मंत्र साधना के आधार और चमत्कार

July 1972

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मंत्र साधना भी यन्त्र साधना की तरह ही एक विशुद्ध विज्ञान है। यन्त्रों के सिद्धान्त, निर्माण, संचालन, सुधार में दक्षता प्रस्तुत करना ही यन्त्र विद्या का आधार है। यह प्रक्रिया ठीक रहे तो यन्त्रों की क्षमता से समुचित लाभ उठाया जा सकता है। पर यदि इन प्रकरणों में त्रुटि रहे तो मशीनें समय और धन की बर्बादी ही करती हैं। ठीक इसी प्रकार मन्त्र साधना के सभी प्रयोग, प्रकरण सही हों तो उनका लाभ प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा अधूरा और अस्त-व्यस्त साधना क्रम अपनाने पर निराशा और उपहास का ही भाजन बनना पड़ता है।

भौतिक विज्ञान बाह्य जगत को प्रभावित करता है और जड़ प्रकृति में सन्निहित शक्तियों को उपयोग योग्य बनाकर लाभकारी परिणाम उपस्थित करता है। अध्यात्म विज्ञान अन्तरंग क्षेत्र को प्रभावित करता है और चेतन प्रकृति को प्रदीप्त कर उससे सर्वसमर्थ व्यक्तित्व का निर्माण करता है। भौतिक विज्ञान सुख साधनों का उत्पादन करता है। शरीर को अधिक सुविधाजनक स्थिति में रखने के आधार जुटाता है। यही उसकी परिधि है। अन्तःचेतना तक न तो उसकी पहुँच है और न उस स्तर की क्षमता ही वह उत्पन्न कर सकता है।

यह जगत जड़ और चेतन का सम्मिश्रण है। प्राण धारियों के भीतर चेतना रहती है और बाहर पञ्च भौतिक कलेवर चढ़ा होता है। दोनों के सम्मिश्रण से ही प्राणि जगत की विविध हलचलें दिखाई पड़ती हैं। नदी, पर्वत जैसे सर्वथा जड़ पदार्थों की बात अलग है- जहाँ चेतना है वहाँ इस बात की भी आवश्यकता अनुभव की जाती है कि वस्तुओं और शरीरों की तरह ही चेतना को भी स्वच्छ स्वस्थ और सुविकसित रखा जाय। इसी क्रिया कलाप को अध्यात्म कहते हैं।

जड़ प्रकृति की शक्तियों का अधिकाधिक परिचय भौतिक विज्ञान ने सर्व साधारण के लिए सुलभ किया है। अग्नि, विद्युत, ईथर, अणु-शक्ति तरंगें, चुम्बक आदि भौतिक शक्तियों का उपयोग कितना चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है यह सर्वविदित है। चेतन प्रकृति का स्तर और भी ऊँचा है। वस्तुतः चेतन का ही जड़ के ऊपर अधिकार है। जलयान कितना ही बड़ा क्यों न हो चेतन संचालक के बिना कुछ कर न सकेगा। अन्तरिक्ष में मानव रहित राकेट स्वसञ्चालित लगते भर हैं वस्तुतः उन्हें भी धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक ही दिशा देते और नियन्त्रण करते हैं। रेलगाड़ी कितनी ही कीमती क्यों न हो, जीवित ड्राइवर के बिना वह टूटी चट्टान की तरह निरर्थक है। प्राण के बिना शरीर का क्या उपभोग? उपभोक्ता रहित सम्पदा तो समुद्र तल और भूगर्भ में न जाने कितनी दबी पड़ी है। महत्व उतनी का ही है जितनी कि चेतन प्राणी उसका उपयोग कर सके। जड़ पदार्थों की तरह जड़ विज्ञान भी तभी उपयोगी हो सकता है जब उसका चेतन प्राणी द्वारा नियन्त्रण एवं उपयोग किया जाय। तात्पर्य यह है कि जड़ की तुलना में चेतन का मूल्य महत्व अत्यधिक है। इसी अनुपात से भौतिक विज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता बढ़ी चढ़ी है।

