साधना का प्रयोजन और परिणाम

July 1972

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साधना का उद्देश्य किसी के सामने गिड़गिड़ाना - झोली पसारना या नाक रगड़ना नहीं है। दीनता न आत्मा को शोभनीय है न परमात्मा को प्रिय। परमात्मा न खुशामद का भूखा है और न है उसे प्रशंसा की आवश्यकता। उसकी महानता अपने आप में अपनी प्रशंसा है। मनुष्यों की वाणी न उसमें कुछ वृद्धि कर सकती है और न कमी। अपने ही बालक के मुख से प्रशंसा कराना किसी मनुष्य को भी अच्छा नहीं लगता फिर परमात्मा जैसे महान के लिए तो उसमें क्या आकर्षण हो सकता है। प्रशंसा करके किसी से कुछ प्राप्त करने का प्रयत्न ओछे दर्जे का कृत्य माना जाता है उस चंगुल में ओछे लोग ही फंसते हैं और उसे करने के लिए ओछापन ही तैयार होता है। खुशामद व चापलूसी का गोरख-धन्धा उन्हें पसन्द आता है, जो वस्तुतः प्रशंसा के पात्र नहीं। वे अपने चापलूसों के मुँह से अपनी बड़ाई सुनकर खुशी मना लेते हैं। असली न मिलने पर उस आवश्यकता को नकली से पूरा कर लेते हैं भक्त और भगवान के बीच यदि यही खुशामद चापलूसी का धंधा चले तो फिर समझना चाहिए दोनों की गरिमा गिर गई।

माँगना बुरा व्यवसाय है। चोरी से भी बुरा। चोर दुस्साहस करता है और खतरा मोल लेता है तब कहीं कुछ पाता है। पर भिखारी उतना भी तो नहीं करता। वह बिना कुछ किये ही पाना चाहता है। कर्म विज्ञान को एक प्रकार से वह झुठलाना ही चाहता है। संसार के स्वाभिमानी अपंग और असमर्थ भी स्वाभिमानी होते हैं। कोढ़ी और अन्धे भी कुछ कर लेते हैं। समाज उन्हें कर्तृत्व के साधन तो देता है पर मुफ्त में बिठा कर नहीं खिलाता। इसमें देने वाले की उदारता भले ही हो पर लेने वाले को ऋण के भार से दबना पड़ता है और दीन बन कर समग्र स्वाभिमान का हनन करना पड़ता है। यह हानि उस लाभ से बुरी है जो किसी दान से कुछ प्राप्त करके उपलब्ध किया जाता है।

दानी, दान और दानपात्र की भी एक आचार संहिता है। किसे दिया जाय? क्यों दिया जाय? कितना दिया जाय? किस आधार पर दिया जाय? इन कसौटियों पर कसने के उपरान्त ही भौतिक पदार्थों को देने और लेने की सार्थकता हो सकती है कोई कुछ भी किसी भी स्थिति में किसी भी प्रयोजन के लिए माँगे और देने वाला बिना गुण-दोष विचारे देता ही चला जाय तो समझना चाहिए कि वह अन्धेर देने वाले का, लेने वाले का और आचार व्यवहार का सर्वनाश करेगा। ईश्वर ऐसा दानी नहीं है कि हर माँगने वाले की मनोकामना फिर चाहे वह अज्ञानजन्य और अवाँछनीय ही क्यों न हो पूरी ही करता चला जाय। यदि उसे ऐसा ही करना होता तो कर्म और उसके फल के सिद्धान्त को आरम्भ से ही ताक पर उठा कर रख देता। उस प्रक्रिया का ऐसा उपहास क्यों बनने देता -जैसा कि औघड़दानी कह कर बमभोला को मूर्ख समझते हुए भक्त मंडली द्वारा बनाया जा रहा है।

साधना निश्चित रूप से याचना नहीं है। वह विशुद्ध रूप से आत्म-परिष्कार जीवन-शोधन और पात्रता के विकास की सुनियोजित प्रक्रिया है। तपश्चर्या की आग में हम अपने कलुष-कषायों को जलाते हैं कर्मफल की व्यवस्था सृष्टि का कठोर और अपरिवर्तनीय नियम है। उसे यदि ईश्वर बदलने लगे तो फिर उसे अपनी सारी क्रम व्यवस्था ही बदलनी पड़ेगी। सच्चा न्यायाधीश अपने बेटे को भी अपराध का दंड देकर न्याय की रक्षा करता है। ईश्वर का न्यायालय भक्त-अभक्त का अन्तर नहीं। भक्ति के दूसरे परिणाम हो सकते हैं पर उसका प्रयोजन यह नहीं हो सकता कि उस न्यायशील परमेश्वर को अन्याय या पक्षपात करने के लिए विवश किया जाय।

