दृष्टा नहीं सृष्टा बनना श्रेयस्कर है।

July 1972

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मनः स्थिति की दृष्टि से मनुष्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक सृष्टा दूसरे दृष्टा।

सृष्टा वे हैं जो कुछ बनने और बनाने की योजना लेकर चलते हैं और अपनी शारीरिक मानसिक एवं भौतिक शक्तियों को योजनाबद्ध रूप से व्यवस्था पूर्वक नियोजित करते हैं।

दृष्टा वे हैं जो दुनिया की हलचलों, मन की हरकतों और शरीर की गतिविधियों को देखते भर रहते हैं और उनमें से अनुकूलता, प्रतिकूलता के आधार पर- प्रिय अप्रिय का- सुख-दुख का अनुभव करते रहते हैं। देखते रहना ही उन्हें पर्याप्त होता है। इतने में ही उनका सन्तोष समाधान हो जाता है। प्रिय दर्शन की इच्छा से ही वे इधर उधर आते जाते और कुछ करते धरते दीखते हैं। निर्माण में उनकी रुचि नहीं होती।

सृष्टा होने की प्रतिभा कम ही लोगों में पाई जाती है। यद्यपि वह होती सभी में है और अनुकूल परिस्थितियों में विकसित की जा सकती है, पर इस सृजन क्षमता का उपयोग कोई-कोई ही करते हैँ। आमतौर से दृष्टा बनना सरल पड़ता है उसके लिये कोई उत्तरदायित्व नहीं उठाना पड़ता और न कर्तव्य निर्धारित करना पड़ता है। जो हो रहा है उसी से संपर्क बनाने से काम चल जाता है। मनोरंजन की परिस्थितियाँ भी इस संसार में कम नहीं हैं। उन्हें पास ले आना या उनके पास पहुँच जाना कुछ बहुत कठिन नहीं है। यों उसमें भी विनोद के पास खिसक जाना सरल पड़ता है। उसे अपने पास बुलाने में भी तो झंझट उठाना पड़ता है और प्रयत्न करना पड़ता है।

कितने ही व्यक्ति अपने अवकाश का समय, सिनेमा, नाटक, नाच गाने, खेलकूद, सैर सपाटे, गपशप, ताश, शतरंज जैसे कार्यों में व्यतीत करते हैं। कुछ नहीं हुआ तो रेडियो से हलके फुलके गाने सुनते रहते हैँ। इस कार्य में एकाकी रहने में मजा नहीं आता- साथियों के संग अच्छा रंग जमता है इसलिये ऐसे लोग अपनी ही प्रकृति के और लोग भी तलाश करते रहते हैं। पास नहीं मिलता तो दूर जाते हैं। अथवा ऐसा प्रयत्न करते हैं कि अपने पास-पड़ौस में ही अपनी जैसी मनमौजी प्रकृति के दूसरे लोग ढाले बनाये जायँ। इसके लिये वे तरह तरह के प्रयत्न करते हैं। दोस्ती गाँठते हैं, सज्जनता बरतते हैं, दरवाजों पर चक्कर लगाते हैं, गाँठ से खर्च भी करते हैं और तब तक उस प्रयास में लगे ही रहते हैं जब तक के शिकार भी उन्हीं जैसा मनचला नहीं बन जाता। इस प्रकार यह प्रवृत्ति छूत की बीमारी की तरह यारवासी के साथ-साथ बढ़ती रहते है।

ऐसे लोगों के सामने कोई उद्देश्य नहीं होता, भविष्य की उन्हें कुछ चिन्ता नहीं होती, पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों की ओर उनका कोई ध्यान नहीं जाता, प्रगति और उन्नति की कभी-कभी कल्पना तो करते हैं पर उत्कंठा उसकी भी नहीं होती। हलकी फुलकी दिनचर्या बनाकर बिना बोझ और उत्तरदायित्व का मनमौजी ढर्रा ही उनके अभ्यास में जुड़ जाता है।

