प्रगति का मूल है—पात्रता। मात्र दूसरों के अनुदान पर कभी कोई बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं होता। वह कथा प्रख्यात है जिसमें किसी सिद्ध पुरुष की कुटी में रहने वाले चूहे को शत्रु के डर से बचाने के लिए उसने क्रमशः चूहे से बिल्ली, बिल्ली से कुत्ता, कुत्ते से शेर बनाया था, पर जब वह हर स्थिति में शत्रु के डर की शिकायत ही करता रहा तो सिद्ध पुरुष ने झुँझलाकर उसे फिर चूहे का चूहा बना दिया था। हर क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू होता है। आत्मिक प्रगति के बारे में भी—आत्मबल की महान उपलब्धि प्राप्त करने के बारे में भी।
गुरु देव ने गायत्री माता का, हिमालय पिता का और समर्थ मार्गदर्शक का—अजस्र अनुदान प्राप्त किया है— उसी के आधार पर वे तुच्छ से महान बने। यह अनुदान उन्हें भाग्यवश, किसी के उपकार से नहीं मिले वरन् अपनी पात्रता के बलबूते पर खरीदे हैं। ईश्वरीय अनुदान प्राप्त करने वाले—दैवी वरदान से लाभान्वित होने वाले—प्रायः सभी महामानवों ने जो कुछ पाया है वह उनकी आत्म-साधना का ही परिणाम था। भगवान को —देवताओं को—सिद्ध पुरुषों को न कोई प्रिय है—न अप्रिय। न उन्हें किसी के साथ पक्षपात होता है न द्वेष न वे प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं न निन्दा से अप्रसन्न। उनका स्तर बहुत ऊँचा होता है। उनकी आँखें बहुत पैनी होती हैं। पात्रता का एक मात्र वह आधार होता है जिसे पाकर उनकी अनुकम्पा सहज ही बरस पड़ती है। भगवान का प्यार और अनुग्रह पात्रता अभिवर्धन के प्रयास किये बिना आज तक कभी किसी ने प्राप्त नहीं किया है।
प्रत्यावर्तन अनुदान का क्रम अगले दिनों आरम्भ होने जा रहा है। गाय दिन भर घास चरती है और उससे बनने वाला दूध शाम को घर आकर अपने बछड़े को दस मिनट में पिला देती है। बछड़ा उसे पीकर पुष्ट और तृप्त होता है। पर यह सम्भव तभी है जब बछड़ा उसी गाय का हो। भैंस का कटरा, कुतिया का पिल्ला यदि गाय के थनों से लगा दिया जाय तो बेकार का विग्रह ही खड़ा होगा। न दूध स्रवित होगा न पीने के इच्छुक की आकाँक्षा पूरी होगी। प्रत्यावर्तन का लाभ प्राप्त करने के लिये उस प्रकार की एकता आवश्यक है जिसमें दाता और ग्रहीता एक स्तर पर खड़े हो सकें। यदि असाधारण भिन्नता रही तो फिर कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।
गत मई और जून के अंक में सारा जोर इसी तथ्य पर दिया गया है। गुरुदेव अब इस स्थिति में हैं कि वे अपने तप की एक प्रखर चिनगारी देकर अधिकारी आत्माओं को ज्योतिर्मय बना सकें। इस प्रकार का अनुदान दोनों पक्षों के लिए अति आनन्द का कारण बनता है। दाता गृहीता के और गृहीता दाता के प्रति उपकृत होता है। बछड़ा अनुग्रहीत होता है कि उसे माता का स्नेह और दूध अनायास ही मिला। गाय प्रसन्न होती है कि उसके थनों का तनाव दूर हुआ। प्रेम पात्र के आधार पर अपना आन्तरिक उल्लास विकसित कर लेता है। पुत्र को पिता से लाभ है और पिता की तृप्ति पुत्र से होती है। पत्नी को पति चाहिए और पति के बिना पत्नी अधूरी रहती है।