भौतिक विज्ञान के प्रत्यक्षीकरण में प्रयुक्त होने वाले उपकरण ‘यन्त्र’ कहलाते हैं और आत्म विज्ञान से लाभान्वित होने के माध्यम ‘मन्त्र’ कहे जाते हैं। यन्त्रों के बिना वैज्ञानिक तथ्यों से लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। इसी प्रकार मन्त्र रहित अध्यात्म सिद्धान्त मात्र बनकर रह जायगा उसे प्रत्यक्ष न किया जा सकेगा।

समग्र विज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- एक पिण्डव्यापी दूसरा ब्रह्माण्डव्यापी। एक अन्तरंग दूसरा बहिरंग। जिस प्रकार थ्योरी और प्रैक्टिस के आधार पर बहिरंग शिक्षा पद्धति चलती है उसी प्रकार अध्यात्म प्रगति के लिए आस्था और साधना दो माध्यम हैं। आस्था के अंतर्गत नीति, धर्म, दर्शन, आत्म-ज्ञान, ब्रह्म एवं सूक्ष्म जगत का वर्णन विवेचन आता है। शास्त्रों में उसी का वर्णन है। आत्मबोध, लोक व्यवहार, चिन्तन परिष्कार को अध्यात्म ‘निष्ठा’ पक्ष में लिया जायगा। संयम, नियम, व्रत, तप, साधन प्रभृति क्रियाकलापों को साधना माना जायगा। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जायगी। ज्ञान कर्म के समन्वय से ही उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। ज्ञान के बिना कर्म और कर्म के बिना ज्ञान निर्जीव निष्प्राण रहेगा। तत्व दर्शन के बिना तपस्या और तप साधना के बिना तत्व दर्शन के बिना ज्ञान निर्जीव निष्प्राण रहेगा। तत्व दर्शन के बिना तपस्या और तप साधना के बिना तत्व दर्शन समग्र अध्यात्म का प्रयोजन पूरा नहीं कर सकते।

विश्वव्यापी ब्रह्म चेतना के साथ मनुष्य का सघन और सुनिश्चित सम्बन्ध है। पर उसमें मल आवरण विक्षेप जैसे अवरोधों ने एक प्रकार से विच्छेद जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है। बिजली घर और कमरे के पंखे के बीच लगे हुए तारों में यदि कहीं गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय तो पंखा और बिजली घर दोनों ही अपने-अपने स्थान पर वहीं रहते हुए भी सन्नाटा छाया रहेगा। पंखा चलेगा नहीं निःचेष्ट पड़ा रहेगा। इन अवरोधों को साफ करना ही मन्त्र साधना का उद्देश्य है। नाली के प्रवाह में कोई रोड़ा आ जाय तो पानी इधर-उधर फैलेगा और नाली सूखी पड़ी रहेगी। यही बात हमारे जीवन प्रवाह में भी दृष्टिगोचर होती है। अन्न, जल पर जीवित रहने वाला शरीर तो अपना आहार प्राप्त करके गतिशील बना रहता है पर अन्तःचेतना की खुराक न मिलने से वह दिन-दिन दुर्बल एवं मरणासन्न होती चली जाती है। यही है हम सबकी आन्तरिक दयनीय दुर्दशा का कारण।

नवजात शिशु माता के दूध पर अवलम्बित रहता है। आत्मा का पोषण परमात्मा के साथ प्रत्यावर्तन बने रहने पर ही होता है। बादल तभी बरसते हैं जब समुद्र से उन्हें भरपूर पानी मिले। यदि समुद्र से सम्बन्ध टूट जाय तो बादलों का बरसना तो दूर उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा। तब केवल धूलिकण ही यदाकदा बदली बनकर घूमते दृष्टिगोचर होंगे। परमात्मा से सम्बन्ध टूट जाने पर आत्मा अपना वर्चस्व खो बैठती है, आत्म बल के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते, महानता तिरोहित हो जाती है केवल काय कलेवर ही छिपकली की कटी हुई पूँछ की तरह उछल कूद करता रहता है। हममें से अधिकाँश को शरीर मात्र बनकर जीना पड़ रहा है। आत्मा की गरिमा के वर्णित कोई चिह्न अपने में दीखते नहीं। इसे आत्मा और परमात्मा के बीच गतिरोध ही समझा जाना चाहिए। परित्यक्ता पत्नी की भाँति उस पर उदासीनता ही छाई रहती है।

