बड़ा प्रयोजन (kahani)

August 2001

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युधिष्ठिर ने महल के नीचे रस्सी के सहारे एक घंटा बाँध रखा था। प्रजाजनों में से किसी को न्याय चाहिए तो वह घंटा बजाता। युधिष्ठिर उसे तुरंत बुलाते ओर उसका फैसला करते।

पाँडवों ने इस पर आपत्ति की तो युधिष्ठिर ने कहा, ‘राजा का धर्म है कि उसे अपनी सुविधा को प्राथमिकता न देकर उन प्रजाजनों की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए, जिनके लिए वह सिंहासन की न्यायपीठ पर बैठा है।’

भगवान् बुद्ध का जब मरणकाल निकट आया, तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कुछ उपदेश दिए। उन्होंने कहा, ‘तुम साम्यवादी संकीर्णता से दूर रहकर सच्चे धर्म का पालन करना, धर्म मनुष्य को मर्यादाओं में रखता है और शालीन बनाता है। बिना तट की सरिता उच्छृंखल होकर अपना और सबका विनाश करती है। धर्म के सीमा-बंधन तोड़ना मत।’

‘परस्पर एक होकर रहना। कारण कुछ भी हो, पृथकतावाद मत अपनाना। जो तुम में फूट डालो, उनसे सतर्क रहना और उन्हें कभी क्षमा मत करना।’

‘जहाँ रहते हों उसे पथ-विश्राम मात्र मानना । तुम्हारा घर तो वहाँ है, जहाँ जीवन लक्ष्य पूर्ण होता है। रास्ते के साथियों से मिलना जरूर, पड़ावों पर ठहराना भी, पर उनके साथ इतने मत उलझ जाना, कि मंजिल ही भूल जाएँ।’

‘भिक्षुओं। बोलना कम, करना ज्यादा। जितना ज्यादा बोलोगे उतना ही तुम्हारा सम्मान गिरेगा। उथले लोग ही बहुत बकवास करते हैं। तुम जो बोलो ठोस, मर्यादित, थोड़ा, अनुभूत और विश्वासपूर्वक बोलना, उस थोड़े से भी बड़ा प्रयोजन सधेगा।’


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