महापुरुषों की रीति-नीति भी निराली है। वे कभी परोक्षजगत से अपने भक्तों को आश्वासन दे देते हैं, कभी प्रत्यक्ष वचनों द्वारा अभयदान, कभी लेखनी से लेखों वे पत्रों द्वारा संरक्षण-प्रत्यक्ष के समान ही मार्गदर्शन। जीवन में कई प्रकार की समस्याएँ आती है। कई ऐसी होती हैं, जिन्हें हम ओढ़ लेते है। जबर्दस्ती उनके विषय में बार-बार चिंतन कर स्वयं को उद्विग्न बना लेते हैं। सकाम चिंतन करने वाले अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं। ऐसे कई पत्र पूज्यवर के लिखे हमारे पास हैं, जिनमें उनने उदारतापूर्वक अनुदान बाँट है। कई ऐसे हैं जिनमें समझाया है, तर्क की कसौटी पर विवेक का प्रयोग करने को कहा है। किसी को लड़के की चाह थी, किसी को चुनाव में जीतने की तथा किसी को पैसा कमाने की। अनुत्तरित कोई न रहा। सभी को यथासमय मार्गदर्शन भी मिला और समाधान भी।
25/12/53 को मुजफ्फरपुर की मुन्नी देवी को लिखा पत्र यहाँ उनकी एक ऐसी अभिलाषा को संकेत करके लिखा गया है, जो किसी भी नारी की हो सकती है। पूज्यवर लिखते हैं-
‘तुम्हारी इच्छा और अभिलाषा का हमें ध्यान है। जो कुछ प्रयत्न हम से हो सकेगा, सो करने का प्रयत्न करेंगे। पूर्व संचित प्रारब्ध भोगों के कारण इस जन्म में तो क्या आगे के कई जन्मों में भी तुम्हारे लिए संतान का योग नहीं है। बहुत विचार करने पर भी अंधकार ही दिखाई पड़ता है।
तुम कुछ समय श्रद्धा एवं भक्ति-भावना के साथ गायत्री उपासना में संलग्न रहा, ताकि अशुभ-अदृष्ट का निवारण हो सके। धैर्य और श्रद्धापूर्वक साधना मार्ग पर कुछ दिनों तुम्हें लगा रहना पड़ेगा। तभी कुछ सत्य परिणाम होने की आशा है।
गायत्री चालीसा का पाठ तुमने आरंभ कर दिया होगा। एक माला प्रतिदिन ‘यं’ बीज समेत गायत्री की जपा करो।
‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’ इस प्रकार तुम मंत्र का जप किया करो।
निराश होने की, चिंता करने की कोई बात नहीं है। तुम्हारी मनोव्यवस्था को दूर करने के लिए हम प्रयत्न करेंगे और माता की कृपा हुई तो परिणाम कुछ अच्छा ही होगा। पुनश्चसंभव हो तो दिसंबर (1953) की अखण्ड ज्योति में छपी हुई अनुज्ञान योजना में भाग लेने का प्रयत्न करना गायत्री साहित्य का दान वितरण गौदान की बराबर फलदायक है।’
पूरे पत्र का अवलोकन करें तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। अपनी शिष्या के लिए कुछ करने की मन में टीस एवं दूसरी स्पष्ट प्रारब्ध बताते हुए कठोरतापूर्वक विधि का विधान बता देना। परंतु फिर अपनी शिष्या को एक मार्ग सुझाते हैं, साथ ही सेवाधर्म से जुड़ा। ज्ञानयज्ञ का कार्य भी बताते हैं। सत प्रयासों के बाद पात्रता विकसित हुई, मुन्नी देवी इस योग बनीं कि उनके गर्भ में संतान आए एवं विधि का विधान समर्पण भाव ने उलट दिया। गुरु के पत्र की भाषा से वे टूट भी सकती थीं और हो सकता कोई और गुरु कर लेतीं। किंतु बताई गई साधना-आराधना का सुखद परिणाम निकला।
