मौत और बुढ़ापा देर तक टल सकते हैं।

July 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बुढ़ापा देर तक रोका जा सकता है और मृत्यु को काफी अरसे तक टाला जा सकता है। यह सत्य है। जो जन्मा है उसे जरा और मृत्यु के पाश में भी बँधना पड़ेगा। जिसका आदि है उसका अन्त भी, पर यदि शरीर की समुचित साज सँभाल रखी जाय तो वह निस्संदेह बहुत समय तक नीरोग रह सकता है, दृढ़ता और युवावस्था बनाये रह सकता है और अकाल मृत्यु से बच सकता है। वस्तुतः यह एक बहुत बड़ा लाभ है। इस लाभ से वंचित रहने का, लगभग आधी जिन्दगी बीमारी और अकाल मृत्यु को भेंट कर देने का एक ही कारण है-शरीर के सम्बन्ध में बरती जाने वाली उपेक्षा। यदि इस ओर सतर्कता बरती जाय-तो प्रकृति द्वारा की गई मनुष्य की संरचना को देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि आमतौर से लोग जितनी जल्दी बूढ़े होते और मरते हैं उसमें काफी सुधार किया जा सकता है।

शरीर रचना जिन सूक्ष्म परमाणुओं से हुई है उन्हें ‘जीव कोश’ कहते हैं। जीव कोशों से भरा हुआ कलल जीवन रस (प्रोटोप्लाज्म) कहलाता है। यह रस तेईस मौलिक तत्वों से बना है। इसी को जीवन का मूल आधार समझना चाहिए। मोटे तौर पर यह तत्व आहार से मिलते हैं पर यह प्रतिपादन भी अपूर्ण है क्योंकि जो तत्व आहार में होते ही नहीं वे फिर जीवन रस को कैसे प्राप्त होंगे? आश्चर्य यह है कि वे सभी तत्व जीवन रस को उपलब्ध होते रहते हैं, भले ही आहार में उनका अभाव रहता हो।

जीव कोश बढ़ते हैं और फिर एक से दो होते रहते हैं। जब तक यह वृद्धि और उत्पत्ति का क्रम चलता रहेगा तब तक शरीर भी बढ़ता रहेगा। यह वृद्धि उत्पत्ति रुकते ही शरीर की अभिवृद्धि रुक जाती है। इस प्रक्रिया में जब निर्बलता या गड़बड़ी उत्पन्न होती है तो उसी क्रम से शरीर भी कमजोर या बीमार पड़ता है। इस अन्तरंग कोशीय जीवन पर ही हमारा बाह्य जीवन मरण निर्भर है। जैसे जैसे हमारी आयु बढ़ती है, अवयवों की थकान, घिसट या विकृति भी बढ़ती है, इसका प्रभाव कोशों पर पड़ता है उनकी बाहरी शकल तो यथावत बनी रहती है पर भीतर का ‘जीवन रस’ घटता और सूखता जाता है, उसकी ताजगी और सशक्तता भी घट जाती है यही बुढ़ापे का कारण है। जब जीवन रस अधिक घट जाता है या निकम्मा हो जाता है तो जीव कोश मरने लगते हैं यही मृत्यु का कारण है। देर में या जल्दी जब भी मौत होगी-किसी भी कारण से होगी शरीर के भीतर यही स्थिति पाई जायगी।

कई बार मृत्यु घोषित कर देने पर भी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। जीव कोशों में जब तक जीवन रस मौजूद है-भले ही वह न्यून मात्रा में हो-जीवन वापिस लौट आने की सम्भावना बनी रहेगी। कई बार तो वे मौत के 120 घण्टे बाद तक जीवित पाये गये हैं। मरे हुए मनुष्यों के कुछ घण्टे बाद जीवित हो उठने के समाचार यदाकदा मिलते हैं, इनमें यही कारण होता है कि जीवन रस की मात्रा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई होती और उसके सजग हो उठने पर कोश भी काम करने लगते हैं और मृत्यु का स्थान जीवन ले लेता है। यह पुनर्जीवन क्षणिक हो या स्थायी यह भी कोशों की स्थिति और उनमें भरे जीवन रस की स्थिति पर ही निर्भर करता है।

यदि जीव कोषों की—उनमें भरे जीवन रस की विकृति रोकी जा सके। उन्हें पुनः पोषण दिया जा सके तो मनुष्य अति दीर्घजीवी हो सकता है। यह कार्य सिद्धाँततः न तो कठिन है न असम्भव। क्योंकि जीव कोश और जीवन रस को तत्वतः अमर माना गया है। वे अमुक शरीर में ही मरते हैं-उस ढाँचे के ही अनुपयुक्त होते हैं। वस्तुतः उनका विनाश नहीं होता। शरीर के मर जाने पर भी वे अपना मूल अस्तित्व बनाये रहते हैं और किसी अन्य रूप में परिवर्तित होकर अपनी नवीन कार्य पद्धति का पुनः आरम्भ करते हैं। आत्मा की तरह यह जीव कोश भी अमर ही कहे जा सकते हैं।