साधना इन शिथिल सम्बन्धों को पुनः प्रतिष्ठापित करने की सुनिश्चित पद्धति है। मन्त्र साधन उसका कर्म पक्ष है। यों आत्म ज्ञान भी कम महत्व का नहीं, उसकी भी अपनी गरिमा है। फिर भी वह पूर्ण नहीं। कोई व्यक्ति विद्वान, ज्ञानी, दार्शनिक, शास्त्रज्ञ, वेदान्ती होने भर से आत्मबल सम्पन्न नहीं हो सकता। इसके लिए उसे साधनात्मक कर्मकाण्ड अपनाने की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होगी। विश्व चेतना के साथ व्यक्ति चेतना को जोड़ने का यही मार्ग है। मन्त्र साधन इसी राज मार्ग की तरह समझा जाना चाहिए।

मन्त्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है। ध्वनि भी क्रमबद्ध- लयबद्ध और वृत्रकार। एक क्रम से निरन्तर एक ही शब्द विन्यास का उच्चारण किया जाता रहे तो उसका एक गति चक्र बन जाता है। तब शब्द तरंगें सीधी चलने की अपेक्षा वृत्ताकार घूमने लगती हैं। रस्सी में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर उसे तेजी से चारों ओर घुमाया जाय तो उसके दो परिणाम होंगे एक यह कि वह एक गोल घेरा जैसा दीखेगा। रस्सी और ढेले का एक स्थानीय स्वरूप बदलकर गतिशील चक्र के रूप में बदल जाना एक दृश्य चमत्कार है। दूसरा परिणाम यह होगा कि उस वृत्ताकार घुमाव से एक असाधारण शक्ति उत्पन्न होगी। इस तेज घूमते हुए पत्थर के छोटे टुकड़े से किसी पर प्रहार किया जाय तो उसकी जान ले सकता है। इसी प्रकार यदि उसे फेंक दिया जाय तो तीर की तरह सनसनाता हुआ बहुत दूर निकल जायगा॥ मन्त्र जप से यही होता है। कुछ शब्दों को एक रस, एक स्वर, एक लय के अनुसार बार-बार दुहराते रहने से उत्पन्न हुई ध्वनि तरंगें- सीधी या साधारण नहीं रह जातीं। वृत्ताकार उनका घुमाया जाना अन्तरंग पिण्ड में तथा बहिरंग ब्रह्माण्ड में एक असाधारण शक्ति प्रवाह उत्पन्न करता है। उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणामों को मन्त्र का चमत्कार कहा जा सकता है।

मन्त्रों का शब्द चयन योग विद्या में निष्णात तत्ववेत्ताओं से दिव्य चेतना एवं सघन अनुभूतियों के आधार पर किया होता है। यों उस शब्द विन्यास में कुछ प्रेरणाप्रद अर्थ और सन्देश भी होते हैं पर उनकी महत्ता उतनी नहीं, जितनी शब्द गुन्थन को। अर्थ की दृष्टि से भी उनसे भी अधिक भाव पूर्ण कविताएं हैं और हो सकती हैं। फिर सूत्र जैसे छोटे मन्त्रों में उतनी विस्तृत भाव शृंखला भरी भी नहीं जा सकती जितनी मनःक्षेत्र को प्रभावित करने के लिए आवश्यक है। वस्तुतः मन्त्र की महत्ता उसके ‘स्फोट’ में है। स्फोट का अर्थ है ईश्वर तत्व में होने वाला ध्वनि विशेष का असाधारण प्रभाव। तालाब में छोटा ढेला फेंकने से थोड़ी और छोटी लहरें उत्पन्न होती हैं पर यदि बहुत ऊँचाई से बहुत जोर से कोई बहुत बड़ा पत्थर पटका जाय तो उसका शब्द और स्पन्दन दोनों ही अपेक्षाकृत बड़े होंगे और उसकी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि भी बड़ी लहरों के साथ दिखाई देगी। मन्त्र विद्या के संदर्भ में इसी को स्फोट कहा जाता है। इसकी तुलना बारूद, कारतूस, विस्फोट से उत्पन्न ध्वनि के साथ, अथवा अणुबम फटने के साथ की जा सकती है। मन्त्र साधक को यह जानना और जताना पड़ता है कि स्पोट की कितनी मात्रा अभीष्ट है। असन्तुलित विस्फोट बन्दूक या तोप तक को फाड़ सकता है। असंगत साधना से लक्ष्य प्राप्त होना तो दूर उलटा अनिष्ट उत्पन्न हो सकता है।

