अमृत की चाह नहीं करता (Kavita)

July 1972

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मैं विष पीने का अभ्यासी अमृत की चाह नहीं करता।

भय खाते जाते हुए पथिक जाता उस राह नहीं डरता।

अमृत की चाह उन्हें होगी भयभीत मृत्यु से जो रहते।

मेरा भय सारा निकल गया चोटें इसकी सहते-सहते।

विष पीते हुये देख मुझको अब मृत्यु स्वयं घबराती है।

मुझको छूना तो दूर रहा वह दूर खड़ी थर्राती है।

यह है मेरा सच्चा स्वरूप कह दो तुम भले दंभ भरता।

मैं विष पीने का अभ्यासी अमृत की चाह नहीं करता ॥ 1॥

जन-जन में व्याप्त हुये विष की भर घूँट अभी उदरस्थ करूं।

बस यही कामना है मेरी विष त्रस्त मनुज की भीति हरूं।

विष स्रोत विश्व में हैं जितने उन सबके मुख अवरुद्ध करूं।

फिर कैसे हो मानव विषाक्त जब ऐसे कठिन प्रबन्ध करूं।

मैं देख नहीं सकता पलभर पागल हो मनुज रहे मरता।

मैं विष पीने का अभ्यासी अमृत की चाह नहीं करता ॥2॥

मेरा ध्रुव निश्चय बार-बार झकझोर रहा मेरे मन को।

उद्घोष कर रहा इसीलिये यह कहता हूँ मैं जन-जन को।

विष त्यागो मेरे लिये सभी तुम शुद्ध करो अंतर्मन को

मैं विष भक्षण करने आया तुम बाँटो मधु जन-जीवन को।

तुम सब अमृत के प्यासे हो विष पर केवल मेरी ममता।

मैं विष पीने का अभ्यासी अमृत की चाह नहीं करता ॥3॥

वसुधा पर विष की एक बूँद अवशेष नहीं रहने दूँगा।

मानव का हित साधन करने मृत्युँजय बन वह पी लूँगा।

जन-मानस को शीतल करने मैं अंगारों में जी लूँगा।

उफ नहीं करूंगा जीवन भर मैं अपने मुख को सी लूँगा।

विष पीना है आसान मगर अब सह न सकूँगा बर्बरता।

मैं विष पीने का अभ्यासी अमृत की चाह नहीं करता॥4॥     -वै मालचन्द्र कौशिक


*समाप्त*




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