इस पारस्परिक प्रत्यावर्तन में एक ही प्रधान अवरोध है सजातीयता का अभाव। विजातीय पदार्थ एक दूसरे से मिलते नहीं। रक्त दान तभी सफल होता है जब गृहीता और दान का रक्त एक ही वर्ग का हो। भिन्न वर्ग के रक्त का प्रत्यावर्तन तो उलटी प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकता है।
रामकृष्ण परमहंस के अनेक शिष्य थे। अपने को अनुयायी—सेवक, भक्त, शिष्य कहने वालों की संख्या हजारों तक पहुँच गई थी। पर कहने भर से कुछ काम नहीं चला। परमहंस निरन्तर व्याकुल रहे कि कम से कम एक व्यक्ति तो ऐसा मिल जाय जिसे अपनी कमाई हस्तान्तरित करके जी में सन्तोष किया जा सके। बड़ी कठिनाई से वे एक विवेकानन्द ढूँढ़ सकने में सफल हुए। जब सत्पात्र मिल गया तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। शिष्य को कुछ कहने माँगने की आवश्यकता न पड़ी। गुरु का अजस्र अनुदान बरसता ही चला गया। छत्रपति शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने भोलेपन में या मस्ती की लहर में ही अपना सञ्चित तप उड़ेल नहीं दिया था वरन् अपने हजारों शिष्यों में से ढूँढ़ते-ढूंढ़ते इस हीरे को पाया और जब उनकी मर्जी का पत्थर मिल गया तो ऐसी प्रतिमा गढ़नी आरम्भ कर दी कि उसे देखने वाले अवाक् रह गये। शिवाजी की मूर्ति गढ़ने में रामदास को कितनी प्रसन्नता हुई होगी इसका अन्दाज अनुमान कोई बिरला ही लगा सकता है।
लाटरी पाने के इच्छुक कितने ही रहते हैं, किसी अमीर के दत्तक पुत्र बनने की कितनों की ही इच्छा आकाँक्षा रहती है, धनीमानी के घर जन्मने वाले बच्चे भाग्यवान माने जाते हैं क्योंकि उन्हें सहज ही उतना बड़ा उत्तराधिकार, सम्पदा मिल जाती है जितने का उपार्जन सम्भवतः वे कठोर श्रम करते हुए भी जिन्दगी भर में कमा न पाते। अध्यात्म क्षेत्र में भी इस प्रकार के सुख-सुविधा भरे अनुदान की पूरी-पूरी गुंजाइश है।
पर यह उपलब्धियाँ अनायास ही नहीं मिल जातीं। इनके लिए तप करना पड़ता है। अन्न से कोठे भर लेने में सफलता प्राप्त करने वाले किसान को एक वर्ष तक सर्दी-गर्मी, वर्षा का प्रहार, प्रकोप सहते रहने की—रात और दिन में अन्तर न करने की—कठोर श्रम से स्वेद बिन्दु बहाने की साधना करनी पड़ती है। इस तप साधना के वरदान स्वरूप ही उसे अन्न, धन से सुसम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। विद्यार्थी सारा मनोयोग समेट कर पाठ्य पुस्तकों में तन्मय हो जाता है। दस वर्ष तक उसी लक्ष्यवेध में एकाग्र रहता है, तब कहीं स्नातक बनने का सम्मान और उस आधार पर उच्च पद प्राप्त करता है। फल और फलों से लदा बगीचा देखने में माली लम्बी अवधि तक अपने प्रयास में जुटा रहता है। वरदान प्राप्त करने वाले सौभाग्यशाली लम्बी अवधि तक तप करते हैं। इस सनातन प्रक्रिया का और कोई विकल्प नहीं। पात्रता की परीक्षा दिये बिना विभूतियों का वरदान जो प्राप्त कर सका हो, ऐसा व्यक्ति कहीं भी—कोई भी—कभी भी नहीं हुआ।
