संस्कारों की प्रबला (kahani)

August 2001

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महर्षि जावालि ने पर्वत पर ब्रह्मकमल खिला देखा। शोभा और सुगंध पर मुग्ध होकर ऋषि सोचने लगे उसे देवता के चरणों में चढ़ने का सौभाग्य प्रदान किया जाए।

ऋषि को समीप आया देख पुष्प प्रसन्न तो हुआ, पर साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए आगमन का कारण भी पूछा।

जावालि बोले, ‘तुम्हें देव-सामीप्य का श्रेय देने की इच्छा हुई, तो अनुग्रह के लिए तोड़ने आ पहुँचा।’

पुष्प की प्रसन्नता खिन्नता में बदल गई। उदासी का कारण महर्षि ने पूछा तो फल ने कहा, ‘देव-सामीप्य का लोभ संवरण न कर सकने वाले कम नहीं। फिर देवता को पुष्प जैसी तुच्छ वस्तु की न तो कमी है और न इच्छा। ऐसी दशा में यदि मैं तितलियों-मधुमक्खियों जैसे क्षुद्र कृमि-कीटकों की कुछ सेवा-सहायता करता रहता, तो क्या बुरा था। आखिर इस क्षेत्र को खाद की भी तो आवश्यकता होती, जहाँ मैं उगा और बढ़ा।’

ऋषि ने पुष्प की भाव-गरिमा को समझा और वे भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसे यथास्थान छोड़कर वापस लौट आए।

संत इब्राहीम ने ईश्वरभक्ति के लिए घर छोड़ दिया और वे भिक्षाटन पर निर्वाह करके साधनारत रहने लगे।

किसी किसान के यहाँ वे भिक्षा माँग रहे थे, तो उसके रोककर कहा, ‘आप जवान हैं, परिश्रमपूर्वक निर्वाह करें, बचे समय में साधना करें। समर्थ का भिक्षा माँगना उचित नहीँ।’

इब्राहीम को बात जँच गई। उनने इस सदुपदेशकर्ता का एहसान माना और पूछा, ‘तो फिर इतनी कृपा और करें कि मुझे काम दिला दें, ताकि गुजारे के संबंध में निश्चिंत रहकर भजन करता रह सकूँ।’

किसान का एक आम का बगीचा था। उसकी रखवाली का काम सौंप दिया। साथ ही निर्वाह का प्रबंध कर दिया। दोनों को सुविधा रही।

बहुत दिन बाद आम की फसल के दिनों में किसान बगीचे में पहुँचा और मीठे आम तोड़कर लाने के लिए कहा। इब्राहीम ने बड़े और पके फल लाकर सामने रख दिए। वे सभी खट्टे थे। नाराजी का भाव दिखाते हुए किसान ने पूछा, ‘इतने दिन यहाँ रहते हो गए, इस पर भी ये नहीं देखा कि कौन पेड़ खट्टे और कौन मीठे फलों का है?’

इब्राहीम ने नम्रतापूर्वक कहा, ‘मैंने कभी किसी पेड़ का फल नहीं चखा। बिना आपकी आज्ञा के चोरी करके मैं क्यों चखता?’

किसान इस रखवाले की ईमानदारी, वफादारी पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, ‘आप पूरे समय भजन करें। निर्वाह मिलता रहेगा। रखवाला दूसरा रख लेंगे।’

इब्राहीम दूसरे दिन बड़े सबेरे ही उठकर अन्यत्र चले गए। चिट्ठी रख गए। ‘आपने आरंभ में कहा था, बिना परिश्रम के नहीं खाना चाहिए। आपकी उस अनुशासन भरी शिक्षा से ही मेरी श्रद्धा बढ़ी थी। अब तो आप ठीक उल्टा उपदेश करने लगे। मुफ्त का खाने लगूँ, यह कैसे होगा? आपकी बदली हुई शिक्षा को देखकर मैंने चला जाना ही उचित समझा।’

संस्कारों की प्रबला सही मार्ग पर चलने वाले को कभी दिग्भ्राँत नहीं कर सकती।


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