दैवी वातावरण का विस्तार (kahani)

August 2001

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आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि संसार में इतना दुःख और कलह क्यों है, जबकि विज्ञान ने एक-से-एक बढ़कर सुख-साधन उत्पन्न कर दिए।

उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-कमी बस एक ही रह गई कि अच्छे मनुष्य बनाने की कोई योजना नहीं बनी। देश, संप्रदाय के पक्षधर सभी दीखते हैं, पर ऐसे लोग दीख नहीं पड़ते, जो अच्छे इन्सान बनने की योजना बनाएँ।

जरथुस्त्र को बोध हो चुका था। अहुरमज्द (परमात्मा) का सत्य, न्याय और प्रेम (दान-सेवा) का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का अभियान चालू कर चुके थे। उसे तीव्र गति देने के लिए संस्कारवान् समर्थ व्यक्तियों की आवश्यकता अनुभव की। ईरान में ‘बल्ख’ साम्राज्य का शासक गुश्तास्प सत्पुरुष था। वे उसके सामने स्वप्न में तीन प्रतीक लेकर प्रकट हुए।

एक हरा पौधा देते हुए कहा, ‘यह सद्भाव का प्रतीक है। परमात्मा एक है, उसके अनुशासन पर चलने और चलाने की आस्था, सबके हृदयों में आरोपित करना अपना पवित्र कर्तव्य मानो।’

एक पुस्तक दी और कहा, ‘यह सद्ज्ञान है, इसे समझने, समझाने का क्रम बढ़ाओ।’

एक अग्नि पिंड दिया और कहा, ‘यह दिव्य अग्नि (यज्ञाग्नि) सत्कर्म का प्रतीक है। यह जलती-बुझती नहीं, अनित्य है। इसका विस्तार करो। तुम्हें पवित्र यश मिलेगा, तुम्हारा राज्य सुखी-समुन्नत बनेगा।’ सद्भाव, सद्ज्ञान और सत्कर्म का संयोग चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है।

शासक गुश्तास्प प्रभावित हुआ। उसका जीवन सही दिशा में घूमा और उसके साधनों और प्रभाव-सदुपयोग से सारे क्षेत्र में दैवी वातावरण का विस्तार हो गया।


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