जिस प्रत्यावर्तन अनुदान की चर्चा पिछले अंकों में हुई है वह साधारण नहीं असाधारण है। इसे गुरुदेव की आकाँक्षा, अभिलाषाओं का सार तत्व कहना चाहिए। वे अपने वर्तमान कार्य क्षेत्र से ऊँचे उठकर अधिक व्यापक अधिक महत्वपूर्ण—स्तर के उत्तरदायित्व वहन करने के लिये अन्यत्र घसीट लिये जा रहे हैं। जो कार्य अब तक वे स्वयं करते रहे हैं उसकी जिम्मेदारियाँ दूसरों के कन्धों पर डालना आवश्यक हो गया है, पर यह सम्भव तभी हो सकता है, जब उसी स्तर के दूसरे व्यक्ति सामने आयें, जिसके वे स्वयं थे। हाथी का हौदा हाथी ही उठा सकता है, गुरु देव जितने बड़े कार्य कर सके वह उनके व्यक्तित्व की गरिमा के कारण ही सम्भव हो सका। हलके स्तर के लोग उतने बोझ से चरमरा जाते। आगे जो उतना बोझा उठा सके, उसका स्तर भी गुरु देव जितना ही होना चाहिए। यह कैसे सम्भव हो, वे इसी के लिये बेतरह बेचैन थे। उनकी एक ही महत्वाकाँक्षा थी कि अपने जैसे 100 व्यक्ति पीछे छोड़कर जायें। ताकि वह प्रवाह और भी अधिक तीव्र गति से बह चले जिसे वे भागीरथ जैसे तप करके गहन गह्वर से छोटे रूप में बहा कर यहाँ तक लाये।
इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिये दो आधार थे। एक दाता की क्षमता दूसरी गृहीता की पात्रता। बिजली के दो तार मिलने से ही शक्ति उत्पन्न होती है। एक पक्ष अधूरा है। नर-नारी को युग्म से ही दाम्पत्य-जीवन का उल्लास विकसित होता है। गाड़ी के दो पहिये ही गति उत्पन्न करते हैं। एक पंख वाला पक्षी आकाश में नहीं उड़ सकता। प्रत्यावर्तन के लिए भी दोनों पक्षों की उपयोगिता समान रूप से है।
इससे पूर्व कभी इस अनुदान पर जोर नहीं दिया गया। कारण कि गुरु देव स्वयं प्रेरित प्रयोजनों में संलग्न थे। युग-निर्माण परिवार का संगठन और जन-जागरण की बहुमुखी गति-विधियों का सञ्चालन यही उन्हें सौंपा गया प्रधान कार्य था। उसके भेद, उपभेद, क्रिया-कलाप अनेक थे, उन्हीं को पूरा करते हुए वे बहुमुखी कार्यक्रमों में व्यस्त दिखाई पड़ते थे। साथियों को खड़े पाँवों रखने के लिए उनकी भौतिक सहायता भी आवश्यक होती थी, उन दिनों उसी में उनकी साधना उपासना का उपार्जित पुण्य फल खर्च हो जाता था। प्रत्यावर्तन के लिए जिस उच्चकोटि की शक्ति की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राप्त करने में उग्र तपश्चर्या करनी पड़ती है। वह उन दिनों सम्भव नहीं थी, फिर दाता और गृहीता का अन्तरंग मर्म स्थल जिस प्रकार एकाग्र होना चाहिए वह उन दिनों न गुरु देव के लिए सम्भव था न दूसरे साधकों के लिए। स्थान की अनुपयुक्तता जैसे कितने ही अभाव ऐसे थे जिनसे वह प्रयोजन उन दिनों पूरे नहीं हो सकते थे। अस्तु कभी उस तरह का प्रयास भी नहीं किया गया। यद्यपि समर्थ उत्तराधिकारियों की आवश्यकता-तलाश-उन दिनों भी इतनी ही तत्परता पूर्वक की जाती रही है। पर सुयोग बन ही नहीं सका।
अब वह अवसर आया है। गुरु देव ने अपने पक्ष की तैयारी पूरी कर ली। स्थान और वातावरण की जो उपयुक्तता आवश्यक थी वह भी बन गई। सात ऋषियों की वह तपस्थली जिसकी अक्षुण्णता बनाये रखने के लिए भगवती भागीरथी को सात धाराओं में विभक्त होना पड़ा अपनी महिमा और महत्ता अभी भी अक्षुण्य बनाये हुए है। ऐसे स्थान पर बना हुआ शान्ति कुञ्ज अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति में सर्वथा समर्थ है। आवश्यकता, उपयुक्तता, समर्थता के तीन पक्ष अपने प्रखर रूप में विद्यमान हैं। कमी केवल एक ही रह गई है वह गृहीता की पात्रता। यदि यह पक्ष पूरा हो जाय तो समझना चाहिए कि जो कमी थी वह पूरी हो गई और सभी के लिए आनन्द भर देने वाली परिस्थितियाँ बन गई।
