जीवन सम्पदा के अपव्यय का पश्चाताप

July 1972

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चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद—लाखों, करोड़ों वर्ष पश्चात्—यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर मिलता है। इतना सुविधा सम्पन्न—काय कलेवर किसी भी जीव को नहीं मिला। मनुष्य को यह विशेष अनुदान भगवान ने विशेष प्रयोजन के लिये दिया है। अपना जीवन उत्कृष्ट बनाते हुए आत्मबल का अभिवर्धन आत्मशान्ति का रसास्वादन, उदारता और सेवा भावना द्वारा लोक-मंगल में योगदान यही मानव जीवन का प्रधान उद्देश्य है।

दुःख और दुर्भाग्य की बात ही है कि-जीवन लक्ष्य को पूर्णतया विस्मरण करके मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी-पेट और प्रजनन को ही प्रधान माने और उन्हीं पशु प्रवृत्तियों में जीवन रत्न को गँवाने की मूर्खता का परिचय दे।

यह भूल नये खून, नये जोश में प्रतीत नहीं होती तब महत्वाकाँक्षाओं का नशा सवार रहता है। हजारों, लाखों वर्ष जीना है ऐसा लगता है, पर जब वृद्धावस्था आ जाती है—अंग शिथिल हो जाते हैं, मौत सामने खड़ी दीखती है। आकाँक्षाएं अतृप्त रहती हैं, कुटुम्बी सहयोगी निरर्थक मानकर अवज्ञा करने लगते हैं तब प्रतीत होता है कि जीवन का दुरुपयोग करके भारी भूल की गई। तब केवल पश्चाताप से हाथ मलना ही शेष रह जाता है। उस दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण करते हुए शास्त्रकारों ने उद्बोधन दिया है कि पश्चात्ताप की घड़ी आने से पूर्व ही सजग हो सका जाय और कर्तव्य पथ का अवलम्बन ग्रहण कर लिया जाय तो अधिक उत्तम है।


  आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम्।

व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरभिः कालो न विज्ञायते॥

       दृष्ट्वा जन्मजरा विपत्तिमरणं त्रासश्चनोत्पद्यते।

                      पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्॥    —भर्तृहरि


सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ आयु भी दिन-दिन घटती जाती है तथा व्यापारादि से चित्त नहीं भरता और जन्म, वृद्धापन तथा मृत्यु होते हुए देखकर भी मनुष्यों को चेत नहीं होता। इससे मालूम होता है कि संसार प्रमाद-रूपी मदिरा पीकर मत्त हो रहा है।

योग वशिष्ठ में जीवन के अन्तिम चरण का दुःखद चित्रण इस प्रकार किया है


     शत्रवश्चेन्द्रियाण्येव सत्यं यातमसत्यताम्।

प्रहरत्यात्मनैवात्मा मनसैव मनो रिपुः॥


अपनी इन्द्रियाँ ही अपनी शत्रु बन रही हैं। सत्य को असत्यता प्राप्त हो गयी है आत्मा ही आत्मा को खाये जा रही है। मन ही मन का बैरी बना हुआ है।


वस्त्ववस्तुतया ज्ञातं दत्तं चित्तमहंकृतौ।

   अभाववेधिना भावा भावान्तो नाधिगम्यते॥


वस्तुएं कुछ की कुछ दीखती हैं। अहंकार में मन रम गया है। जो पर्याप्त है उसका अभाव दीखता है। जो है उसका प्रयोजन क्या है, कुछ सूझ नहीं पड़ता।


      पातः पक्वफलस्यैव मरणं दुर्निवारणम्।

आयुर्गलत्यविरतं जलं करतलादिव॥

    शैलनद्यारय इव संप्रयात्येव यौवनम्।

             इन्द्रजालमिवासत्यं जीवनं जीर्णसंस्थितिः॥

       बुद्बुदः प्रावृषीवाप्सु शरीरं क्षणभंगुरम्।

         रम्भागर्भ इवासारो व्यवहारो विचारगः॥


पका फल जिस तरह पेड़ से गिर ही पड़ता है उसी तरह शरीर का मरण निश्चित है। हथेली पर रखा पानी जैसे ढुलक जाता है वैसे ही आयु घटती चली जा रही है।

