सपनों की दुनिया में जीवन के हर पहलू के अनोखे एवं अद्भुत दृश्य दिखाई देते हैं। अपनी मनोवृत्ति के अनुसार रेखाचित्र में रंग भरते सपनों की दुनिया बड़ी अजीब है। विद्वानों ने इसे अपने-अपने ढंग से शब्दों में पिरोया है। मनोवैज्ञानिक इसे अपने अव्यवस्थित अचेतन की मनोलीला मानते हैं। कोई इसे मनोवैज्ञानिक समस्या मानता है, तो कोई मन के दमित विचारों का परिणाम। अध्यात्मविदों के अनुसार ईश्वरीय संदेश के रूप में भी वह प्रतिबिंबित होता है, जबकि वैज्ञानिकों ने सपनों को जैविक क्रिया से संबंधित दर्शाया है।
सामान्य क्रम में स्वप्न को जाग्रत् अवस्था की स्मृति माना जा सकता है। इस अवस्था में बाह्य जगत् से इंद्रियों का संबंध समाप्त हो जाता है। पातंजलि योग के अनुसार स्वप्न एक वृति का नाम है। इसमें चेतन मन जाग्रत अवस्था के अभाव में सुषुप्त हो जाता है और अचेतन मन क्रियाशील हो उठता है। इस तरह से देखा जाए, तो स्वप्न भी मन की एक रचना है। यह भावित स्मृर्तव्य स्मृति है। जाग्रत अवस्था में अनुभव किए गए विषयों की ही स्मृति होती है। परंतु स्वप्न में यह कल्पित होती है। अतः इनकी स्मृति कल्पित विषयों की स्मृति होती है। इसे ही स्मृति की स्मृति कहते हैं। स्मरण करने के ज्ञान का इसमें अभाव होता है। इसी कारण स्वप्न को भावित स्मृर्तव्य स्मृति कहते हैं।
वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार स्वप्नों में ज्ञानेंद्रियों का व्यापार बंद हो जाता है, फिर भी सूक्ष्म इंद्रियों के द्वारा सूक्ष्म विषयों का अनुभव होता है और इस सुख-दुःख अनुभव से सुख व दुःख का बोध भी प्राप्त होता है। यह आत्मा की अवस्था नहीं है। इसे सूक्ष्मशरीर का क्रिया-व्यापार कहा जाता है। आत्मा तो द्रष्टा के रूप में इसे देखती है। मनुष्य जब थककर सो जाता है, तो वह दृश्य दुनिया से अपना संबंध विच्छेद कर लेता है। इसके पश्चात् वह स्वप्नों की अनोखी एवं आश्चर्यमयी दुनिया में प्रवेश करता है। इसमें स्थूलशरीर भाग नहीं लेता। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार स्वप्न प्रतीकों और प्रत्ययों का संसार है। इस अवस्था में देश और काल की गति जाग्रत् अवस्था से भिन्न होती है। ये अवस्थाएँ स्वप्नावस्था में अति शीघ्र परिवर्तित होती रहती है। स्वल्प समय में भी बड़े-बड़े घटनाचक्र पूर्ण हो जाते हैं। स्वप्नावस्था में व्यक्ति, विषय तथा संबंध ये सभी तीव्र गति से परिवर्तनशील होते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि स्वप्न में सूक्ष्मशरीर की गतिविधियाँ भाग लेती हैं।
वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न को मिथ्या माना गया है। जो चीज नहीं है, उसको भी मन अपने ढंग से गढ़ लेता है। ब्रह्मसूत्र में स्वप्न को कोरी माया बताया गया है। साँख्य और अद्वैत वेदाँती कहते हैं कि संस्कार मात्र से बुद्धि का विभिन्न विषयों का आकार धारण करने वाला परिणाम ही स्वप्न है। अधिकाँश वेदाँती स्वप्न के विषय को सर्वथा मिथ्या मानते हैं। परंतु सभी वेदाँती स्वप्न को भ्रम एवं असत्य नहीं मानते। आद्य गुरु शंकराचार्य ने भी सपनों में हाथी पर चढ़ना तथा गधे पर चढ़ना अशुभ माना है। छाँदोग्य उपनिषद् ने स्वप्न के शुभ तथा अशुभ प्रतीकों का समर्थन किया है।