प्रत्यावर्तन अनुदान के लिये जिन लोगों ने अपने नाम नोट कराये हैं, उनके लिये हरिद्वार यात्रा भर, करने की तैयारी पर्याप्त नहीं मानी जायगी। उन्हें अपनी मनोभूमि का ऐसा परिष्कार करना पड़ेगा जिसमें बोये हुए बीज ठीक तरह अंकुरित हो सकें।
यह एक तथ्य है कि जिसकी जितनी भौतिक महत्वाकाँक्षी होगी वह उतना ही आत्मिक प्रगति से वंचित रहेगा। लोभ-मोह के आकर्षण इतने जटिल होते हैं कि उसके बन्धन सारी मानसिक और भावनात्मक क्षमता अपने ही इर्द-गिर्द समेटे रहते हैं। उस स्थिति में आत्मिक क्रिया-कलाप-मात्र लकीर पीटने की चिह्न पूजा बनकर रह जाते हैं। जब तक व्यक्ति इस आस्था की हठ न करे कि शरीर और मन उनके वाहन उपकरण मात्र हैं और उन्हें उतनी ही खुराक दी जानी चाहिए जितनी उन्हें सक्रिय सक्षम बनाये रहने के लिए नितान्त आवश्यक है। यह आस्था जब गहरी हो जाती है तभी यह आकाँक्षा उदय होती है कि आत्म-कल्याण के लिए कुछ कारगर प्रयत्न किया जाय। स्पष्ट है कि शरीर के भरण-पोषण के लिए जितना श्रम, मनोयोग और साधन जुटाया जाता है उससे कम नहीं वरन् अधिक ही आत्मिक प्रगति के लिए अभीष्ट होता है। दस पाँच मिनट की पूजा-पत्री उस महान प्रयोजन के लिए ‘ऊँट की दाढ़ में जीरा’ जितनी स्वल्प होती है।
यदि कोई यह सोचता है कि जप, ध्यान, प्राणायाम जैसे क्रिया-कलाप किसी का आत्मबल बढ़ा सकने के लिए- आत्मिक तथ्य प्राप्त कर सकने के लिए-पर्याप्त हैं तो यह उसकी भारी भूल है। चम्मच, तश्तरी जुटा लेना पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं। ये उपकरण भोजन करने में सहायक तो हैं पर पेट नहीं भर सकते। पेट भरने के लिए तो रोटी साग चाहिए। पूजा-पाठ चम्मच तश्तरी की बराबर है और दृष्टिकोण का परिष्कार-आन्तरिक स्तर- दाल-रोटी की तरह। हम देखते हैं कि पूजा-उपासना में सब प्रकार चौकस व्यक्ति भी जब सर्वथा खाली हाथ दीखते हैं तो उसका एक मात्र कारण इतना ही होता है कि उन्होंने अन्तःकरण के परिष्कार-और दृष्टिकोण को उदात्त बनाने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। उस ओर कदम नहीं बढ़ाये।
जिन्हें वस्तुतः आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा है उनसे सदा एक ही बात कही जाती रही है कि अपने को शरीर नहीं आत्मा मानें। शरीरगत तृष्णाओं की पूर्ति पर अपना सर्वस्व निछावर न करें। आत्मा की भूख और आकाँक्षा को भी कुछ समझें और उसके लिए भी कम से कम उतना प्रयास तो करें ही जितना कि अपने वाहन शरीर और मन को सुखी सन्तुष्ट बनाने के लिए करते हैं। इसके लिए रोली, चन्दन, पुष्प, धूप काफी नहीं इसके लिए समय, श्रम, मनोयोग, धन आदि जो कुछ महत्व पूर्ण अपने पास है उसका अधिक से अधिक भाग आत्म-कल्याण के लिए—आत्मिक प्रगति के लिए लगाया जाना चाहिए। शरीर और आत्मा का मूल्यांकन जिस तुलनात्मक अनुपात से किया जाय उसी अनुपात से यह निर्णय किया जाय कि शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति में जितना किया जा रहा है उसकी अपेक्षा आत्मा की आवश्यकता पूरी करने के लिए कितना किया जाय?
