ब्रह्मांड की टोह हेतु चल रहे दुरसाहसी प्रयास

August 2001

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भूख चाहे पेट की हो या संपदा की, जब वह जाग्रत होती है, तो व्यक्ति को सहज-सामान्य नहीं रहने देती, इतना व्याकुल बनाती है, मानो कहीं से उसे अजस्र तृप्ति हाथ लग जाए और क्षुधा शाँत हो।

जठरानल शरीर का स्वाभाविक धर्म हैं। उसकी पूर्ति तो कहीं-न-कहीं से, किसी-न-किसी प्रकार होती ही रहती है, पर संपत्ति की भूख ऐसी है, जिसका कोई अंत नहीं, जब वह उद्बुद्ध होती है, तो ‘और-और’ की रट लगाए रहती है एवं जीवनपर्यंत चैन नहीं लेने देती।

व्यक्ति की तरह राष्ट्रों की भी वैभव की अभीप्सा अप्रतिम है। निर्धन देश तो अपनी गरीबी ही से लड़ाई लड़ने में लगे हुए हैं, किंतु अमीर देशों की भूख और पेट बढ़ता जा रहा है। उनके लिए उपलब्ध धन पर्याप्त नहीं, उन्हें विपुल वैभव चाहिए। यह कैसे और कहाँ से मिले?

इसके लिए उन्होंने प्रकृति के संसाधनों का बुरी तरह दोहन किया। धरती को निचोड़ा। जितना रस निकल सकता था, निकाल लिया। फिर समुद्र को मथा। वहाँ जो कुछ प्राप्त हो सकता था, उसे निर्ममतापूर्वक लूट लिया। अब उन्हें यह लगने लगा है कि समुद्र निःसत्व हो गए और धरती रत्नगर्भा नहीं रही, तो उन्होंने आकाश की ओर दृष्टि उठाई और पृथ्वी के समीपवर्ती खगोलीय पिंडों को अपना पहला निशाना बनाया। उन पर यान और उपग्रह भेजे जाने लगे और वहाँ के वातावरण और परिस्थिति के साथ-साथ उनकी मिट्टी का विश्लेषण-अध्ययन किया जाने लगा। इन अध्ययनों से वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गए। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन पिंडों की धरती पर तो अरबों-खरबों डॉलर की लोहा, सोना, प्लैटिनम जैसी बहुमूल्य धातुएँ विद्यमान हैं, तो उन्हें पाने की योजनाएँ बनने लगीं। धनाढ्य देश इस दिशा में सबसे आगे हैं। वे अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम को निरंतर विकसित करते जा रहे हैं, जिसका अंतिम लक्ष्य एक ही है कि अधिक-से-अधिक ग्रह-उपग्रहों पर वे अपना वर्चस्व स्थापित कर उस पर अधिकार कर सकें। इस अभियान को ‘गोल्ड रश टु स्पेस’ नाम दिया गया है। अमेरिका की एशफोर्ड कंपनी इस क्षेत्र में अग्रणी है। उसने इस काम के लिए ‘ब्रिस्टल’ नामक एक अंतरिक्ष यान तैयार कर रखा है, जिसे इस वर्ष किसी भी समय छोड़ा जा सकता है। योजनानुसार इसे पृथ्वी के किसी समीपस्थ पिंड पर भेजना जाएगा। वहाँ जाकर इसके उपकरण उसकी धरती की खुदाई करेंगे और उस मिट्टी को वापस पृथ्वी पर लाएँगे। यहाँ उससे खनिजों का दोहन किया जाएगा। अनुमान है कि यह स्पेस शटल सौ किग्रा. वजन ले जाने और उतना ही माल वापस लाने में सक्षम होगा। इसमें विशुद्ध एक करोड़ डॉलर लाभ की उम्मीद है। इस संपूर्ण परियोजना में 5 करोड़ लागत आने का आकलन किया गया है।

ऐसी ही एक परियोजना में संलग्न 50 वर्षीय कंप्यूटर विशेषज्ञ और परियोजना अध्यक्ष डॉ. जे.एफ. बेन्सन का कहना है कि उसकी परियोजना में खनिजों को लाने का काम हाथ में नहीं लिया गया है, वरन् उसके यान अलग-अलग ग्रह-उपग्रहों में जाकर खनिज संपदाओं का पता लगाएँगे और यह जानकारी एकत्रित करेंगे कि उक्त संपदा पूरे ग्रह पिंड में बिखरी पड़ी है या किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित है। यह सूचना दूसरे को बेचकर कंपनी धन कमाएगी।

