ईश्वर की प्राप्ति सरलतम है और कठिनतम भी

July 1972

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जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सृष्टि में ऐसी व्यवस्था है कि वे सरलता पूर्वक पूरी हो जाया करें। साँस लिये बिना एक ही क्षण भी काम नहीं चल सकता सो प्राण वायु प्रचुर मात्रा में सर्वत्र मौजूद है। जल का उसके बाद नंबर आता है वह भी थोड़ा प्रयत्न करने पर हर जगह मिल जाता है। अन्न की आवश्यकता उसके पश्चात् है, उसके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है और खर्च भी, इसी क्रम से जो आवश्यकताएं अपेक्षाकृत हलकी होती जाती हैं उन्हीं का मिलना श्रम साध्य होता जाता है।

जीवन धारण की प्रक्रिया को देखिए। भ्रूण अति दुर्बल होता है उसे वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास चाहिए। माता का गर्भाशय उसके लिये अतिशय सुविधा पूर्ण है। उतने दुर्बल और अपूर्ण प्राणी के लिये इतना साधन सम्पन्न स्थान संसार में अन्यत्र कहीं हो ही नहीं सकता। सो हर प्राणी को सरलता पूर्वक मिल जाता है। जितने समय भ्रूण पकता नहीं उतने समय निवास की वहाँ समुचित व्यवस्था है। यदि यह सब सरलता पूर्वक उपलब्ध न हुआ होता तो प्राणी की सर्व प्रथम और सर्वोपरि महत्व की आवश्यकता पूरी न हो सकने के कारण जन्म ही सम्भव न होता।

इसके पश्चात जन्म लेने के बाद सुपाच्य सुसन्तुलित आहार की आवश्यकता होती है और एक सहायक संरक्षक सेवक की जो उस नवजात असमर्थ शिशु की न केवल सारी आवश्यकता पूरी करे वरन् उसे पर्याप्त स्नेह प्रदान कर मानसिक विकास भी सम्भव बनाये। इन सारी आवश्यकताओं को माता पूरा करती है। नवजात शिशु के लिए माता का दूध ही अमृत है। इससे बढ़िया खुराक इस धरती पर हो ही नहीं सकती। माता से बढ़कर स्नेही- सहायक- संरक्षक-सेवक भला और कहाँ मिलेगा? अरक्षित, असमर्थ और असहाय शिशु के लिए पालन-पोषण की आवश्यकता पूरी होना अनिवार्य है। इसके बिना जीवन धारण किये रहना कठिन है।

जन्म तो हो जाय पर माता की सहायता न मिले तो बालक की कैसी दुर्गति होती है इसकी कल्पना कठिन नहीं। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य के बालक को तो और भी अधिक मात्रा में- गहरी तथा लम्बे समय तक चलने वाली मातृ सहायता अपेक्षित होती है। पर प्रकृति से ऐसा प्रबन्ध सभी प्राणियों के लिए किया हुआ है। असली माता तो प्रकृति ही है। प्राणी को संसार में भेजती है तो उसकी व्यवस्थाएं भी आदि से अन्त तक बनाना उसी का काम है।

बालक बड़ा होता है। उसकी कोमलता सभी का जी हुलसाती है और उससे आकर्षित होकर हर कोई उस कोमल बालक की सहायता करना चाहता है। असमर्थता की पूर्ति इस उदार सहायता से ही पूरी होती है। दूसरों के बालक पास खेलते हों तो जी हुलसता है। उन्हें गोदी में लेने की-खिलाने की-प्यार करने की और पास की कुछ वस्तु देने की हो तो देने को जी करता है। माता-पिता, परिवार, पड़ौस, सम्बन्धी सज्जनों से इस प्रकार की सद्भावनाएं और सहायताएं उसे सर्वत्र मिलती हैं। गुरुजनों का अनुग्रह रहता है। अध्यापक उनसे क्षमा और उदारता का व्यवहार करते हैं। बड़ों के साथ जैसा बराबरी का- कठोरता का व्यवहार किया जाता है, वैसा कोई गुरुजन उनसे नहीं करता। बड़े आदमी की गलती- अशिष्टता पर क्रोध आता है और दंड प्रतिशोध के कदम उठते हैं पर बालकों की पग-पग पर होने वाली गलतियाँ ऐसे ही हँसी, मुसकराहट के बीच भुला दी जाती हैं। कई बार तो उन गलतियों में रस भी लिया जाता है।