योगवासिष्ठ में स्वप्नों का सुँदर विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार जब जीव सुषुप्त अवस्था में प्राणों के द्वारा क्षुब्ध होकर चित का आकार धारण कर लेता है, तो स्वप्न दिखाई देते हैं। जैसे बीज के भीतर विशालकाय वृक्ष का आकार छिपा रहता है, वैसे ही जीव भी अपने अंदर ही सारे जगत् को विराट् एवं विस्तृत रूप से अनुभव करता है। इस अवस्था में जीव को उसकी वासनाओं के अनुकूल स्वप्न दिखते हैं, वायुप्रधान व्यक्ति आकाश में उड़ने का, जलतत्व प्रधानता होने पर जल संबंधी तथा पिन से प्रधान व्यक्ति उष्णताविषयक स्वप्नों का अनुभव करता है। जो ज्ञान बाह्य इंद्रियों के बिना अंदर की प्रतिक्रियास्वरूप प्राप्त होता है, उसे स्वप्न कहते हैं।
पुराणों में स्वप्न की जो व्याख्या मिलती है, उसके अनुसार परमेश्वर की इच्छा से जीव को अपने मनोगत संस्कार दिखाई पड़ने लगते है, उसे स्वप्न माना जाता है। तंत्रालोक में स्वप्न के बारे में इस तरह वर्णन मिलता है कि सुषुप्त अवस्था में यानि सोने के समय शरीर के तत्व विलीन हो जाते हैं और उन्हीं नष्ट हुए तत्वों से संबंधित सपने का अनुभव होता है। आयुर्वेद ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि स्वप्न गहरी नींद की दशा में नहीं होता। ऐसी दशा में स्मृति नहीं रहती ।
विद्वानों का मत है कि स्वप्न विषय कल्पनाओं पर आधारित होते हैं। इन कल्पनाओं के ज्ञान को स्मृति सामान्यता
ग्रहण नहीं कर सकती। स्वप्न का संबंध चित से माना गया है। चित के तीन गुण होते है। इसी वजह से स्वप्न भी तीन प्रकार के होते हैं, सात्विक, राजसिक तथा तामसिक स्वप्न। सात्विक स्वप्न को सर्वोत्कृष्ट स्वप्न माना जाता है। इस अवस्था में सत्व प्रधान होता है। जिस व्यक्ति में इस गुण की अधिकता होती है, उसी को ये स्वप्न दिखाई देते हैं। स्वप्न की ऐसी अवस्था में पूर्वाभास आदि ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते है। राजसिक स्वप्न में रजोगुण प्रधान होता है। तामसिक स्वप्न में विषय में क्षणिक होता है। इसलिए जागने पर स्वप्न का विषय याद नहीं रहता। स्वप्न के विषय वास्तविक और अवास्तविक दोनों हो सकते हैं।
पाश्चात्य मनोविज्ञान ने अपने ढंग से स्वप्न को स्थापित किया है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने स्वप्न के बारे में कहा है, जाग्रत् तथा सचेत अवस्था में हम अपने मन की जिन इच्छाओं और कामनाओं को प्रकट करने या कार्य रूप में परिणत करने में संकोच करते हैं या डरते हैं, वे ही रात की एकांत अवस्था में स्वप्न के रूप में दृष्टिगोचर होती है। ज्यों ही हम जागते हैं, सपना भी भूल जाते हैं। इसका भी यही कारण है कि जाग्रत अवस्था का डर फिर उन्हें पीछे धकेल देता है। फ्रायड स्वयं भी स्वीकार करते हैं कि स्वप्न एक मनोविश्लेषक वस्तु है। इसका मनोवैज्ञानिक इतिहास है। डॉ0 जुँग ने अपने शोधग्रंथ ‘साइकोलॉजी ऑफ द अनकान्शस’ में फ्रायड के विचारों का काफी तर्कपूर्ण ढंग से खंडन किया है। फ्रायड के अनुसार मनुष्य के मन की समूची इच्छाएँ कामवासना से संबंध रखती हैं। परंतु डॉ. जुँग ने इसको नकारते हुए सिद्ध किया है कि मनुष्य की कामप्रेरणा के अतिरिक्त उसकी वास्तविक इच्छा कहीं अधिक व्यापक है। उसमें सामाजिक, धार्मिक तथा रचनात्मक प्रवृत्तियां भी शामिल हैं। इसलिए अज्ञात मानस, अचेतन अवस्था के विचार सचेत मानस या सचेतन अवस्था के विचार हो सकते हैं। मानव स्वभाव की इस सत्यता को पुटनम नामक विद्वान् ने भी स्वीकार किया है।
