ईश्वर को जो किसी वस्तु की भाँति खोजते हैं, वे नासमझ हैं। वह तो वस्तु है ही नहीं। वह तो आलोक, आनंद और अमृत के परम अनुभव का नाम है। ईश्वर न तो विषय है, न वस्तु और न ही व्यक्ति कि जिसे कहीं बाहर खोजा या पाया जा सके। वह तो अपनी ही चेतना का आत्यंतिक परिष्कार है।
सूफी फकीर जुन्नैद से किसी ने पूछा, ‘ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता?’ जुन्नैद ने कहा, ‘ईश्वर कोई वस्तु तो है नहीं, वह तो अनुभूति है। उसे देखने का कोई उपाय नहीं । हाँ, अनुभव करने का अवश्य है।’ फकीर जुन्नैद की ये बातें प्रश्नकर्ता को संतुष्ट न कर सकीं। तब उन्होंने पास में ही पड़ा एक पत्थर उठाया और अपने पाँव पर पटक लिया उनके पाँव को गहरी चोट आई और उससे खून की धारा बहने लगी। प्रश्नकर्ता व्यक्ति इसे देखकर हैरान हो गया और बोला, ‘यह क्या किया आपने? इससे क्या आपको पीड़ा नहीं होगी? ‘फकीर जुन्नैद हँसते हुए बोले, ‘पीड़ा दिखती नहीं, फिर भी है। ऐसे ही ईश्वर भी है।’
जीवन में जो दिखाई पड़ता है, उसकी ही नहीं, उसकी भी सत्ता है, जो नहीं दिखाई पड़ता। दृश्य से उस अदृश्य की सत्ता बहुत गहरी है। क्योंकि उसे अनुभव करने के लिए स्वयं के अस्तित्व की गहराई में उतरना जरूरी होता है। तभी वह पात्रता उपलब्ध होती है, जो उसे छू सके, देख सके और जान सके। साधारण इंद्रियाँ नहीं, उसे पाने के लिए तो अनुभूति की गहरी संवेदनशीलता अर्जित करनी पड़ती है। तभी उसका साक्षात्कार होता है और तभी मालूम पड़ता है कि वह कहीं बाहर नहीं, जो उसे देखा जा सके, वह तो भीतर है, वह तो देखने वाले में ही छिपा है।
सच तो यह है कि ईश्वर को खोजना नहीं, खोदना होता है। जो स्वयं में ही उसे खोदते चले जाते हैं, अंत में वे अपने अस्तित्व के मूल स्रोत और चरम विकास के रूप में अनुभव करते हैं। तो बस सार यही है कि ईश्वर को बाहर नहीं खोजें, स्वयं में खोदें।