न किसी को कैद करें न कैदी बनें

July 1972

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लोभ और मोह को हम जितना ही पकड़ते हैं, उतना ही उनके बन्धनों में बँधते जाते हैं। सम्पदा को अपने अधिकार में करना चाहते हैं पर होता ठीक उलटा है। हम उलटे सम्पदा के कब्जे में चले जाते हैं, उसी के गुलाम बनकर जीते हैं। परिवार पर अपनी मोह-ममता केन्द्रित करते हैं, उन्हें अपना मानते हैं पर सच तो यह है कि हम उन्हीं के होकर रह जाते हैं। पदार्थों और व्यक्तियों को पकड़ने का नहीं—अपने को छुड़ाने का ही प्रयत्न करना उचित है। संसार को बाँधने में नहीं उसकी शोभा देख कर प्रमुदित रहने और उपलब्धियों का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने में ही बुद्धिमत्ता है।

प्रकाश की ओर से मुँह मोड़ कर छाया के पीछे भागने से छाया आगे बढ़ती जाती है और पकड़ में नहीं आती। लालसा अतृप्त ही रहती है। छाया को बाँधने का प्रयास सफल नहीं होता। पर जब छाया की ओर से मुँह मोड़ कर प्रकाश की ओर चलना आरम्भ करते हैं तो छाया अनुगामिनी बनकर पीछे-पीछे चलने लगती है। भगाने पर भी नहीं भागती। हटाने पर भी नहीं हटती। माया छाया की तरह है। सम्पन्न बनने के प्रयास जितने तीव्र होते हैं तृष्णा उतनी ही बढ़ती है और जो मिला था वह स्वल्प लगता है। आकाँक्षा की तुलना में उपलब्धि की मात्रा स्वल्प रहेगी और अभाव घेरे रहेंगे। पर जब हम उत्कृष्टता का वरण करते हैं, आदर्शों की ओर चलते हैं तो आवश्यकताओं की पूर्ति सरल बन जाती है, न कोई अभाव रहता है न असन्तोष।

उदारता में हानि दीखती है और कृपणता में लाभ प्रतीत होता है पर वस्तुतः यह मान्यता अत्यधिक भ्रम पूर्ण है। त्याग के बिना मिलने का कोई नियम ही इस संसार में नहीं है। मल त्याग न करें तो नया आहार ग्रहण करना संभव ही न होगा। साँस न छोड़ी जाय तो नई प्राण वायु भीतर कैसे जायगी? बीज न गले तो वह वृक्ष कैसे बनेगा? वृक्ष यदि अपने पुष्प न झड़ने दे तो उस डाली पर फल कैसे आवेंगे? फल यदि डाली पर ही चिपके रहें तो अगले वर्ष नये फल वहाँ कैसे लगेंगे?

भेड़ ऊन देती है। प्रकृति उसकी क्षति पूर्ति करती रहती है। रीछ अपने बाल किसी को भी छूने नहीं देता सो उसके बाल जितने थे उससे अधिक नहीं बढ़ते। कृपणता से रुष्ट होकर प्रकृति भी अपना अनुदान बन्द कर देती है। रीछ बनने में नहीं, भेड़ बनने में दूरदर्शिता है।

समस्त विश्व को हम अपनी सम्पदा कह सकते हैं। उपयोग के लिए ललचायें नहीं—अधिकार जमायें नहीं, शोभा देखकर संतुष्ट रहें तो फिर हमारे विश्व स्वामित्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता। प्रत्येक जड़ चेतन के साथ अपनी ममता, आत्मीयता जोड़ने का मनुष्य को पूरा-पूरा अधिकार है। इस स्थिति में मनोभूमि को पहुँचा कर ही चिरस्थायी सन्तोष मिल सकता है।

थोड़े से स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्बियों को, पदार्थों को ही अपना बताने और उन्हें इच्छानुकूल चलाने की मोह-ममता हमें दुख देगी और निराश करेगी। उनके साथ जुड़े हुए विशेष उत्तरदायित्व के कारण विशेष कर्त्तव्य निवाहें इतना ही पर्याप्त है। आत्मीयता को उस छोटी सीमा में कैद न करें वरन् उन्मुक्त आकाश में उसे स्वच्छन्द विचरण करने का अवसर दें।

संसार में सुख कम नहीं—शोभा, सौंदर्य, सत्कर्म, सद्ज्ञान, सद्भाव, सज्जनता सब कुछ प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं। करुणा, दया, प्रेम, ममता, सेवा, सहायता जैसी सद् प्रवृत्तियाँ गंगा, यमुना की तरह बहती हैं। उनकी शोभा, सुषमा निरखते हुए उनकी निर्मलता में स्नान करते हुए उतनी ही शान्ति, शीतलता और तृप्ति अनुभव होती है।

पक्षी को पिंजड़े में कष्ट होता है। कैदी बन्दीगृह में पड़ा तड़पता है। पशु का रस्सी तुड़ाकर स्वच्छन्द विचरण करने के लिए मन रहता है। स्वार्थ भरी संकीर्णता की जञ्जीरों में जकड़ा हुआ आत्मा भी निरन्तर क्षुब्ध रहता है। उसे असीम बनने का जब भी अवसर मिलेगा स्वर्गीय शान्ति और जीवन मुक्ति को अपने सामने प्रस्तुत देखेगा।


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