करोड़ों डॉलर की कमाई इसी से हो जाएगी। इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष भ्रमण को पर्यटन व्यवसाय के रूप में विकसित कर भी वैभव कमाने की उसकी योजना है। अगले दस वर्षों में यह व्यवसाय चल निकलेगा, ऐसा अनुमान है।

ग्रह-पिंडों को जानने-समझने की जिज्ञासा मनुष्य की कोई नई नहीं है। संपूर्ण अंतरिक्ष ही उसके लिए सदा से कुतूहल का विषय रहा है। पूर्व में जब विज्ञान का दखल अंतरिक्ष क्षेत्र में नहीं था, तो सब कुछ अनुमान-आकलन पर ही चल रहा था, किंतु पिछले दशकों में जब उसके यान-उपग्रह आकाश की दूरियाँ नापने लगे, तो ही ग्रहगोतकों की वास्तविक जानकारी उपलब्ध हो सकी। इस संदर्भ में विगत कुछ दशाब्दियों में कई यान चाँद और मंगल जैसे निकटस्थ पिंडों पर भेजे गए, लेकिन जो उपलब्धि अमेरिकी अपोलो अभियान से अर्जित हुई, वह कई अर्थों में महत्वपूर्ण थी। यह पहला अवसर था, जब किसी बाहरी ग्रह पर मनुष्य के पाँव पड़े थे। चंद्र धरातल की संरचना समझने में इसने काफी मदद पहुँचाई। पहली बार यह ज्ञात हुआ कि चंद्रमा की अंतःभित्ति (कोर) ‘लोहा’ और ‘निकेल’ जैसी धातुओं से निर्मित है। 140 कि.मी. मोटी बाह्य भित्ति ‘पेरिडोसाइस’ से बनी है, जबकि 60 कि.मी. मोटा भूपटल (क्रस्ट) ‘एनोथ्रोसाइट’ एवं ‘बाँसाल्ट’ युक्त है। यद्यपि वहाँ न कोई जलयोजित (हाइड्रेटेड) खनिज है, न कोई हाइड्रोक्सी समूह युक्त रवादार संरचना, जबकि पृथ्वी पर ऐसी पदार्थ प्रचुर परिमाण में है। इतने पर भी चंद्र तल पर जितना कुछ है, वह कम नहीं है। ऐसे में अमीर देशों के बीच वहाँ पहुँचने, बसने और वहाँ के संसाधनों का दोहन करने की प्रतिस्पर्द्धा स्वाभाविक ही है। इसमें एक ही अड़चन सामने आ रही है, जल की कमी। फिर भी इसे अंतिम निष्कर्ष नहीं मान लिया जाना चाहिए, कारण कि शोध-अनुसंधान अब भी जारी हैं। इस क्रम में हाल ही में ‘नासा’ के वैज्ञानिकों ने वहाँ पानी होने की संभावना के बारे में एक सनसनीखेज घोषणा की है। पर कई ओर से इस घोषणा को चुनौती मिल रही है। इसमें अग्रणी हैं, राँची विश्वविद्यालय के भू-गर्भ विज्ञान के वैज्ञानिक एवं ‘जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया’ के फेलो डॉ. नीतिश प्रियदर्शी। उनका कहना है कि चंद्रमा संबंधी कुछ तथ्यों पर यदि हम ध्यान दें, तो पाएँगे कि पृथ्वी एवं चाँद की सूर्य से औसत दूरी एक ही है, पर चंद्रमा के पास पृथ्वी की भाँति वायुमंडलीय ताप संरक्षण की प्रक्रिया नहीं है, इसलिए इसकी सतह का तापमान 125 डिग्री से.ग्रे0 (सूर्य प्रकाशित क्षेत्र में) से माइनस 160 डिग्री से.ग्रे. (अप्रकाशित रात्रि क्षेत्र ) के बीच ही रहता है। चंद्रमा के आँतरिक सतह से जो गैस निकलती है, वह बनने के तुरंत बाद अंतरिक्ष में लुप्त हो जाती है, क्योंकि चाँद की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पृथ्वी का 16.5 प्रतिशत) काफी क्षीण है। इसके कारण वायुमंडल को बनाए रखने में यह अक्षम है। ऐसे में जल संबंधी ‘नासा’ की वर्तमान अवधारण सही नहीं लगती, फिर भी किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले चंद्र-धरातल का भू-गर्भीय एवं भू-रासायनिक विश्लेषण आवश्यक है।