गुरु देव इसी कसौटी को लेकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करते रहे हैं। उनकी प्रतिभा, विद्या, शारीरिक मानसिक क्षमता, सम्पदा, आकाँक्षा का जितना भाग शरीर परिवार के लिए खर्च हुआ उसकी तुलना में आत्मा की भूख बुझाने के लिए हजार गुना अनुदान अर्पित किया है। यही है उनकी असली जीवन साधना जिसकी पृष्ठभूमि पर गायत्री महापुरश्चरणों का बीजारोपण कल्पवृक्ष की तरह उगा और फला-फूला। वही राजमार्ग सबके लिए है। भौतिक स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में आकण्ठ मग्न लोग सिर पर चन्दन और गले में रुद्राक्ष धारण करके यदि आत्मिक प्रकाश का स्वप्न देखते हों तो यह उनकी मृग तृष्णा मात्र ही सिद्ध होगी।
आध्यात्मिक पात्रत्व की कसौटी यही है कि व्यक्ति की आकाँक्षाएं—अभिलाषाएं, योजनाएं, गति-विधियाँ आदर्शवादी उत्कृष्टता की ओर चल रही हैं या नहीं। मनुष्य अपने पुरुषार्थ की कमाई का लाभ अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं के रूप में उठा सकता है। दैवी अनुकम्पा का प्रयोजन तो मात्र लोक मंगल होता है। व्यक्तिगत स्वार्थ साधनों के लिए यदि कोई दैवी अनुग्रह को खर्च कर डाले तो वह ‘अमानत में खयानत’ जैसी बात हो जायगी। महामानव भगवान से बहुत कुछ पाते हैं पर उसकी एक-एक बूँद परमार्थ प्रयोजनों में ही खर्च करते हैं। गुरु देव ने अपने गुरु के अनुदान में से ईश्वरीय वरदान में से कभी एक कण भी अपने या अपने परिवार के लिए खर्च नहीं किया। यदि वे उन उपलब्धियों को अपने स्वार्थ साधनों में खर्च करते तो स्पष्ट है कि दूसरों की तरह वे भी खाली हाथ ही रह गये होते।
पात्रता की परिभाषा में इतना कुछ कहा गया है उसे ध्यान पूर्वक पढ़ा समझा और मनन किया जाना चाहिए उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए और अपनाया जानी चाहिए। शब्दाडम्बर के रूप में नहीं सचाई के साथ गहरी आस्था के रूप में ऐसा आसानी से किया जा सकता है। इसमें न तो कोई कठिनाई है न अड़चन, यह आशंका भी व्यर्थ है कि आदर्श वादी जीवन कठिनाइयों से भरा है। सादगी को अपनाने भर से सारा काम सहज ही चल जाता है और दृष्टि कोण में अन्तर आते ही सामान्य भौतिक गति-विधियाँ सरलता पूर्वक चलते हुए आत्मिक प्रगति का क्रम भली प्रकार चलता रह सकता है। गुरु देव इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्होंने साधारण गृहस्थ का सामान्य जीवन जिया पर उच्च आदर्श अपनाये रह कर उच्चस्तरीय आत्मिक प्रगति का लक्ष्य भी पूरा कर लिया। यह रास्ता उन सबके लिए खुला पड़ा है जिनमें वस्तुतः आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा जग पड़ी हो।
युग-निर्माण अभियान यों एक आन्दोलन सरीखा दीखता है पर वस्तुतः वह युग साधना है। यदि आध्यात्मिक दृष्टि कोण से देखा जाय तो उसे विशुद्ध योग साधना एवं तपश्चर्या ही कहा जा सकता है। और भी अधिक गंभीरता से देखा जाय तो उसे सामान्य उपासना साधना की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चस्तर का माना जा सकता है। प्रचलित योग साधनाओं का लक्ष्य व्यक्ति विशेष की स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि जैसी सफलताएं प्राप्त करना रहता है और आत्म प्रयोजन के लिए काय कष्ट सहा जाता है। युग साधना में आपा भुलाया जाता है और विश्व कल्याण को लक्ष्य रखा जाता है। अस्तु उसकी परमार्थ परायण विशेषता न केवल साधक के लिए कल्याण कारी होती है वरन् समस्त विश्व की ही साधना करती है। इस विशेषता के कारण उसका स्तर भी ऊँचा होना चाहिए।