पहाड़ी नाले के पानी की तरह यौवन भागता चला जा रहा है। यह बाजीगर के इन्द्रजाल जैसी माया सब ओर फैली पड़ी है।

पानी के बबूले की तरह यह जीवन अब तक फूटने ही वाला है। केले के खम्भे में लगे पत्तों की तरह यहाँ सब कुछ असार ही दीख पड़ता है।


      दृष्टदैन्यो हतस्वान्तो हतौजा याति नीचताम्।

मुह्यते रौति पतति तृष्णयाभिहतो जनः॥


तृष्णा द्वारा पटक-पटक कर मारा हुआ मनुष्य दीन, हृदय हीन, निस्तेज हो जाता है। मोहग्रस्त होकर रोता है, और पतन के गर्त में गिर जाता है।


       जीर्यन्ते जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।

क्षीयते जीयते सर्व तृष्णैका हि न जीर्यते॥


वृद्ध होने पर मनुष्य के केश, दाँत समेत सारी काया जीर्ण हो जाती है, पर तृष्णा तो भी तरुण ही बनी रहती है।


    घोरेऽस्मिन् हतसंसारे नित्यं सततघातिनाम्।

  कदलीस्तम्भनिः सारे संसारे सारमार्गणम्॥

            यः करोति स सम्म्ढ़ो जलबुद्बुदसन्निभे।  —मनु


निरन्तर घात करने वालों से घिरा हुआ यह घोर संसार केले के खम्भे के समान निस्सार है। पानी के बबूले की तरह पोला और क्षणिक है। जो इसमें सार ढूँढ़ता है वह महामूर्ख है।

शेषे कलत्रचिन्ताऽऽर्तः कि करोति नराधमाः।

        सतोऽसता स्थिता मूर्ध्नि रम्याणाँ मूध्त्यरक्ष्यता।

                           सुखानाँ मूर्ध्नि दुःखानि किमेकं सश्रयाम्यहम्॥ —महोपनिषद्


बचपन अज्ञान से घिरा रहता है, युवावस्था में वासना तृष्णा के आकर्षण बाँधे रहते हैं। बुढ़ापे में परिवार की चिन्ता सताती है। ऐसा चिन्ताग्रस्त अधम जीव अपना क्या उपकार करेगा? सत के ऊपर असत् का शासन है। शोभा पर कुरूपता चढ़ी बैठी है। सुख के ऊपर दुःख घिर रहा है। अब किसी शरण जाया जाय?

शिव गीता में यह वर्णन इस प्रकार आता है—


             नीयते मृत्युना जन्तुः परिष्वक्तोऽपि बन्धुभिः।

सागरार्न्तजलगतो गरुड़ेनेव पन्नगः॥


बन्धुओं से घिरे हुए प्राणी को मृत्यु ले जाती है जिस प्रकार समुद्र में प्राप्त हुए सर्प को गरुड़ ले जाता है।


        हा कान्ते हा धनं पुत्राः क्रन्दमानः सुदारुणम्।

मण्डूक इव सर्पेण मृत्युना नीयते नरः॥


हा प्रिये! हा धन! हा पुत्रो! इस प्रकार दारुण विलाप करते हुए इस पुरुष को मृत्यु इस प्रकार ले जाती है जैसे सर्प मेंढक को ले जाता है।


संजायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धते तथा।

       क्षीयते नश्यतीत्येते षड्भावा वपुषः स्मृताः॥


अब शरीर की अवस्था वर्णन करते इसी निस्सारता प्रतिपादन करते हैं उत्पत्ति (होना) अस्ति परिपक्वता वृद्धि क्षय और नाश, यह छः अवस्था इस शरीर की हैं।


