बैरी के प्रति विश्वास अपना सर्वनाश

July 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सम्राट ब्रह्मदत्त के पुत्र को दक्षिणाँग पक्षाघात हो गया। दाहिने हाथ, पैर, दाहिनी आँख, दाहिने कान—शरीर के समस्त दक्षिण पार्श्व ने अपनी क्षमतायें खो दीं। इस आकस्मिक संकट के कारण सम्राट के शोक का पारावार न रहा।

समस्त पाँचाल प्रदेश के वैद्यों ने जाँच की। राजधानी काम्पिल्य एक से एक गुणी और चतुर वैद्यों से भर गई पर न तो कोई इस संकट के कारण की ही खोज कर सका और न उसका निराकरण ही। वे यह अनुभव कर रहे थे कि यह कष्ट पूर्व जन्मों के दुष्कृतों का प्रतिफल है। अतएव उसका उपचार भी कोई ऐसा पण्डित ही कर सकता है जो जीवन की सूक्ष्म अन्तरंग विद्या का ज्ञाता हो। वैद्य लोग तो हार मान-मानकर अपने घर वापस लौट गये।

राज प्रासाद के कीर्ति शिखर पर पूजनी पक्षी का एक घोंसला भी था उसमें बैठी चिड़िया इस सारे दृश्य को बड़े ध्यान से देख रही थी—उसका एक कारण यह भी था कि उसके दो बच्चों में से एक बच्चे को भी ठीक राजकुमार के समान ही पक्षाघात हो गया था। पूजनी उस रहस्य को जानती थी कि उसके बच्चे के रूप में और राजकुमार के रूप में यह जो दो आत्माएं प्रकारान्तर से एक ही भवन में एक ही समय- एक ही प्रकार से रोग ग्रस्त हुई हैं वह मनोमय जगत की एक सुनिश्चित विज्ञान—प्रक्रिया के अंतर्गत है-मन की भी तरंगें होती हैं, हर विचार-हर कर्म की प्रतिक्रिया जब एक निश्चित दूरी पार कर लौटती है तब तक जीवात्मा भले ही अपना चोला बदल चुकी हो पर वह उसके प्राण-तत्व में प्रतिध्वनित होकर कर्मफल के रूप में प्रकट होती है। अनेक आधि-व्याधियाँ जिनका कारण मनुष्य नहीं खोज पाता वह सब पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम होती हैं और उनका उपचार भी कोई सर्वज्ञ या प्रायश्चित प्रक्रिया ही कर सकती है, यह बात पूजनी खूब अच्छी तरह समझती थी-पर पक्षी योनि में होने और मनुष्य जैसी वाणी उपलब्ध न होने के कारण वह कुछ कह—बता नहीं सकती थी।

पूजनी का बच्चा और राजकुमार दोनों ही पूर्व जन्म में मित्र थे, एक बार वन में भ्रमण करते समय उन्होंने एक मृग के बच्चे के शरीर के दक्षिणी भाग में प्रहार कर मार डाला था। उसी पाप का फल उन्हें अब भुगतान पड़ रहा था; यद्यपि देखने में वे निर्दोष जैसे लगते थे। मनुष्य जाति के साथ चिरकाल से यही होता चला आ रहा है। भगवान् अपनी इस व्यवस्था के लिये विवश है, भले ही उसे कोई कितना ही कठोर क्यों न कहे।

पूजनी चिड़िया उड़ी और समुद्र के किनारे-किनारे दूर तक घूमी—वहाँ से वह दो अमृत के समान मीठे फल लाई—एक उसने अपने बच्चे को खिलाया एक राजकुमार को। बच्चा भी स्वस्थ हो गया और राजकुमार भी। पूजनी की इस अनुकंपा ने उसके बच्चों को सारे परिवार का स्नेह भाजन बना दिया। राजकुमार इन बच्चों के साथ ही खेला करता किन्तु अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण एक दिन उसने उस चिड़िया के बच्चे को ही मार डाला पूजनी को यह देखकर बड़ा दुःख हुआ। शोकाकुल पूजनी विलाप करती हुई अपने दूसरे बच्चे को लेकर वहाँ से चलने लगी तो सम्राट् ब्रह्मदत्त बहुत दुःखी हुये। अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञता के भाव व्यक्त करते हुये उन्होंने पक्षी से घर न छोड़ने का आग्रह किया।

पूजनी बोली तात! आपकी इस सौजन्यता का आभार मानती हूँ किन्तु नीति यह कहती है कि जिससे एक बार शत्रुता हो जाये ऐसे कुसंस्कारी—व्यक्ति का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। अभी तो मेरा एक ही पुत्र नहीं रहा पीछे आपका दुष्ट बालक मेरा सर्वनाश ही कर सकता है। अतः समय रहते मुझे आपका गृह-त्याग कर ही देना चाहिए।

यह कहकर उड़ गई और फिर वह कभी वहाँ लौटकर नहीं आई।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118