डॉ. प्रियदर्शी की इस आपत्ति से वहाँ बसने वालों को कुछ निराशा अवश्य हुई है, पर वहाँ की संपदा बटोर लाने में यह कोई बड़ी बाधा नहीं है। अत्याधुनिक उपकरणों से लैस मानवयुक्त चंद्रयान कुछ दिन रुककर वहाँ की ढेर सारी मिट्टी खोदकर पृथ्वी पर ला सकता है। इस अयस्कों से धातुएँ प्राप्त कर ली जाएँगी।

डॉ. प्रियदर्शी के मत को स्वीकार लेना अभी जल्दबाजी होगा, कारण कि अमेरिका का ‘प्रोस्पेक्टर’ यान अब भी वहाँ अपने खोजी यंत्रों और यंत्र मानवों द्वारा खुदाई और जाँच कार्य में लगा हुआ है। जल संबंधी संभावना का अनुमान अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इसी के द्वारा जुटाई गई सूचनाओं के आधार पर लगाया है। इसकी पुष्टि ‘अपोला’ अभियान द्वारा लाए गए 372 टन पत्थरों के अध्ययन भी करते हैं। न्यूट्रॉन स्पेक्ट्रोमीटर ने इनमें उपस्थित हाइड्रोजन अणुओं को आसानी से पहचान लिया है। इससे इस बात की संभावना प्रबल हो जाती है कि चंद्र-तल पर जल भले ही न हो, पर उसके गर्भ में, विशेषकर दक्षिण ध्रुव प्रदेश की गहरी खाइयों में बर्फ की चट्टान के रूप में पानी विद्यमान होना चाहिए। यदि यह सत्य साबित हुआ, तो चंद्रमा को स्टेशन के रूप में विकसित करने का संपन्न देशों का सपना साकार हो उठेगा। तब जल और ऑक्सीजन दोनों की पूर्ति बर्फ द्वारा आसानी से हो जाएगी। इससे दूसरे खगोलीय पिंडों में संपदा की खोज-यात्रा भी सरल साबित होगी। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल बहुत कम है, अतएव वहाँ से दूसरे ग्रहों के लिए यान प्रक्षेपण बहुत कम ऊर्जा में सफलतापूर्वक संभव हो जाएगा। बड़े देश इस चंद्र-अभियान में कितने सफल सिद्ध होते हैं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अभी तो यह सब संभावना मात्र है।

मंगल ग्रह की परिस्थितियाँ पृथ्वी से काफी मिलती-जुलती हैं, इसलिए वैज्ञानिक शुरू से ही वहाँ किसी-न-किसी स्तर के जीवन की संभावना की बात करते रहे हैं। यह बात पृथक है कि अब तक इसकी पुष्टि नहीं हो सकी हैं, पर इस संभाव्यता को आज भी पूरी तरह निरस्त नहीं किया गया है और क्षीण ही सही, वैज्ञानिकों के एक वर्ग ने इन दिनों भी यह आशा लगा रखी है कि वहाँ जीवन के प्रमाण कभी-न-कभी जरूर मिलेंगे। पिछले वर्ष अमेरिका का सोजोर्न यान अपने ‘पाथफाइंडर’ रोबोट के साथ वहाँ उतरा और वहाँ की मिट्टी के बहुत सारे नमूने इकट्ठे किए। इसके अध्ययन से ज्ञात हुआ कि धरती की ही तरह वहाँ की मिट्टी में सिलिकॉन एल्युमिनियम और पोटैशियम बड़ी मात्रा में मौजूद है। वहाँ के वातावरण में ऑक्सीजन भी उपलब्ध है, पर अतीव न्यून परिमाण में। वहाँ के धरातल पर नदियों और समुद्रों के चिन्ह मिले है। वाइकिंग-1 एवं 2 अभियानों के भी यही निष्कर्ष थे।

