु की शिक्षा एक ही होती है अन्धकार से प्रकाश की ओर - मृत्यु से अमृत की ओर- असत से सत की ओर- चलो। बाहर के गुरु जब तब ही मिलते हैं- उनका ज्ञान सीमित होता है और उनका उपदेश भ्रान्त भी हो सकता है। पर अन्तरात्मा में विद्यमान सद्गुरु हर समय हमारे पास और साथ उपस्थित रहता है। उसका परामर्श हमें हर समय उपलब्ध रहता है।

जब कोई बुरा काम करते हैं तो हृदय काँपता है, मुँह सूखता है, पैर थरथराते हैं, भीतर ही भीतर कोई कोंचता रहता है। कोई देख तो नहीं रहा है - कोई सुन तो नहीं रहा - किसी को पता तो नहीं चल रहा- इन आशंकाओं के बीच वे दुष्कर्म किये जाते हैं। मानो सद्गुरु बराबर रोक रहा है- समझा रहा है और धिक्कार रहा है। यह नीति निर्देशक अन्तरात्मा ही सद्गुरु है।

जब कोई सत्कर्म किया जाता है तो आन्तरिक संतोष अनुभव होता है। किसी भूखे को अपनी रोटी देकर उसकी क्षुधा बुझाई जाय -किसी असहाय रोगी की चिकित्सा व्यवस्था में कुछ समय या धन लगा दिया जाए, अनीति को रोकने में स्वयं आक्रमण सह लिया जाय तो बाहर से हर्ज और कष्ट उठाते हुए भी भीतर से इतना सन्तोष उल्लास अनुभव होता है कि उसकी तुलना में वह भौतिक क्षति नगण्य ही प्रतीत होगी। यह प्रोत्साहन समर्थन और वरदान अन्तरात्मा का है इसी को सद्गुरु का आशीर्वाद कहना चाहिए।

एक हूक एक कसक टीस उठती रहती है कि - आगे बढ़ा जाय, ऊँचा उठा जाया। यह प्रेरणा इतनी प्रबल होती है कि रोके नहीं रुकती। जब अपना देव सोया रहता है तब उस अमृत को दैत्य हरण कर ले जाते हैं। यह इच्छा धन, ऐश्वर्य, इन्द्रिय भोग, पर सत्ता अहंता बढ़ाने के लिए मुड़ जाती है और मनुष्य इसी बड़प्पन के जंजाल में उलझ कर रह जाता है। पर जब सद्गुरु समर्थ होता है तो प्रवाह को अवाँछनीयता की ओर से मोड़कर वाँछनीयता की दिशा में नियोजित करता है। तब प्रगति की आकाँक्षा महानता के अभिवर्धन में लगती है। सद्भावनाओं और सद्प्रवृत्तियों की सम्पदा ही महानता की पूँजी है। गुण कर्म और स्वभाव की उत्कृष्टता इतनी आनन्ददायक और इतनी समर्थ है कि उसे पाकर मनुष्य को स्वर्ग मैं स्थित देवताओं से बढ़कर अपने आप पर सन्तोष होता है।

सद्गुरु कुमार्गगामिता से रोकता है। अनर्थमूलक चिन्तन नहीं करने देता। कुसंग में अरुचि उत्पन्न करता है। कुत्सित विचारों और भ्रष्ट व्यक्तियों के संपर्क से अरुचि ही नहीं होती वरन् घृणा भी बढ़ती है। शक्तियों के निरर्थक कामों में अपव्यय करने वाला हास-परिहास का मनमौजी सिलसिला रुक जाता है। समय का एक-एक क्षण बहुमूल्य प्रतीत होता है और उसके सदुपयोग की निरन्तर तत्परता बनी रहती है। जब ऐसा परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे तो समझना चाहिए कि सद्गुरु के सच्चे शिष्य हम हो गये। गुरु का कार्य है- मार्ग दर्शन। शिष्य का कर्तव्य है उसका परिपालन। साँसारिक गुरुओं में स्वार्थ और अज्ञान भी बहुत होता है इसलिए उनकी सब बात नहीं मानी जा सकती, पर सद्गुरु का तो हर आदेश शिरोधार्य ही होना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118