भक्ति हमें भविष्य में दुष्कर्म न करने की प्रेरणा देती है। अपने स्वभाव में धंसे हुए अविवेक और अनाचार उन्मूलन में सहायता करती है। निष्पाप और निर्मल बन कर हम प्रारब्ध कर्मों को भी धैर्य और शान्ति पूर्वक - साहस और संतोष के साथ सहन कर सकने में समर्थ हो सकते हैं और इस प्रकार प्रारब्ध भोग की आधी व्यथा हलकी कर सकते हैं। दुष्कर्मों और कुविचारों को तिलाँजलि देकर अपना भविष्य तो उज्ज्वल कर ही सकते हैं। साधना का यह लाभ भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

संचित कर्मों के छुटकारे का एक ही सनातन मार्ग और विधान है प्रायश्चित्य। पिछली भूलों पर खेद प्रकट कर देने या क्षमा माँग लेने की औपचारिकता पूरी करने से काम नहीं चलता। समाज को क्षति पहुँचाई है उतना अनुदान देकर उस गड्ढ़े को पाटना पड़ेगा। मन को कुकर्म के द्वारा जितना कलुषित किया है उतना ही सत्कर्म के उल्लास से उसका सन्तुलन बनाना पड़ेगा। अनाचार की जिन अवाँछनीय लहरों से वातावरण को क्षुब्ध किया था उसका समाधान पुण्य और परमार्थ की प्रक्रिया अपनाकर करना होगा। इतना साहस भक्त में उदय होता है और वह अपनी सदाशयता सिद्ध करने के लिए न्याय के कटघरे में खड़े होने से पूर्व स्वयं ही उपस्थित होकर अपनी भूल स्वीकारने और उसकी क्षति पूर्ति करने की बहादुरी दिखाता है।

साधना की प्रतिक्रिया साधक को अपने पापों का प्रायश्चित्य करने का शौर्य प्रदान करती है और भविष्य में निर्मल जीवन जीने का साहस। यह सत्परिणाम हैं जो साधना यदि सच्ची हो तो उसके फलस्वरूप साधक को तुरन्त प्राप्त होते हैं।

आत्म ज्ञान के अभाव में ही ईश्वर और जीव का वियोग है। अज्ञान का अन्धकार का पर्दा जितना चौड़ा है उतनी ही दूर परमेश्वर है। भगवान् का दर्शन और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए सिर्फ छोटी सी मंजिल पार करनी पड़ती है और वह आत्म - बोध। जिस घड़ी हम इन्द्रियों की गुलामी -वासना से मन की दासता-तृष्णा से इनकार कर देते हैं और अपने को आत्मा मानकर आत्मकल्याण के पथ पर कदम बढ़ाते हैं उसी क्षण ईश्वर की समीपता स्पष्ट हो जाती है और हृदय की हर धड़कन में उसके दर्शन होने लगते हैं।

ईश्वर भक्त केवल ईश्वर के शासन में रहता है और उसी के निर्देश पर चलता है मन की गुलामी उसे छोड़नी पड़ती है। जो मन का गुलाम है वह ईश्वर भक्त नहीं हो सकता। जो ईश्वर भक्त है उसे मन की गुलामी न स्वीकार हो सकती है न सहन।

साधना का प्रयोजन अपने अज्ञान और अविवेक का निराकरण करना है अपनी कामनाओं का परिशोधन और निराकरण करना है अपने कर्तृत्व में देवता का समावेश करना और कुत्साओं, कुण्ठाओं को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना है। साधना एक व्यायाम प्रक्रिया है जिसके अनुसार आत्मबल बढ़ाया जाता है और देवपक्ष की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन किया जाता है। इस आत्मपरिष्कार के फलस्वरूप उन विभूतियों की चाभी हाथ लग जाती है जो परमेश्वर ने पहले से ही हमारे भीतर रक्त भण्डार के रूप में सुरक्षित कर दी है।


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