मन्त्र की तीसरी धारा है लय। उसे किस स्वर में- किस प्रवाह में- उच्चारित किया जा रहा है इसे लय कहते हैं-साधारणतया मानसिक वाचिक और उपाँशु नाम से लय की न्यूनाधिकता का वर्गीकरण किया जाता है। वेद मन्त्रों में इसे उदात्त, अनुदात्त और स्वरित कहते हैं। साम गान में सप्त स्वरों तथा उनके आरोह अवरोह को ध्यान में रखा जाता है। यह लय क्रम ही संगीत का मूल आधार है इसकी व्याख्या ‘शब्द ब्रह्म’ कह कर की जाती है। जानकारों को पता है कि शास्त्र सम्मत संगीत का शरीर और मन पर ही नहीं बाह्य वस्तुओं और परिस्थितियों पर भी प्रभाव पड़ता है। दीपक राग से बुझे दीपक जलने मेघ राग से वर्षा होने की कथा गाथाएं सर्वथा अविश्वस्त नहीं हैं। संगीत के वृक्ष, वनस्पतियों, फसलों और दुधारू पशुओं पर होने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है। रोगों की निवृत्ति में संगीत की भूमिका निकट भविष्य में और भी अधिक मिलेगी और उसे चिकित्सा में प्रमुख स्थान मिलेगा। वैदिक और ताँत्रिक मन्त्रों का सारा वाङ्मय लय तथ्य को अपने गर्भ में छिपाये बैठा है। किसी भी रीति से -किसी भी ध्वनि से मन्त्र साधना भावात्मक आकाँक्षा भले ही पूरी करे उससे वैज्ञानिक लाभों का प्रयोजन पूरा न होगा।

चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है लकड़ी को नहीं। बिजली का प्रवाह भी धातु के तारों के सहारे ही चलता है। रबड़ आदि अधातु पदार्थों में बिजली नहीं दौड़ सकती। इसी प्रकार मन्त्र साधक को अपनी शारीरिक और मानसिक स्वच्छता एवं समर्थता के लिए प्रयास करते हुए अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाना पड़ता है कि अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाला शक्ति प्रवाह धारण कर सकना सम्भव हो सके। राज योग में यम नियमों की साधना मानसिक परिष्कार के लिए और आसन प्राणायाम का अभ्यास शारीरिक सुव्यवस्था के लिए है। यदि इन आरम्भिक चरणों को पूरा न किया जाय तो फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्च स्तरीय साधना सम्भव ही न होगी। आहार-विहार के प्रतिबन्ध-व्रत, संयम का विधान व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए ही है। स्वच्छ दर्पण में ही मुँह साफ दीखता है, साफ कपड़े पर ही ठीक से रंग चढ़ता है। यदि जीवन क्रम दुष्ट और दुराचारी बना रहे तो फिर मन्त्र साधना का कर्मकाण्ड कितना ही विधि विधान युक्त क्यों न हो उसका अभीष्ट परिणाम निकलेगा नहीं।