सरकार बाल-कल्याण विभाग चलाती है। प्रौढ़ कल्याण-वृद्ध कल्याण की उपेक्षा करके भी उसका ध्यान बालकों पर रहता है। सामाजिक संस्थाएँ भी इधर ही बहुत ध्यान देती हैं। सबकी स्वाभाविक सहानुभूति बालकों की ओर अनायास ही खिंची रहना- प्रकृति की उसी प्रेरणा के अनुसार जिसमें उन्हें अपनी अविकसित स्थिति में सब ओर से अधिक सहायता एवं उदारता अपेक्षित है। यह सारी व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव में पहले से ही सम्मिलित है। मनुष्य ही क्यों अन्य प्राणियों में भी अपने ही नहीं बिराने बच्चों के प्रति अधिक कोमल और उदार भावनाएं पाई जाती हैं।

जीवन विकास की क्रमिक यात्रा में यौवन आता है। पितृत्व की इच्छा कामवासना के रूप में जगती है। जोड़ी मिलाने की आवश्यकता अनुभव होती है। समयानुसार यह भी सहज ही बन जाता है। एक ऐसी उमंग महक उठती है जिसमें हर नर मादा अपने विपरीत लिंग वाले प्राणी को खोजने और आकर्षित करने में सफल हो जाता है। मनुष्य को तो बहुत सुविधाएं प्राप्त हैं। बिना साधन, सुविधा वाले कीड़े-मकोड़े, पतंगे, जलचर, पशु, पक्षी सभी को काम तृप्ति का अवसर मिलता है और सभी गर्भाधान प्रक्रिया पूरी कर लेते हैं। मनुष्यों के लिये भी यह सुविधा बन ही जाती है। प्रकृति की दयालुता तो देखिए कि वास्तविक आवश्यकताओं का समाधान कितनी सरलता और सुन्दरता के साथ जुटाती है। इसके लिये उसने अपनी क्रम व्यवस्था बड़ी सरल और सुविधाजनक बनाकर रखी है और उसका प्रवाह अनादि काल से बहता चला आता है।

रोग निरोध की जन्म जात शक्ति रक्त कणों में विद्यमान रहती है। असली चिकित्सक भीतर मौजूद है। बाहर के डॉक्टर तो उन भीतरी चिकित्सकों की थोड़ी सहायता भर कर देते हैं। मरण से पूर्व मूर्छा आ जाती है और वह अति कष्ट साध्य आपरेशन बिना कष्ट के सम्पन्न हो जाता है। मरने के बाद शरीर की दुर्गति न हो इसलिए उसे खाने के लिए कृमि उसी में तत्काल पैदा हो जाते हैं, कौए, गिद्ध, चील, स्यार, कुत्ते आदि प्राणी मृत शरीर की गन्ध पाते ही उस गन्दगी को साफ करने दौड़ पड़ते हैं। सभ्य समाज में तो मुर्दे को जलाने, गाढ़ने या बहाने की प्रथा पहले से ही प्रचलित है। जीवन विकास का यह अन्तिम अध्याय भी ठीक तरह सम्पन्न हो जाय इसके लिये प्रकृति ने समुचित व्यवस्था जुटा कर रखी है।

