काश! ईल से भी मनुष्य कुछ सीखता

July 1972

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सर्प की आकृति वाली ‘ईल’ मछली यों सदा से रहस्यमय मानी जाती रही है अपनी विशिष्ट आकृति ही नहीं प्रकृति के करण भी। ईसा से 300 वर्ष पूर्व यह दन्तकथा प्रचलित थी कि वह एक विशेष जाति के सर्प से ही विवाह रचती है। पर सत्रहवीं शताब्दी में जल-जन्तु शोध कर्त्ता फ्रांसिस्को रेडी ने ईल के बार में एक विचित्र बात देखी कि वह अगस्त में वर्षा आरम्भ होते ही अपना स्थान छोड़कर कहीं अन्यत्र चली जाती है और फिर जनवरी में बच्चों समेत अपने तालाबों में, नदियों में, पुराने स्थान पर फिर दीख पड़ती है। इतने दिन तक वह कहाँ रहती है और यकायक बच्चे कहाँ से आ जाते हैं यह एक रहस्य ही बना हुआ था जिसको फ्रांसिस्को महोदय ने ढूँढ़ निकाला।

ईल की कई जातियाँ हैं वे इंग्लैंड, आइसलेण्ड, उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलेण्ड, जापान, आस्ट्रेलिया, आकलेण्ड, न्यूजीलैंड आदि देशों के नदी, तालाबों में पाई जाती है। पर जब उसका ऋतुकाल आता है तो प्रणय के लिये एवं प्रजनन की प्रक्रियायें सम्पन्न करने के लिये समुद्र में जाने का रास्ता ढूँढ़ती है। नदी, नालों को पार करती हुई वह किसी न किसी प्रकार समुद्र में जा पहुँचती है। वहीं वह पत्नी पद ग्रहण करती है और वहीं माता बनती है। यदि उसे समुद्र में जाने का अवसर न मिले तो फिर आजीवन ब्रह्मचारिणी का कठोर व्रत पालन करके ही जिन्दगी काट लेती है।

डेनमार्क निवासी एक जन्तु वैज्ञानिक जौनेस सिमिट ने पता लगाया कि ईल समुद्र में ही नहीं वरन् एक विशिष्ट स्थान पर ही अपना गृहस्थ बनाती है। जहाँ-तहाँ वह प्रणय प्रजनन नहीं करने लगती। योरोप की ईलको अमेरिका तक पहुँचने की लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा में कई बार डेढ़ वर्ष या ढाई वर्ष तक लग जाते हैं। यह ठीक समय पर चलती है और ठीक समय पर पहुँचती है। यदि वह समय चूक जाये तो वह एक वर्ष रुकना ही उचित समझती है, समय की पाबन्दी और चलने तथा पहुँचने का समय उसे रेलगाड़ी की तरह ही याद रहता है और उसमें वह चूक प्रायः नहीं ही करती।

यह बड़ी कठिन यात्रा है इसमें उसे अनुकूल आहार न मिलने पर भूखा रहना पड़ता है। समुद्री क्षारों के प्रभाव से उसकी चमड़ी का रंग पलट जाता है। उस पर भी माँसाहारी जल जन्तुओं से प्राण बचें तब वह अपने प्रियतम का घर ढूँढ़ पाती है। उसका विवाह समुद्र की तली में 200 से 400 मीटर नीचे होता है। वहीं वह अण्डे देती है। अण्डों से निकलने के बाद जब बच्चे चलने फिरने लायक हो जाते हैं तो उनके लालन-पालन का भार पति के कन्धों पर नहीं डालती वरन् अपने इन सब बाल-गोपालों को लेकर वह प्रदेश की ओर चल पड़ती है, जहाँ का अन्न-जल खाकर वह बड़ी हुई थी।

अविकसित समझी जाने वाली ईल मछली-मर्यादा पालन और शालीनता के सम्बन्ध में विकसित और बुद्धि मान समझे जाने वाले मनुष्य को बहुत कुछ सिखा सकती है, प्रणय और प्रजनन के लिये उपयुक्त पात्र और स्थान का वह चुनाव करती है और उसे क्रीड़ा-कौतुक भर नहीं मानती वरन् उसके लिए कष्ट साध्य तपस्या भी करती है।

मातृभूमि का प्यार उसे कितना अधिक है। लौटकर वहीं आती है और समुद्र जैसे विशाल साधन सम्पन्न के सहारे रहने की अपेक्षा अपने यहाँ की अन्न-जल प्रदान करने वाली मातृभूमि में ही दुःख-सुख के दिन काटती है। भारत के अन्न-जल से पले यहीं से शिक्षा पाये लड़के जब अधिक सुविधाओं के लालच में विदेशों के लिये भाग खड़े होते हैं और अपनी योग्यता से मातृभूमि को लाभान्वित करने के समय उसे धोखा देकर चले जाते हैं तब यही कहना पड़ता है इन सुशिक्षितों से अशिक्षित ‘ईल’ हजार गुनी अच्छी है।


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