फ्रायड तथा डॉ. जुँग की विचारधारा में अंतर केवल इतना ही था कि फ्रायड के अनुसार स्वप्न में अतृप्त वासना या कामना की अभिव्यक्ति होती है और जुँग के अनुसार स्वप्न वर्तमान परिस्थितियों का व्यंग्य चित्र (कार्टून) है और वह किसी उदाहरण द्वारा किसी निश्चित तथ्य को बतला रहा है। फ्रायड स्वप्न को अतृप्त वासना के सीमित व संकुचित दायरे में सीमाबद्ध कर देते हैं। परंतु जुँग उसे वर्तमान परिस्थिति के साथ जोड़कर इसकी शंका को व्यापक व विस्तृत कर देते है। जुँग के अनुसार स्वप्न के माध्यम से महान् दार्शनिक सत्य, संकल्प, भावी परिस्थिति, महत्वाकाँक्षाएँ, दूसरे के मन की बात आदि भी जानी जा सकती हैं। इस तरह देखा जाए, तो जुँग के विचार भारतीय विचारों के अधिक निकट हैं।
गहन तथा अचेतन अवस्था में मन की प्रतीकात्मक क्रियाओं का नाम स्वप्न है। जुँग की मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा तथा भावना को अपने में समेटे हुए है। वह कभी नहीं चाहता कि कोई उसके मन की बात को जाने। अतः उसके स्वप्न भी प्रतीकात्मक होते हैं, ताकि कोई अन्य उसे समझ न सकें। हर एक की अपनी कल्पना,अपनी इच्छा, अपना विचार पृथक् और भिन्न होता है। इसी वजह से सभी के स्वप्न भी भिन्न-भिन्न होंगे।
गहन मानस की कलात्मक भावना स्वप्न में जाग उठती है। इसी कारण दार्शनिक काँट की अभिव्यक्ति है कि स्वप्न गहन मानस की स्वतः बनी हुई कविता है। प्रसिद्ध कवि दाँते जो कुछ स्वप्न में देखते थे, उसे कविता का रूप देते थे। साल्ट थैरेपी के जनक किट्ज पर्ल्स के मतानुसार सपने हमें स्पष्ट संकेत देते हैं कि हम क्या कर पा रहे हैं, हमारी सामर्थ्य कितनी है। न्यू एंड मुरु तथा कार्ल्स केंस्टनेग कहते हैं कि स्वप्न मस्तिष्क में निहित तथ्यों के सचेतन केंद्र का स्थान परिवर्तन करता है। कई विद्वान् इसे प्रामाणिक मानते हैं, क्योंकि जाग्रत् अवस्था में मस्तिष्क का संकलन
केंद्र स्थिर होता है। सपने में इस केंद्र का स्थान बदल जाता हैं। बदलाव या परिवर्तन जितने अधिक होंगे, सपने भी उतने प्रकार के दिखाई देंगे।
दूसरी शताब्दी में रोम के आर्तिनिकोरस ने आना इआरोटिका में तीस हजार सपनों का विश्लेषण किया है। उसे सपनों को दो भागों में विभाजित किया है, सामान्य और प्रतीकात्मक सपने। आर्तिनिकोरस के अनुसार सपनों का अर्थ उल्टा होता है। जो भी हो, इसकी भाषा बड़ी प्रतीकात्मक एवं रहस्यात्मक होती है।
सपने देखना मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होता है। इस संदर्भ में आधुनिक स्वप्न विश्लेषक डॉ. अंजलि हजारिका कहती हैं कि मनुष्य यदि स्वप्न न देखे तो तनाव में पागल हो सकता है। सपने मार्गदर्शक की भूमिका भी अदा कर सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में स्वप्न विश्लेषक मधु टंडन की मान्यता है कि सपने सलाहकार, निर्देशक और आलोचक सभी प्रकार के हो सकते हैं। मनोचिकित्सक डॉ. जितेंद्र नागपाल ने सपने को समस्याओं का दर्शन माना है।
इस तरह देखा जाए तो सपनों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या फ्रायड से आरंभ होती है। वह एक अद्भुत देन थी, भले ही वह अपने आप में संपूर्ण न हो। क्योंकि यहीं से अचेतन की अवधारण प्रारंभ हुई और जिसे जाने बिना सपनों की समुचित वैज्ञानिक व्याख्या संभव नहीं है। यह ठीक है कि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मन की सूक्ष्म गइराई से अनभिज्ञ रहे, जिसे उनका प्रयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका, परंतु उन्होंने जितना खोजा, उसके माध्यम से सपनों की खोजबीन अवश्य ही की जा सकती है। अपने ऋषियों ने अंतर्दृष्टि से मन को भेदा था और सपनों की समुचित व्याख्या की थी, परंतु अब आवश्यकता है वैदिक ऋषियों के अनुभूत सिद्धांतों को पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों के प्रयोग द्वारा और अधिक अन्वेषण-अनुसंधान करने की।