जो आवश्यक है वह यहाँ प्रचुर मात्रा में विद्यमान है और स्वल्प प्रयत्न से मिल सकता है। जो अनावश्यक है हानिकारक है उसी का मिलना दुर्लभ है। फल उपयोगी हैं वे सरलता से प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। विष अनावश्यक और हानिकारक है; उसे प्राप्त करना हो तो बहुत ढूंढ़ खोज करनी पड़ेगी पैसा और श्रम खर्च करना पड़ेगा तब यत्र-तत्र किंचित मात्रा में विष मिलेगा। गाय, घोड़ा, भेड़ बकरी आदि उपयोगी पशु-सरलता पूर्वक उपलब्ध हैं। पर सिंह, व्याघ्र, चीता, रीछ आदि के दर्शन भी दुर्लभ हैं। वे दूरवर्ती सघन वनों में स्वल्प संख्या में ही होते हैं। अनुपयोगिता के कारण प्रकृति ने उन्हें ऐसी ही स्थिति में रखा है। उनकी संतान भी अधिक नहीं बढ़ती जबकि उपयोगी पशु अपनी संख्या वृद्धि निरन्तर करते रहते हैं।

प्राणियों के लिए उपयोगी वनस्पति-घास, पौधे वृक्ष स्वतः ही उगते बढ़ते हैं और फलते-फूलते रहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी जो कुछ आवश्यक है, वह इस संसार में सरलता पूर्वक उपलब्ध है। दिन में सूरज की रोशनी जलती है, रात को चन्द्रमा चमकता है ताकि हमें अन्धकार में न भटकना पड़े। प्रकृति माता के इन अनुदानों को कहाँ तक गिनाया जाय जीवन की हर आवश्यकता और सुविधा को जुटाने में उसने कहीं कुछ भी कसर नहीं छोड़ी है।

यह अनुदान शरीर यात्रा तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक-मानसिक-आर्थिक और नैतिक क्षेत्र में भी ऐसी विधि व्यवस्था इस विश्व में विद्यमान है कि प्रगति की हर उचित आवश्यकता सरलता पूर्वक पूरी हो सके। इच्छा हो और उसे पूरा करने के लिये पुरुषार्थ जुटा दिया जाय तो लगभग हर उचित आवश्यकता पूरी होती चली जायेगी उसमें कोई बड़ा विघ्न न आवेगा। विघ्न यदि हैं भी तो वे बाहर नहीं भीतर हैं। मनुष्य के अपने दोष दुर्गुण ही उसकी प्रगति में बाधक होते हैं। आलस्य, प्रमाद, अनियमितता, असंयम, आवेश, अति स्वार्थ जैसे कारण ही असफलताओं और विपत्तियों के कारण बनते हैं। अन्यथा सद्गुण, सत्कर्म और सत्स्वभाव से मनोभूमि परिष्कृत कर लेने पर- परिष्कृत दृष्टिकोण और व्यवस्थित क्रिया-कलाप के आधार पर किसी भी क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। किसी भी क्षेत्र में साधन सम्पन्न बना जा सकता है। जिस दिशा में भी कदम उठाले उधर ही प्रगति हो सकती है।

बाधक बाह्य जगत नहीं- अवरोध प्रकृति गत नहीं स्वनिर्मित हैं- और ऐसे कि यदि उनकी हानियों को समझ लिया जाय और निरस्त करने के लिए कटिबद्ध हो जाया जाय तो उनका एक क्षण भर भी ठहरना नहीं हो सकता। आन्तरिक शत्रु लगते भर बलिष्ठ हैं, संकल्प शक्ति की एक चिनगारी उन्हें नष्ट करके रख सकती है। आज घोर दुर्गुणी दीखने वाला व्यक्ति कल पूर्ण परिष्कृत मनुष्य बन सकता है। व्यक्तित्व के विकास और मनः क्षेत्र से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रों की प्रगति के लिये प्रकृति ने अपने सभी द्वार खुले रखे हैं। कोई चलना ही न चाहे या उलटा चले तो इसमें विश्व व्यवस्था क्रम का नहीं आदमी के अपने औंधे और ओछे कर्तृत्व का ही दोष है। सुधारना चाहें तो उसका परिमार्जन भी अति सरल है। इतिहास में अगणित उदाहरण ऐसे विद्यमान हैं जिनमें संकल्प बल से अपनी हेय स्थिति को आमूल चूल परिवर्तन करके लोगों ने आशाजनक और आश्चर्यजनक परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं।