देहेऽस्मिन्नभिमानेन नमहोपायबुद्धयः।

  अहंकारेण पापेन क्रियन्ते हंस साँप्रतम् ॥


इस देह को प्राप्त होकर पाप बुद्धि पुरुष महा अभिमान करते हैं, और अहंकार रूप पाप से मुख्यानन्द मोक्ष का कुछ भी उपाय नहीं करते, यह महा शोच की बात है।


धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहार कर्मसु।

                                          अतृप्ताः प्राणिनस्सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च॥ —चाणक्य नीति


धनों में, जीवन में, स्त्रियों में और भोजन में, अतृप्त होकर सब प्राणी गये, जायेंगे और जाते हैं।

अच्छा हो—समय से पूर्व चेता जाय अपनी गतिविधियाँ बदली जायं और पश्चात्ताप का अवसर न आने दिया जाय।

जिन क्रिया-कलापों—गतिविधियों में मनुष्य व्यस्त रहता है—जिन तृष्णा वासनाओं में निरन्तर निमग्न रहता है वे कितनी व्यर्थ और निरर्थक हैं उसका पता विवेक के सहारे भी लग जाता है दूसरों की दुर्दशा देखकर भी वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है। यह जीवन पर्यवेक्षण यदि गम्भीरता पूर्वक किया जाय तो विवेक की आँख खुल सकती है और मोह की मदान्ध स्थिति से छुटकारा पाकर उस मार्ग पर चल सकता है जिससे जीवनोद्देश्य की पूर्ति सम्भव होती है। मोहान्ध व्यक्ति यदि आत्म निरीक्षण करें तो उन्हें प्रतीत होगा कि—


भगवन्निदं शरीरं मैथुनादेवोद्भूतं संविध्ययेतं निरय एव मूत्रद्वारेण निष्कान्तमस्थिभिश्चतं माँसेनानुलिप्तं चर्मणावबद्धं     विण्मूत्रवातपित्तकफमज्जामेदोवसाभिरन्यैश्च मलैर्बहुभिः परिपूर्णम्। एतादृशे शरीरे वर्तमानस्य भगवंस्त्वं नो गतिरिति॥

—मैत्रेय्युपनिषत्


मैथुन जैसे घृणित कर्म से उत्पन्न हुआ यह घृणित शरीर मूत्र द्वार से निकला है। हड्डियों से चिना गया है।

माँस से लपेटा गया है। चमड़े से मढ़ा गया है। विष्ठा, मूत्र, कफ, मज्जा आदि मलीन पदार्थ इसमें भरे हैं। ऐसी अपवित्र देह यदि ज्ञान रहित होकर जिये तो फिर साक्षात् नरक ही मानना चाहिये।


इति में दोषदावाग्निदग्धे संपति चेतसि।

                               स्फुरन्ति हि नभोगाशा मृगतृष्णासरः स्वति॥ —महोपनिषद्


मेरे चित्त की सम्पदा दोष रूपी दावानल में जल रही है। मृगतृष्णा की तरह लालसाओं में भटकता हुआ मैं कुछ भी पा नहीं सका।

योग वसिष्ठ में इस मोहान्ध स्थिति की और भी स्पष्ट विवेचना की है। उन पर विचार किया जाय तो सहज ही वैराग्य भाव उत्पन्न होता है—


  आपदाः सम्पदः सर्वाः सुखं दुःखाय केवलम्।

जीवितं मरणायैव बत माया विजृम्भितम्॥


सम्पदा आपदा के लिये, सुख केवल दुःख के लिये, जीवन मरण के लिये, माया तेरी यह कैसी विचित्र विडम्बना है।