कोई समय था जब सभी लोग उत्कृष्ट स्तर के होते थे। किसी की सेवा सहायता करने की न तो आवश्यकता पड़ती थी और न गुंजाइश रहती थी। तब लोग व्यक्तिगत स्तर बढ़ाने के लिए साधनाएं करते थे। पर आज की स्थिति सर्वथा भिन्न है। यह आपत्ति काल है। अनाचार और अज्ञान ने तूफान भूकम्प जैसी स्थिति पैदा कर रखी है। दुर्बुद्धि महामारी की तरह फैल पड़ी है; ऐसे विषम समय में व्यक्ति वादी साधनाएं हेय ही ठहराई जायेंगी वर्तमान परिस्थितियाँ ऐसी साधना के ही उपयुक्त हो सकती है जिसमें लोक मंगल जुड़ा हुआ हो। युग निर्माण योजना की गतिविधियों को दूसरे शब्दों में आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण की संमिश्रित युग साधना कह सकते हैं इसे जिस भी कसौटी पर कसा जाय उच्च स्तरीय आत्म कल्याण की ऐसी साधना ही ठहरायी जायगी जिसमें विश्व कल्याण भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
अपने परिजनों में से प्रत्येक से यह आशा की गई है कि उसे समय, श्रम और साधनों में से एक अंश अनिवार्य रूप से लोक मानस के भावनात्मक नव निर्माण में लगाना चाहिए। यह लकीर पीटने के लिए अत्यन्त श्रद्धा भावना से किया जाना चाहिए। आरम्भ स्वल्प से भले ही किया जाय पर लक्ष्य अधिकाधिक उत्सर्ग का रहना चाहिए। निष्ठा सच्ची होगी तो परिस्थितियाँ भी बन जाएगी। और फुरसत न मिलने, अमुक अड़चन रहने जैसे बहाने ढूंढ़ने की भी आवश्यकता न पड़ेगी। दैनिक भौतिक कार्य क्रमों के बीच ही युग परिवर्तन का कार्य क्रम भी सरलता पूर्वक चलाया जाता रहेगा स्वार्थों पर थोड़ा नियन्त्रण जरूर करना पड़ेगा। शरीर को ही सब कुछ मान बैठने और भौतिक आवश्यकताओं को ही सर्वोपरि महत्व देने की प्रवृत्ति पर अंकुश रखना पड़ेगा। यहीं से आत्म निग्रह शुरू हो जाता है। विवेक के जागरण की कसौटी यह है कि तथाकथित प्रियजनों की इच्छा पर कठपुतली बनकर नाचते रहा जा रहा है या स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा आत्म कल्याण और विश्व कल्याण के महान उत्तर दायित्व को भी अपनी गतिविधियों में सम्मिलित किया जा रहा है।
जिनके दृष्टि कोण में उपरोक्त स्तर का परिवर्तन आया हो समझना चाहिए वे गुरु देव के साथी सहचरों में गिने जाने योग्य बन गये। प्रत्यावर्तन अनुदान के लिए उनकी पात्रता विकसित हो चली। उन्हें जो पाना है भौतिक स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ प्रयोजन में खर्च होगा ऐसी मनः स्थिति से ही दाता और ग्रहीता कृतकृत्य होता है और दैवी अनुग्रह का सदुपयोग बन पड़ता है।
जिन्होंने अपने नाम नोट कराये हैं उन्हें जब अवसर होगा तब हरिद्वार आने के लिये कहा जायगा पर उसकी पात्रत्व विकसित करने वाली साधना अभी से विकसित करनी आरम्भ कर देनी चाहिये। अपने परिवार के सदस्यों में एक व्यक्ति युग-निर्माण अभियान को गिन लेना चाहिए घर में पाँच सदस्य हों तो छटा गुरु देव को उनके मिशन को जोड़ लेना चाहिये। अपने परिवार के एक सदस्य के लिये जितना समय, मनोयोग, स्नेह, चिन्तन, धन खर्च किया जाता है कम से कम उतना तो युग साधना के लिये करना ही चाहिये। होना तो इससे भी बढ़कर चाहिये पर बढ़े हुए काम इस स्तर के तो हों कि कुटुम्ब के एक सदस्य जितना समय, स्नेह और साधन तो उस पर लगता ही रहे। यह आग्रह यों हर सदस्य के लिये चिरकाल से किये जाते रहे हैं पर अब वह समय आ ही पहुँचा जिसमें अग्रगामी दल की उस रीति-नीति को अपनाने के लिये विवश किया जाय। गुरु देव को उसी प्रकार विवश किया गया और उनने बिना आगा-पीछा सोचे-बिना बहाने बाजी किये अपने मार्ग दर्शक के संकेतों पर चलना आरम्भ कर दिया। प्रत्यावर्तन की पृष्ठभूमि यही है। केवल प्राप्त करने की लालसा उग्र रहे और देने को कृपणता बनी रहे तो उससे कुछ काम चलने वाला नहीं है।