आत्मिक क्षेत्र सबसे ऊंचा है। उसमें भी प्रगति के लिए द्वार खुला पड़ा है और उसमें प्रवेश करना अति सरल है। ईश्वर हमारे चारों ओर घिरा हुआ है। हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। मछली के भीतर और बाहर पानी ही पानी भरा रहता है अपने अन्दर और बाहर ब्रह्म चेतना का भरा पूरा समुद्र ही लहलहा रहा है जो इतना समीप हो- इतना प्रचुर हो-उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई हो सकती है?

पिता और पुत्र का सामीप्य दुरूह कैसे हो सकता है? माता और बच्चे के सान्निध्य में अवरोध क्या होगा? पति और पत्नी के मिलने में क्या बाधा? प्रकृति -गत अवरोध इस प्रसंग में रत्ती भर भी बाधक नहीं है। आत्मा और परमात्मा के बीच-पिता, पुत्र, माता, शिशु, भाई-भाई और पति पत्नी के लौकिक रिश्तों की अपेक्षा भी कहीं अधिक सघन स्वच्छ और प्रखर सम्बन्ध हैं। साँसारिक रिश्तों में दो स्वतंत्र व्यक्तियों की बात रहने से कुछ भिन्नता और पृथकता भी रह सकती है। पर आत्मा और परमात्मा तो अंश और अंशी हैं। उनमें तो अग्नि और चिनगारी जैसा ही भेद है। कमल और उसकी पंखुरियों की-पदार्थ और उसके परमाणुओं की- सूर्य और उसकी किरणों की पृथकता आँकी भले ही जाय वस्तुतः वे तादात्म्य हैं। ईश्वर और जीव इतने ही घनिष्ठ हैं- आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसा कोई व्यवधान नहीं है जिसे दूर करने के लिये- चिन्तित, दुखी, खिन्न, उद्विग्न या हताश होने की आवश्यकता हो। यह मिलन प्रक्रिया अति सरल है। ईश्वर प्राप्ति से अधिक आसान कार्य और दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।

शरीर और मन परस्पर ओत-प्रोत हैं। शरीर और मन को मिलाने के लिए कुछ बड़ा काम नहीं करना पड़ता। करना पड़ता है तो इतना ही कि जो नशा पी लिया था, उसे उतर जाने दिया जाय और फिर दुबारा न पिया जाय। नशा पीने से ही शरीर और मन का सम्बन्ध लड़खड़ा जाता है। चलना, करना, बोलना, सोचना- अनियन्त्रित हो जाने की उपहासास्पद स्थिति इसलिए बनती है कि नशे की खुमारी शरीर और मन का सम्बन्ध गड़बड़ा देती है। दोनों अलग-अलग दिशा में जाते- स्वच्छन्द विचरते दीखते हैं। उसमें दोष नशे का है, यदि नशे का परित्याग कर दिया जाय तो शरीर और मन की एकसूत्रता- एकरूपता में कोई अन्तर दिखाई न पड़ेगा। ईश्वर और जीव के बीच में माया का नशा ही प्रधान रूप से बाधक है। यह पर्दा हटा कि उसकी आड़ में बैठे भगवान के दर्शन हुए। बाधक तो यह झीना सा पर्दा ही है।