ऐसे हलके फुलके ढर्रे पर चलने वाले-उसमें रस लेने वाले लोग या तो ओछे स्तर के होते हैं या बन जाते हैं। क्योंकि प्रतिभा सम्पन्न और प्रगतिशील लोग सदा अपने कामों में व्यस्त रहते हैं। जिनके सामने कुछ बड़ी बात नहीं वे ही इस मटर गश्ती में मस्त रहते हैं। धीरे-धीरे उनमें दोष पनपते हैं और ऐसे वातावरण में दोष दुर्गुण ही भर जाते हैं। मनोरंजन के वातावरण में वे लोग भी घुस पड़ते हैं जो इन अस्त व्यस्त लोगों से लाभ उठायें। नशा जुआ, चोरी-व्यभिचार जैसी कितनी ही बुराइयाँ स्वभावतः ऐसे वातावरण में पलती और पनपती हैं। मनमौजी लोगों का उनमें फँस जाना सरल भी है और स्वाभाविक भी। अस्तु बात शुद्ध मनोरंजन तक सीमित नहीं रहती। अस्तु बात शुद्ध मनोरंजन तक सीमित नहीं रहती। इस स्तर के लोग जब अगला कदम बढ़ाते हैं तो वह अनैतिकता और अवाँछनीयता का ही होता है। इस प्रकार दृष्टा की आरम्भ में हलकी फुलकी जिन्दगी क्रमशः भारी और जटिल होती चली जाती है। अपराधों की और दोष दुर्गुणों की शृंखला सीमित नहीं रहती-उसमें एक के बाद दूसरी कड़ी जुड़ती ही चली जाती है।

कल्पना-उठती उमर ऐसे ही अल्हड़पन को लेकर आती है। नया उत्साह होता है और दुनिया के प्रति नया कौतूहल। तब कुछ करने या बनने की अपने कुछ देखने और कुछ चखने की उत्कंठा प्रबल होती है। उस उभार को दिशा देने का उपयुक्त साधन न हो तो फिर पानी नीचे की ओर ही बहता है। तब मनमौजी बनने का और ऐसी ही चौकड़ी में फँस जाने का ही द्वार खुलता है। समय कटता जाता है और पूँजी चुकती जाती है। तन, मन और धन का जो कोष पास में था वह क्रमशः घटता ही चला जाता है और जब आँख खुलती है तब जिम्मेदारियों को बोझ इतना भारी हो जाता है कि उसे ढोते हुए किसी महत्वपूर्ण दिशा में प्रगति कर सकना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है।

सृष्टा के सामने लक्ष्य रहता है और वह एक दिशा और कार्य पद्धति निर्धारित करता है। उसी संदर्भ में सोचता है और सहयोग दे सकने वालों से संपर्क बढ़ाता है। इस दुनिया में ऐसे सुन्दर व्यवस्था है कि सहयोगी हर क्षेत्र में मिल जाते हैं। नशेबाज, जुआरी, व्यसनी, चोर, व्यभिचारी ही हर जगह फैले नहीं पड़े हैं। सज्जनों और सद्गुणों की भी कमी नहीं। अपना मन हो तो वे भी मिल जाते हैं और सहयोग उस क्षेत्र में भी सम्भव हो जाता है। एक-एक कदम बढ़ाते चलने से लम्बी यात्रा पूरी की जा सकती है। एक-एक बूँद संग्रह करने से घड़ा भर जाता है। लक्ष्य और प्रयत्न यदि जुड़े रहें तो प्रगति निश्चित रूप से होगी भले ही वह परिस्थितिवश धीमी और कष्ट साध्य क्यों न बनी रहे।

मनमौजी लोग प्रगतिशील लोगों के साथ जब अपनी तुलना करते हैं, तो उन्हें जमीन आसमान जितना अन्तर दीखता है। स्कूल में साथ पढ़ने वाले फिसड्डी और गरीब लड़के अब कहाँ पहुँच गये- कितने आगे बढ़ गये जब कि अपने पास सुविधा-साधन रहने पर भी कुछ बन नहीं सका। उठना तो दूर उलटे नीचे ही खिसकते चले गये। और स्थिति में इतना अन्तर पड़ गया जिसे देखकर आश्चर्य होता है।

इस अन्तर की ठीक से समीक्षा न कर सकने वाले लोग सरल सा समाधान भाग्यवाद को ढूंढ़ लेते हैं। वे प्रशंसा या निंदा भाग्य की करते हैं और उसे ही इस उतार चढ़ाव का कारण मानते हैं। पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। मनुष्य के सृष्टा और दृष्टा क्षेत्र में से एक की पसन्दगी ही वह आधार है जिसे अपनाने पर ऊँचे चढ़ना या नीचे गिरना संभव होता है।