   न केनचिच्च विक्रीता विक्रीता इव संस्थिताः।

बत मूढ़ा वयं सर्वे जानाना अपि शाम्बरम्॥


किसी में हमें बेचा नहीं है। तो भी हम बिके हुओं की तरह माया के दास होकर मूढ़ता का जीवन जी रहे हैं।


इयं संसारसरणिर्वहत्यज्ञप्रमादतः।

                                         अज्ञस्योग्राणि दुःखानि सुखान्यपि दृढ़ानि च ॥ —योग वसिष्ठ


मूर्खता के कारण ही लोग इस माया चक्र में नाचते हैं। अज्ञानी ही दुःख भोगते हैं।


संसारविषवृक्षोऽयमेकमास्पदमापदाम्।

         अज्ञं संमोहयेन्नित्यं मौर्ख्यं यत्नेन नाशयेत्॥


अज्ञान के लिये ही यह संसार विष वृक्ष है। उसी पर आपत्तियाँ आती हैं और वही दुख पाता है।


  आगमापायिनो भावा भावना भवबन्धनी।

नीयते केवलं क्वापि नित्यं भूतपरम्परा॥


विषय वासना ने सबको बुरी तरह जकड़ रखा है। कोई न जाने कहाँ इन सबको बाँधकर घसीटे लिये जा रहा है।


सर्व एव नरा मोहाद्दुराशापाशपाशिनः।

                             दोषगुल्मकसारंगा विशीर्णा जन्मजंगले॥  —योग वशिष्ठ


लोग मोह और तृष्णा की फाँसी पर टँगे हुए, दोष रूपी झाड़ियों में उलझे हुए, इस जीवन जंगल में मृगों के समान नष्ट हो रहे हैं।


तृष्णालताकाननचारिणोऽमी शाखाशतं काममहीरुहेषु

      परिभ्रमन्तः क्षपयन्ति कालं मनोमृगा नो फलमाप्नुवन्ति


मन रूपी मृग तृष्णाओं की लताओं में भटकता है। मरकट की तरह वह काम रूपी वृक्ष की शाखा प्रशाखाओं पर उछल कूद करता है पर फल कहीं नहीं पाता।


पर्णानि जीर्णानि यथा तरुणाँ समेत्य जन्माशु लयं प्रयान्ति।

      तथैव लोकाः स्वविवेकहीनाः समेत्य गच्छन्ति कुतोऽप्यहोभिः॥


जिस प्रकार वृक्षों पर लगे पत्ते पक कर झड़ जाते हैं। उसी प्रकार विवेक हीन लोग यहाँ आते हैं, जन्मते और मर जाते हैं।


     सतोऽसत्ता स्थिता मूर्ध्नि मर्ध्नि रम्येष्वरम्यता।

सुखेसु मूर्ध्नि दुःखानि किमेकं संश्रयाम्यहम॥


सुन्दर दीखने वाले पदार्थों के शिर पर कुरूपता सवार है। सुखों की आड़ में दुःख छिपे बैठे हैं। मैं किसकी शरण में कहाँ जाऊँ?


आपातमधुरारम्भा भंगुरा भवहेतवः।

        अचिरेण विकारिण्यो भीषणा भोगभूमयः॥


आरम्भ में मधुर दीखने वाले ये भोग क्षण भर भी तो नहीं ठहरते। देखते-देखते दारुण दुख देकर विदा हो जाते है।

उपरोक्त चिन्तन अप्रिय और भयानक लग सकता है। पर यही वह वास्तविकता है जिसे समय रहते समझ लिया जाय तो वह अवसर ही न आवेगा जिसमें अप्रियता और भयानकता अनुभव करनी पड़े।