निद्रा ग्रस्त हो जाने पर शरीर और मन के सम्बन्ध गड़बड़ा जाते हैं। शरीर कहीं पड़ा रहता है- मन कहीं घूमता है। विलगाव को देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर और मन दूर हैं। असम्बद्ध हैं। इन्हें इकट्ठा करने के लिये कोई बहुत भारी प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ेगा। दोनों की एकता अविच्छिन्न है। अन्तर तो निद्रा ने डाला है। शरीर को मृतक जैसा उसी ने बनाया है। मन को देह से असम्बद्ध करने के लिए यह निद्रा ही कारण है। यदि उसे हटा दिया जाय तो जागते ही दोनों की एकता फिर यथावत हो जायगी। शरीर और मन दोनों परस्पर घुले मिले- और साथ-साथ मिल जुलकर काम करते दिखाई देंगे।

आत्मा और परमात्मा दोनों अभिन्न हैं। भिन्नता तो अविद्या रूपी निद्रा ने उत्पन्न की है। इसे हटाना भगाना ही इस दुखदायी वियोग के अन्त करने का एकमात्र उपाय है।

ईश्वर प्राप्ति अति सरल है। क्योंकि वह जीवन की महती आवश्यकता है। उसकी साधना सर्वथा सुगम है उसमें कोई ऐसी कठिनाई नहीं है जिसके लिए भारी दौड़-धूप करने और सरंजाम जुटाने की जरूरत पड़े। तपश्चर्या, योगसाधना, योग प्रक्रिया का मात्र प्रयोजन इतना है कि नशे की खुमारी और निद्रा की मूर्छना को हटा दिया जाय। जो साधना इस प्रयोजन को पूरा कर सकेगी उसी से ईश्वर प्राप्ति का सरल प्रयोजन सुगमता पूर्वक पूरा हो जायगा।

व्यवधान केवल एक है- इसे सरल भी कह सकते हैं कठिन भी। वस्तुतः वह साहसी के लिए अति सरल है और असमंजस ग्रस्त भीरु व्यक्ति के लिए अति कठिन। करना सिर्फ इतना भर है कि हम अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को शरीर न मानें- सुखों की खोज बाहर के पदार्थों में ढूँढ़ना बन्द कर दें। बहिर्मुखी दृष्टिकोण को अन्तर्मुखी बनायें। अपने को आत्मा मानें। आत्मा का हित साधन प्रमुख मानें। उसी में रुचि लें- उसी की इच्छा करें और उसी की व्यवस्था बनायें- अपना चिन्तन इसी लक्ष्य पर नियोजित करें और कार्यक्रम का पुनर्निर्धारण इस दृष्टि से करें कि यह जीवन परमेश्वर का है। परमेश्वर के लिए है और वही कार्य किये जायेंगे जो परमेश्वर द्वारा अपने लिये नियत निर्धारित किये गये है। पदार्थों में सुख खोजने की अपेक्षा प्रवृत्तियों में उत्कृष्टता आनन्द तलाश करना पड़ेगा। यह परिवर्तन जितना स्पष्ट होता जायगा ईश्वर उसी अनुपात में अपने समीप प्रस्तुत दिखाई देगा।

चिर संचित कुसंस्कारों से दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों से जूझना यही एक कठिन प्रसंग है। इसी मोर्चे पर हारने से साधना असफल होती है। तपस्वी का विजय ध्वज इसी शिखर पर गढ़ा हुआ है कि वह अज्ञानान्धकार में भटकने वाली भेड़ों का अन्धानुकरण छोड़कर स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र कर्तृत्व अपनाने में समर्थ हुआ या नहीं। अपना रास्ता आप बनाने की तपस्या- अपनी राह पर आप चलने की साधना को कर सका- बहिर्मुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बना सका- भीतर के आकर्षण प्रलोभन और बाहर के उपहास प्रतिरोध का जो सामना कर सका- इस उत्कृष्टता पर आरुढ़ योद्धा की सर्वत्र विजय है। जिसने अपने को जीत लिया समझना चाहिए उसने ईश्वर को जीत लिया यह सरलतम है और कठिनतम भी।



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