युग साधना का स्वरूप क्या हो, इसकी एक झाँकी मई अंक में प्रस्तुत है उसमें उन्हीं आधारों की चर्चा है जिन्हें अपना कर गुरु देव इस स्थान तक पहुँचे। प्रसन्नता की बात है कि परिजनों ने उसे ध्यान पूर्वक पढ़ा और गम्भीरता पूर्वक अपनाया है। साधना क्षेत्र में जिन्हें उतरना है उन्हें युग साधना अपनानी चाहिये।
इसका सुव्यवस्थित रूप उन तीन पुस्तकों में विद्यमान है जो ‘हमारी युग-निर्माण योजना’ के नाम से तीन खण्डों में अभी अभी छपी हैं। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के त्रिविध प्रयोजनों को कैसे पूरा किया जाय उसे इस पुस्तक में अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से सजा दिया गया है। विभिन्न समयों पर बिखरे रूप में नव निर्माण प्रयोजन के लिये जो कुछ कहा जाता रहा है उसे क्रमबद्ध रूप से इस एक ग्रन्थ में पाया जा सकता है। गायत्री तपोभूमि में इन दिनों चल रहे तीन-तीन महीने के शिक्षण शिविरों की पाठ्य पुस्तकें यही तीनों ग्रन्थ हैं। 9) मूल्य के यह तीनों ग्रन्थ सभी परिजनों को मँगा लेने चाहिएं। और उनके आधार पर युग साधना की दार्शनिक एवं व्यावहारिक रीति-नीति अपनानी चाहिये।
पिछले अंक में कहा गया था बड़े आदमी बनने की फसल चली गई। अब अमीरी के बड़प्पन के सपने देखना बेकार है। उस दिशा में जो जितना शिर खपायेगा उसे उतना ही पछताना पड़ेगा। अब समय महानता की गौरव गरिमा बढ़ने का आ गया। विचारशील लोगों के कदम उसी दिशा में बढ़ने चाहियें। इसे कार्य रूप में परिणत कैसे किया जाय इसी का मार्ग दर्शन युग साधना करती है। प्रत्यावर्तन की पात्रता और पृष्ठभूमि यही है। चिन्तन और जीवन क्रम का स्वरूप जिस आधार पर बदला जा सके वही युग साधना हो सकती है। जिस कर्म-काण्ड में पूजा पत्री का तो लम्बा-चौड़ा समावेश हो पर आन्तरिक स्तर तनिक भी ऊँचा न उठे—आत्म परिष्कार और लोक-कल्याण के लिये उमंग न उठे उसे विडम्बना मात्र ही कहना चाहिये। ऐसे जाल जंजाल में ईश्वर को फँसाकर उसे पकड़ सकना किसी के लिये भी सम्भव न हो सकेगा। गुरु देव इसी निष्कर्ष पर पहुँचे और अपनी अनुभूतियों का ही सार निष्कर्ष परिजनों को बताते रहे। प्रत्यावर्तन और कुछ नहीं उसी मार्ग पर दूसरों को चलाने की पुनरावृत्ति है जिस पर वे स्वयं चले हैं, जो इस दिशा में चलने जितना साहस कर सकें, उन्हें उतनी ही प्रगति एवं उपलब्धि की आशा करनी चाहिये।
प्रत्यावर्तन आयोजन के लिये जिन्होंने नाम नोट कराये हैं उन्हें युग साधना में अपनी तत्परता बढ़ा देनी चाहिये ताकि समय पर वे अपनी बढ़ी हुई पात्रता के आधार पर अधिक महत्वपूर्ण अनुदान प्राप्त कर सकें। जिन्होंने अपने नाम नोट नहीं कराये हैं उन्हें भी मानव जीवन की सार्थकता जैसा कुछ लाभ प्राप्त करने के लिये इसी दिशा में अपने कदम बढ़ाने चाहियें। समझ में भले ही न आवे पर यह अनुपम और अभूतपूर्व अवसर है- जो यह समय ऐसे ही आलस उपेक्षा में निकाल देंगे पीछे पश्चाताप करते रहने के अतिरिक्त उनके हाथ और कुछ न लगेगा।