जरामरणदुःखानामेकारत्नसमुद्रिका।

                 आधिव्याधिविलासानाँ नित्यं मत्ता विलासिनी॥

             दृष्टदैन्यो हतस्वान्तो हतौजा याति नीचताम्।

       मुह्यते रौति पतति तृष्णयाभिहतो जनः॥

             जीर्यन्ते जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।

                             क्षीयते जीर्यते सर्वं तृष्णैवैका न जीर्यते॥  —योग वशिष्ठ


तृष्णा से ही मनुष्य जरा जीर्ण दुखी और रोगी होता है। अगणित आधि व्याधि तृष्णाग्रस्त को ही घेरती हैं। तृष्णा का मारा मनुष्य दीन-हीन, कृपण, दुर्बल, निस्तेज, होकर दुर्गति के गर्त में गिरता है। हर समय रोता, चिल्लाता है और पग-पग पतित होता है। शरीर बूढ़ा हो जाने पर भी यह पापिन तृष्णा जवान ही बनी रहती है।


           न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वाऽस्य न वा कृतम्।

  क्षेत्रापणगृहासक्तमन्यत्रगतमानसम्॥

     वृकीवारेणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति।

                  न कालस्य प्रियः कश्चिद्द्वेष्यश्चास्य नविद्यते॥

                                आयुध्ये कर्मणि दीक्षे प्रसह्य हरते जनम्।  —अग्नि पुराण


मृत्यु यह नहीं देखती कि उसने अपने काम पूरे कर लिये या नहीं। यह धर्म कृत्य में लगा है या प्रपंच के जाल जंजालों में। भेड़िये के से पेट वाली इस मृत्यु को किसी पर भी दया नहीं आती वह चाहे जिस को चाहे जब उठाकर चल देती है। आयु और कर्म समाप्त हो जाने पर मनुष्य मृत्यु के मुख में बलात् घसीटे हुए घुसते चले जाते हैं।

न श्रीः सुखाय भगवन्दुःखायैव हि वर्धते।

    गुप्ता विनाशनं धत्ते मृति विषलता यथा ॥


                      मनोरमा कर्षति चित्तवृत्तिं कदर्थसाध्या क्षणभंगुरा च।

                                                     व्यालावलीगात्रविवृत्तदेहाश्चभ्रोत्थिता पुष्पलतेव लक्ष्मीः ॥   —योग वशिष्ठ


पैसे की बढ़ोतरी सुख के लिये नहीं, केवल दुख के लिये ही होती है। पाली-पोसी विषलता जिस तरह मृत्यु का कारण बनती है, वैसे ही जमा की हुई सम्पदा भी विनाश ही उत्पन्न करती है।

कुलटा स्त्री के समान यह दौलत भी मोहक रूप बना कर चित्त को भ्रमाती है। दुष्ट कर्मों में प्रवृत्ति कराती है और स्वयं भग जाती है। सर्पिणी की तरह यह चमकती दीखती है पर इसका विष नहीं दीखता। कुएं में उत्पन्न फूलों की बेल की ओर जो आकर्षित होता है वह गर्त में ही गिरता है।


न तदस्तीह यदयंकालः सकलघस्मरः।

        ग्रसते तज्जगज्जातं प्रोत्थाब्धिमिव वाडवः॥

         किं श्रिया किं च राज्येन किं देहेन किमीहितैः।

   दिनैः कतिपयैरेव कालः सर्वे निकृन्तति॥

ग्रसतेऽविरतं भूतजालं सर्प इवानिलम्।

                                कृतान्तः कर्कशाचारो जराँ नीत्वाऽजरं वपुः॥ —योग वशिष्ठ


प्रलय की अग्नि जैसे समुद्र को जला डालती है वैसे ही यह सर्वभक्षी महाकाल सबको खा जाता है। लक्ष्मी से क्या? सत्ता से क्या? रूप यौवन से क्या? तृष्णाओं से क्या? थोड़े समय में काल इन सबको जड़ मूल से उखाड़ कर रख देगा। यह महा क्रूर काल तरुण शरीरों को बुढ़ापे से पका पकाकर स्वाद पूर्वक खाया करता है।



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