इन्हें जीर्ण या विकृत होने से जितनी अधिक देर रोका जा सकेगा उतनी ही लम्बी जिन्दगी सम्भव हो जायगी। मृत्यु के बाद जिस तरह वे नया जन्म धारण करके नई जिन्दगी आरम्भ करते हैं उसी तरह की प्रक्रिया यदि पुराने शरीर में आरम्भ कराई जा सके तो उसी काया के रहते पुनर्जीवन आरम्भ हो सकता है। इसे अध्यात्म की भाषा में कायाकल्प कहते हैं। योग और आयुर्वेद की सम्मिलित प्रक्रिया इस प्रयोजन को पूरा करने में कभी सफल भी रही है। च्यवन ऋषि का वृद्ध शरीर अश्विनी कुमार की चिकित्सा से नव यौवन सम्पन्न हुआ था। राजा ययाति ने भी वृद्धावस्था से लौटकर पुनः यौवन प्राप्त किया था।

बुढ़ापा रोकने की इच्छा—चिरकालीन यौवन उपभोग की आकाँक्षा अनुचित नहीं है। भूतकाल में भी इसके लिए प्रयोग और प्रयत्न होते रहे हैं और वे अभी भी चल रहे हैं।

कीव के इन्स्टीट्यूट आफ जिरेंटोलाजी में पिछले दिनों वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी सम्पन्न हुई थी और उन कारणों के जानने पर विचार विमर्श हुआ था जिनके कारण बुढ़ापा आ धमकता है। कारणों का निश्चय हो जाने पर ही उनका निराकरण ढूँढ़ा जा सकता है।

तीस वर्ष तक हमारा शरीर निरन्तर बढ़ता है। इसके बाद वह क्रमशः घटता चला जाता है। यह घटोत्तरी ही अन्ततः हमारी मृत्यु का कारण बनती है। संचित कोश जब खतम हो जायें तो दिवालिया बनने के अतिरिक्त और क्या मार्ग रह जाता है। 30 से लेकर 90 वर्ष की आयु की अवधि में हमारी माँस पेशियों का भार लगभग एक तिहाई कम हो जाता है। उसी के अनुपात से शक्ति घटती चलती है। तन्त्रिका तन्तु इस बीच तीन चौथाई समाप्त होकर एक चौथाई ही बचते हैं। इसलिए मस्तिष्क का शरीर पर उतना नियंत्रण नहीं रह जाता जितना कि आवश्यक है। दिमाग स्वयं एक तिहाई खराब हो जाता है। उसका वजन 3.3 पौण्ड से घटकर 2.22 पौण्ड रह जाता है। गुर्दों में मूत्र साफ करने वाले ‘नेफ्रोन’ घटकर आधे रह जाते हैं जिससे वह पूरी तरह साफ नहीं हो पाता और रक्त में उस अशुद्धता की मात्रा बढ़ती जाती है। काम करते थक और घिस जाने के कारण ज्ञानेन्द्रियाँ अपना आवश्यक उत्तरदायित्व वहन नहीं कर पातीं, उन्हें पोषक तत्व भी शुद्ध तथा उपयुक्त मात्रा में मिल नहीं पाते इसलिए उनकी घिसट की क्षति पूर्ति भी नहीं हो पाती।

25 साल के युवक की तुलना में 80 साल के बूढ़े का दिल प्रायः आधी मात्रा में खून पम्प कर पाता है। यही हालत फेफड़ों की होती है, साँस की सफाई करने में वे अपनी ड्यूटी आधी ही दे पाते हैं। तन्त्रिका तन्तुओं में विद्युत आवेग की दौड़ 20 प्रतिशत शिथिल हो जाती है इसलिए शरीर द्वारा मस्तिष्क को सूचना पहुँचाने में और वहाँ का सन्देश अंगों के लिए लाने में देर लग जाती है। स्थिति के अनुरूप तुरन्त निर्णय लेने या कदम उठाने में बुढ़ापा धीरे-धीरे शिथिलता ही उत्पन्न करता चला जाता है। यही सब कारण हैं जिनसे हम ढलती आयु में क्रमशः मृत्यु के निकट घिसटते चले जाते हैं। शक्ति की कमी, कल पुर्जों का घिस जाना, संचित पूँजी का खर्च, नये उत्पादन में शिथिलता एवं मलों का बढ़ते जाना स्वभावतः शरीर के लिए मरण ही प्रस्तुत करेगा। बुढ़ापा जीवन को मृत्यु के पथ पर धकेलते ले चलने वाली एक ऐसी निर्मम प्रक्रिया हे जिससे बच सकना कठिन दीखता है। बुढ़ापा न टला तो मृत्यु कैसे टलेगी। दोनों एक दूसरे के सगे सहोदर जो हैं।

कोशिकाओं में चलती रहने वाली रासायनिक क्रिया में विषाक्त पदार्थों का अनुपात बढ़ते जाने और प्रोटीन का चालीस प्रतिशत भाग कोलाजेन में बदल जाने से जीवन संकट बढ़ता ही जाता है। त्वचा के नीचे का कोलाजेन कठोर होता जाता है। फलस्वरूप चमड़ी पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं। दाँतों का गिरना, बालों का झड़ना यह प्रकट करता है कि भीतर की पकड़ ढीली होती जा रही है।

