राजा अग्निमित्र और श्रेष्ठि सोमपाल मित्र थे। उनमें बहस हो गई। सोमपाल ने कहा, राज्य का संरक्षण उपयोगी तो है, पर अनिवार्य नहीं, ईश्वरप्रदत्त विभूतियों और साधनों से मनुष्य बहुत मजे में रह सकता है। राजा ने उग्र होकर चुनौती दी, ‘अच्छा एक वर्ष नगर में मत घुसना, जंगल की सीमा में रहना। अंदर आए तो जेल में डाल दूँगा। हार मान लो तो प्रतिबंध हटा दूँगा और यदि एक वर्ष में कुछ उल्लेखनीय करके दिखा दोगे, तो मैं हार मान लूँगा।
सोमपाल सीमित साधन लेकर जंगल में प्रवेश कर गए। वहाँ एक निराश लकड़हारा मिला। श्रम बहुत करने पर भी परिवार का पोषण ठीक से नहीं कर पाने से दुखी था। सोमपाल ने उसे उत्साहित किया। कहा, मित्र तुम मुझे श्रम से सहायता देना, मैं तुम्हें विचार से सहायता दूँगा। दोनों मिलकर बड़ा काम कर लेंगे। लकड़हारा राजी हो गया।
सोमपाल ने उससे कुल्हाड़ी ले ली। स्वयं लकड़ी काटने लगे और उसे नगर के समाचार लेने भेज दिया। प्राप्त सूचनाओं के आधार पर वे उसे जलाऊ और इमारती लकड़ी बेचने भेजने लगे। धीरे-धीरे काम बढ़ निकला, अधिक मजदूर बुलाकर अधिक काम होने लगा। नगरवासी उस व्यवस्था का लाभ उठाने लगे।
तभी पता लगा कि विशाल यज्ञ होने वाला है। सोमपाल ने यज्ञीय समिधाओं तथा सुगंधित वनौषधियों का संग्रह कर लिया। यज्ञ संयोजकों को सूचना मिली, तो अच्छे मूल्य पर तैयार वस्तुएँ खरीद ली गई। इसी प्रकार नगर की ढेरों आवश्यकताएँ सोमपाल के तंत्र से पूरी होने लगीं।
राजा को सूचना मिली तो उस तंत्र के पीछे कौन है, यह खोजा गया। राजा अपने मित्र से मिलने स्वयं गए। प्रेम से मिले, पूछा ‘तुम तो शहर में घुसे नहीं, यह सब कैसे विकसित किया?’ सोमपाल बोले, ‘मित्र यह मेरी विचारशक्ति और लकड़हारे की शरीर शक्ति का संयोग है। इसी के संयोग से वन-संपदा नगरवासियों के काम आई और एक वर्ष का समय हम सबके लिए बहुमूल्य बन गया।’