दृष्टा मनोरंजन के स्थान और अवसर ढूँढ़ने के लिये मारा-मारा फिरता है। नवीनता जब तक रहती है। तब तक मौज अच्छी लगती है। पुरानी होने पर वही बात नीरस और अप्रिय लगने लगती है। हर रोज एक ही सिनेमा देखना एक ही मिठाई खाना-एक ही गाना सुनना कौन पसन्द करता है। नवीन के बिना मनोरंजन में रस ही नहीं रहता। नये अवसर कहाँ तक आयें, नई विनोद सामग्री कहाँ तक मिले ? मन में अतृप्ति ही बनी रहती है। समय, श्रम, मनोयोग, धन की प्रचुर मात्रा खर्च करते रहने पर भी अभाव, असन्तोष और अतृप्ति का ही अनुभव होता है उतने साधनों का सदुपयोग करके जो कहने लायक प्रगति हो सकती थी उसका घाटा प्रत्यक्ष ही है। दृष्टा प्रवृत्ति जिस प्रसन्नता और तृप्ति को लक्ष्य मानकर मुखरित हुई थी उससे सदा उसे वंचित ही रहना पड़ता है। जो मिलता है वह आकाँक्षा की तुलना में अति स्वल्प ही ठहरता है और असन्तोष ही बना रहता है।

सृष्टा का मनोरंजन उसका कार्य, प्रयत्न पुरुषार्थ, साहस और लक्ष्य स्वयं ही बन जाता है। उसे अपनी चेष्टा में स्वयं ही रस आता है। उज्ज्वल भविष्य के सपने उत्साह भरते हैं और उसी जैसे अन्य प्रगतिशील साथियों का संपर्क सहयोग नया प्रकाश देता रहता है। सृष्टा देखता है कि उसने न केवल स्वयं ही प्रगति की वरन् अपने संपर्क और प्रभाव में आने वाले लोगों को प्रगतिशीलता के लिये प्रकाश प्रोत्साहन भी प्रदान किया, यह संतोष उतना गहरा और स्थायी होता है कि उसकी सुगन्ध देर तक बनी रहती है और ऊँचे दर्जे का संतोष समाधान मिलता रहता है।

यह सोचना सही नहीं कि प्रगतिशील और कार्य व्यस्त लोग मनोविनोद से वंचित रह जाते हैं और रूखा और नीरस जीवन जीते हैं। यदि ऐसा होता तो वे अपना काम लम्बे समय तक तन्मयता के साथ कर ही नहीं सकते थे। मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि अरुचिकर कार्य देर तक नहीं किया जा सकता, उसमें जल्दी ही थकान आती है, जी ऊबता है और सफलता का स्तर गया गुजरा रहता है। जिसमें रस न आए ऐसा काम छोड़ते ही बनता है कोई लम्बे समय से तत्परता और रुचि पूर्वक किसी काम को कर रहा है इसका तात्पर्य निश्चित रूप से यह है कि उसे उसमें मनोरंजन के तत्व मिल गये।

काम का वर्गीकरण करके कुछ-कुछ देर बाद उस प्रक्रिया में थोड़ा हेरफेर करते रहने की पद्धति सभी कार्यनिष्ठ लोग जानते हैं फलतः उन्हें न थकान की शिकायत होती है न मनोरंजन की कमी अखरती है।

मनोरंजन के साधन बाहर तलाश करने के लिये मारे-मारे फिरना दृष्टा वर्ग को ही पसन्द आता है। सृष्टा मनोरंजन के पीछे नहीं भागता वरन् उसे अपने क्रिया कलाप में से स्वयं ही उत्पन्न करता है।

सृष्टा और दृष्टा के वर्गीकृत क्षेत्रों में से अपने लिये कौन-सा उपयुक्त पड़ेगा इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और यदि सृष्टा पक्ष भारी लगता है तो सारी हिम्मत बटोर कर अपने मानसिक क्रिया कलाप को उसी ढाँचे में ढालने के लिये उठ खड़ा होना चाहिए।


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