शारीरिक और मानसिक शक्तियों के अनावश्यक अपव्यय को रोकने के लिए सीधा, सरल, सौम्य और हलका फुलका जीवन जिया जाना चाहिए इसके लिए पौष्टिक औषधियों की तलाश बेकार है। सबसे बड़ी औषधि एक ही है कि जीवन को भारी, बोझिल और कृत्रिम न बनने दिया जाय। अपव्यय को रोका जा सका तो लम्बे समय तक युवावस्था को भी सुरक्षित बनाये रखा जा सकता है।

केवल दीर्घ जीवन ही संभव नहीं वरन् यह भी संभव है कि ढलती आयु में भी सशक्त यौवन को स्थिर रखा जा सके। शरीर में आयु की वृद्धि के साथ कुछ तो परिवर्तन होते हैं पर यह मानवी प्रयत्नों पर निर्भर है कि वह शिथिलता से अपने को बचाये रहे और वृद्ध होते हुए भी अशक्त न बने।

वारजन विवारेस निवासी पियर डिफोरवेल 129 वर्ष का होकर सन् 1809 तक जीवित रहा। मरते समय उसका स्वास्थ्य ठीक था और उसकी सभी इन्द्रियाँ अपना काम ठीक तरह करती थीं। उसने तीन विवाह किये और कितने ही बच्चे पैदा हुए उनमें से तीन बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें तीन पृथक शताब्दियों में पैदा हुआ कहा जाता है। एक बच्चा 1699 में दूसरा 1738 में तीसरा 1801 में जन्मा। यों यह अन्तर लगभग सौ वर्ष ही होता है पर शताब्दियों के हिसाब से इसे तीन शताब्दियों में भी गिना जा सकता है और साहित्यिक शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि उसका एक बच्चा 16 वीं शताब्दी में, दूसरा 17वीं में और तीसरा अठारहवीं में जन्मा। उसकी तीसरी पत्नी 19 वर्ष की थी जबकि डिफोरवेल 120 वर्ष का। यह तीसरा दाम्पत्य जीवन भी उसने प्रसन्नता पूर्वक बिताया। पत्नी को इसमें कोई कमी दिखाई न दी। यह विवाह नौ वर्ष तक सुख पूर्वक चला और उसमें कई बच्चे हुए।

उपरोक्त तीन शताब्दियों में जन्मे तीन बच्चों की जन्म तिथियाँ उनके प्रमाण पत्रों समेत सन् 1877 के ‘मेगासिन पिटारेस्क’ में छपी हैं। जो घटना क्रम की यथार्थता प्रकट करते हुए भी सिद्ध करती हैं कि दीर्घ जीवन ही नहीं यौवन को भी अक्षुण्य बनाये रहना संभव है—असंभव नहीं।

बहुत दिन से यह सोचा जा रहा है कि आयुवृद्धि के साथ-साथ हारमोन उत्पादन में जो असंतुलन उत्पन्न हो जाता है उसकी पूर्ति कर देने से संभवतः शरीर की क्षरण प्रक्रिया रुक सकती है और अधिक समय तक जिया जा सकता है। इस संदर्भ में प्रयोग और परीक्षण भी चले हैं। ब्रिटेन के विज्ञानी सर बिन्सेण्ट विगल वर्थ ने रोड नियस नामक एक छोटे कीड़े पर यह प्रयोग किया। उन्होंने उसी जाति के एक युवा कीड़े की एक्डायो सोन हार्मोन उत्पन्न करने वाली ग्रन्थि एक दूसरे बूढ़े कीड़े के शरीर में लगा दीं। इससे उसका बुढ़ापा रुक गया। जब भी शिथिलता के लक्षण दिखाई पड़ते तभी नई ग्रन्थि लगा दी जाती, इस प्रकार उसकी वृद्धि और जवानी का क्रम काफी लम्बे समय तक बनाये रखने में सफलता पाई गई।

मनुष्य शरीर में आयु वृद्धि के साथ घटने वाले एक हारमोन समूह को ‘स्टेरोइड’ कहते हैं। इसकी क्षति पूर्ति अन्यत्र से की जाय तो संभव है मनुष्य की जवानी बनी रहे। इस प्रकार ‘टेस्टोस्टेरीन’ हारमोन का किसी प्रकार प्रवेश अथवा परिवर्धन किया जा सके तो आदमी जवान बना रह सकता है। इन संभावनाओं को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक तरह तरह के अनुसंधान कर रहे हैं।

वैज्ञानिक एक प्राणी की हारमोन ग्रंथियां दूसरे के लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनका प्रभाव स्वल्प कालीन होता है। यौवन को अक्षुण्य बनाये रहने वाले हारमोन बिना एक दूसरे के अंग प्रत्यारोपण के भी विकसित किये जा सकते हैं। इसके लिए योगाभ्यास की वही परिपाटी उपयुक्त है जिसे ऋषि-महर्षि काया कल्प के नाम से प्रयोग करते थे और शताब्दियों तक जीवित रहते थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118