राजा दिलीप राज्यकार्य से समय निकालकर देश के विभिन्न आश्रमों-आरण्यकों में जाते थे। तेजस्वी राजकुमार रघु किशोर हो गए, तो उन्हें भी साथ ले जाने लगे।
एक बार रघु ने सहज जिज्ञासावश पूछा, ‘पिताजी, आप महत्वपूर्ण राज्य कार्यों की तरह ही आश्रमों में जाने का ध्यान रखते हैं। ऋषियों को उच्चतम अधिकारियों से भी अधिक सम्मान देते हैं, जबकि प्रत्यक्ष में उनकी उपयोगिता दिखती नहीं है।’
राजा बोले, ‘वत्स। ठीक प्रश्न किया। राज्य की आदर्श व्यवस्था हम चलाते हैं। उसका श्रेय भी हमें मिलता है। पर ऋषिगण ऐसे व्यक्तित्व गढ़ते हैं, जो आदर्श व्यवस्था की योजना बना सकें, उसे क्रियान्वित कर सकें। यदि ऐसे व्यक्ति न बनें, तो लाख प्रयास करने पर भी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाए। जिनके कारण यह तंत्र व्यवस्थित चल रहा है, उनके निर्माताओं का जितना सम्मान किया जाए, उन पर जितना ध्यान दिया जाए, कम है। मेरा चिंतन और मेरी सामर्थ्य तथा तुम्हारा व्यक्तित्व भी ऋषिकृपा से ही इस रूप में ढला है।’