इसके अतिरिक्त पाँचवीं शर्त है- भाव भरी मनः स्थिति। इसे दूसरे शब्दों में श्रद्धा कह सकते हैं। जिस प्रकार भौतिक जगत की प्रमुख शक्तियों में विद्युत अगण्य है उसी प्रकार आत्मिक जगत में सशक्त उपलब्धियाँ श्रद्धा की उत्कृष्टता पर निर्भर हैं। मनोविज्ञान वेत्ता विचारों की क्षमता और संकल्प शक्ति का गुण गान मुक्त कण्ठ से करते रहे हैं। मनुष्य को उठाने गिराने और बनाने में निष्ठा एवं आस्था का महत्व असाधारण है। आत्मबल और मनोबल का चमत्कार सामान्य व्यक्ति को महामानव के रूप में परिणत कर देने में समर्थ होता है। संसार की महान घटनाओं की पृष्ठभूमि प्रचुर साधनों पर नहीं प्रचण्ड संकल्प शक्ति पर ही रखी गई है। सफलताओं का समग्र इतिहास दृढ़ निश्चय के साथ जुड़े हुए प्रचण्ड पुरुषार्थ की लेखनी से ही लिखा गया है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, क्लेरो वायेन्स, टेलीपैथी, आदि योग विद्या के छुटपुट खेल संकल्प शक्ति की ही फुलझड़ियाँ हैं। इसी तथ्य को साधना का प्राण कह सकते हैं।

अविश्वासी और अन्यमनस्क व्यक्ति उपेक्षा और उदासीनता के साथ कोई साधन करते रहें तो चिरकाल व्यतीत हो जाने और लम्बा कष्ट साध्य अनुष्ठान कर लेने पर भी अभीष्ट लाभ न होगा। किन्तु यदि भाव भरी मनोभूमि में थोड़ा भी साधन विधान अटूट श्रद्धा विश्वास के साथ सम्पन्न किया जाय तो उसका परिणाम तत्काल दृष्टिगोचर होगा। संदिग्ध और आशंका ग्रस्त मनोभूमि मानसिक धरातल को बहुत ही उथला बनाये रखती है उससे कोई बड़े दैवी अनुदान सँजोये नहीं जा सकते। साधनात्मक विधि विज्ञान का अपना महत्व है पर यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि श्रद्धा को आत्मिक उपलब्धियों का ‘प्राण’ ही माना जायेगा। प्राण रहित शरीर को कितना ही सँजोया सँभाला जाय उससे कुछ काम न बनेगा। भावना रहित मनोभूमि मरुस्थल के समान है जहाँ सफलता की हरी-भरी खेती लहलहाने का स्वप्न कदाचित ही सफल होता है। अस्तु साधना की सफलता चाहने वाले साधकों को अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति को श्रद्धा सिक्त ही बनाना पड़ता है।

अध्यात्म विज्ञान की गरिमा भौतिक विज्ञान से असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। यन्त्र बहुमूल्य हो सकते हैं पर मन्त्रों की महत्ता से उन्हें तोला नहीं जा सकता है। संसार की सम्पदाएं-आत्मिक विभूतियों की तुलना में नगण्य हैं। जड़ और चेतन की गरिमा में जमीन आसमान जितना अन्तर है। इसे ध्यान में रखा जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि हमें भौतिक सम्पदाओं के लिए ही लालायित नहीं रहना चाहिए वरन् आत्मिक विभूतियों को भी उपार्जित करना चाहिए। आत्मबल संग्रह करने के लिए कदम बढ़ाना सूर्य की ओर मुँह करके चलने की बराबर है। इससे सम्पत्ति रूपी छाया पीछे-पीछे चलेगी। किन्तु यदि छाया की ओर मुँह करके दौड़ा जाय तो वह पकड़ में नहीं आयेगी और जितनी तेज दौड़ होगी वह भी आगे उतनी ही तेजी के साथ दौड़ती चली जायगी। विभूति-वान सम्पत्ति का लाभ अनायास ही उठा लेते हैं जबकि सम्पत्तिवानों को भौतिक विक्षोभ और आत्मिक असन्तोष की दुहरी हानि उठानी पड़ती है।

हम आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ें। आत्म विज्ञान की सहायता लें। आत्मबोध से दृष्टिकोण परिष्कृत करें और साधना निरत रह कर विभूतियों के अधिकारी बनें। इस संदर्भ में मन्त्र साधना का आश्रय लेना एक प्रकार से अनिवार्य ही है।

(अपूर्ण)



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