इससे पूर्व रूसी यानों ने भी उस ग्रह की टोह ली थी। वे भी किसी प्रकार के जीवन की खोज तो न कर सके, पर वहाँ विद्यमान खनिज की प्रचुरता की जानकारी अवश्य दी थी। इस आधार पर उस अभियान के अगुआ रूसी वैज्ञानिक ब्लादिमिर जेरोकोविच ने कहा था कि कभी पृथ्वी के खनिज संपदा की कमी को पूरा करने में मंगल की धरती बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। शायद वह समय अब आ पहुँचा है, जब खगोलीय पिंडों पर इसकी तलाश की जाने लगी है।

इसके अतिरिक्त शनि के चंद्रमाओं के अध्ययन के लिए और यह पता लगाने के लिए कि वहाँ की धरती पर कौन-कौन से खनिज हैं, अमेरिका ने पिछले दिनों 350 करोड़ डॉलर से निर्मित ‘कासिनी’ नामक अंतरिक्ष यान शनि की ओर भेजा है। पृथ्वी से 2.2 खरब मील दूर स्थित शनि की कक्षा में वह सन् 2004 में पहुँचेगा और उसकी 84 बार परिक्रमा करेगा। इस मध्य वह शनि के गैसीय वलय एवं उसके उपग्रहों का अध्ययन करेगा। अंत में वह शनि के सबसे बड़े चंद्रमा ‘टाइटन’ के 85 चक्कर लगाकर उसकी धरती पर एक छोटा यान उतारेगा, जिसमें एक खोजी रोबोट और गाड़ी भी साथ होगी। रोबोट वहाँ के मिट्टी-पत्थरों के नमूने उठाकर गाड़ी में भरता जाएगा। बाद में सभी को ऊपर चक्कर काटते मुख्य यान में बुला लिया जाएगा, जहाँ से वे पुनः पृथ्वी की ओर प्रस्थान करेंगे। यहाँ उन नमूनों का विश्लेषण कर यह पता लगाया जाएगा कि वहाँ कौन-कौन सी धातुएँ विद्यमान हैं।

उल्लेखनीय है कि टाइटन की परिस्थितियाँ पृथ्वी जैसी ही पहचानी गई हैं। अब से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी जिस प्रकार की थी, टाइटन को वैसा ही पाया गया है। इसके अतिरिक्त उसके चारों और पानी युक्त बादल भी देखे गए हैं। अतः वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक हैं कि पृथ्वी के खनिज और वहाँ के खनिजों में कैसी समानता होगी? यदि असमानता हुई, तो वह किस स्तर की होगी? क्या बिलकुल नई धातुएँ भी वहाँ पाई जा सकती हैं एवं वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न कर उन्हें पृथ्वी पर बनाया जा सकना संभव है क्या ? यह तो समय ही बताएगा कि इनमें से कौन-सी संभावना सत्य साबित होगी और पृथ्वीवासियों के लिए वहाँ की संपदा किस प्रकार उपयोगी बन सकेगी?

हैं। कदाचित् वह अपने मिशन में असफल हो पाए और किसी कारण से लक्ष्य-पूर्ति न कर सके, इस आशंका को ध्यान में रखकर वैज्ञानिकों ने इसका जुड़वाँ वोएजर-2 भी छोड़ा है, जो वोएजर-1 से पाँच साल पीछे चल रहा है। यह मिशन अपने प्रयोजन में कहाँ तक सफल होगा, बता पाना कठिन है।

वैभव हर एक को चाहिए, चाहे वह व्यक्ति हो, समाज या राष्ट्र हो। उस पर ही उसका भावी विकास निर्भर है, पर संपदा की इस खोज-यात्रा में हमें यह बात भी सुनिश्चित करनी पड़ेगी कि धन की खोज में हम कहीं अपना संपूर्ण धन ही न गँवा बैठें और कंगाल न हो जाएँ। इसे ध्यान में रखकर ही कोई राष्ट्र अंतर्ग्रहीय वैभव का खोज-अभियान सफल-सार्थक बना सकता है। इससे कम में नहीं।


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