एक पत्र राजनीति से संबंधित है। ये सज्जन चुनाव हार गए थे, निराशा में गुरुवर को पत्र लिखा। परमपूज्य गुरुदेव ने इन सज्जन श्री बद्रीप्रसाद पहाड़िया जी को 3/11/43 को लिखा, ‘आपका पत्र मिला। हार जाने का समाचार ला। बीस-पच्चीस वोट आपको अधिक मिल सकते थे, शायद मिले भी थे। पर चूँकि आपके लिए वह कार्य उपयुक्त न था। आपका जीवन लक्ष्य दूसरा है। एक ही दिशा में मनुष्य की प्रगति ठीक प्रकार हो सकती है, इसलिए कई तरफ पैर फस जाने पर उन्नति रुक जाने का भय रहता है। आपको शेष जीवन में बहुत भारी काम करने हैं। बच्चों को काम से लगाकर आपको गृहस्थ छोड़ना है और जीवन का शेष भाग धर्म-प्रचार में लगाना है। राजनैतिक उलझन आपको इस मार्ग में बढ़ने में कोई सहायता न पहुँचाती। इसलिए आपके जीते हुए वोट शुमार में कम बैठे। माता की ऐसी ही इच्छा थी। आशा है, आप इसे अपनी असफलता नहीं सफलता मानेंगे।’
कितना बढ़िया स्पष्टीकरण है हारने का। यदि ये हारते नहीं तो इन्हें बोध नहीं होता कि गुरुसत्ता ने कितना बड़ा कार्य उनके लिए उनके संस्कारों-पात्रता के अनुरूप सँजोकर रखा है। दोनों की जोड़ी ठीक बनी। यह संबंध 1993 तक चला। जब पहाड़िया जी ने निरंतर चौबीस वर्ष शाँतिकुँज के निर्माण से आगे तक साथ रह यहीं शरीर छोड़ा। आखिरी समय तक फिर वे भगवान् के ही काम में लगे रहे।
इसी तरह का एक पत्र श्री बी एल. गुप्ता जी को लिखा यहाँ उद्धृत है। वे सरकारी मशीनरी के कार्य करने की शैली से क्षुब्ध थे। ध्यान रहे जब यह पत्र लिखा गया, आजादी को मात्र दस वर्ष हुए थे। पर परमपूज्य गुरुदेव ने अपने शिष्य को कितना मार्मिक मार्गदर्शन दिया है, यह देखें। 2/5/56 को श्री गुप्ता जी को लिखे पत्र में वे लिखते हैं।
सरकारी मशीन आपके ही क्षेत्र में नहीं, संपूर्ण देश में बुरी तरह भ्रष्ट हो रही है। चेचक की एक फुंसी पर पट्टी बाँधने से कुछ समस्या हल होने वाली नहीं है, काँग्रेस में यह साहस दीखता नहीं कि इस कोढ़ी मशीनरी को शुद्ध करे या संक्रामक रोगियों की तरह इन्हें हटा दे। उसके तो आधार यही लोग बने हुए हैं। ऐसी दशा में जनक्राँति ही एकमात्र तरीका दीखता है, जो उस तंत्र का नए सिरे से निर्माण करे। संभव है कम्यूनिस्ट इस कार्य को पूरा करें। आज जो कुछ हो रहा है, उसकी 3-4 घटनाएँ आपने लिखी, पर यह तो एक व्यापक गतिविधि का छोटा-सा दृश्य मात्र है।
आप बहुत भावुकता में न बहें। आप कुछ सुधार न कर सकेंगे। हाथ-पैर पीटेंगे, तो खुद ही जोखिम उठाएँगे। इसलिए समय की प्रतीक्षा करें। जितना आसान हो उतना ही करें।
काम करने का समय कुछ दिन बाद आएगा। अभी अपनी स्थिति बचाए रहना ही पर्याप्त है। आप वकालत भी चालू रखें। बेवक्त के लिए दो पैसे पीछे पड़े रहें, ऐसा प्रयत्न करें। जनता की सच्ची सेवा करने में अभी तो सरकारी तंत्र सहायक नहीं, बाधक ही है। आप किसी प्रकार काम चलाते रहने की नीति ही अभी रखें। समयानुसार ही ठोस कार्य संभव होगा।
गुप्ताजी ने जो स्थिति लिखी, मनोव्यथा बयान की, वह किसी भी आदर्श देशभक्त व्यक्ति की हो सकती है। सरकारी कार्य में भ्रष्टाचार, मात्र दस वर्षों में ही स्वप्नों का टूट जाना, बड़े व्यापक स्तर पर अराजकता उन्हें चुभ रही थी तो उन्होंने लिख भेजा। जवाब जो मिला, वह आपके समक्ष है। गुरुदेव प्रत्यक्ष लिख रहे हैं मई 1958 में कि जनक्राँति ही एकमात्र तरीका है। इस तंत्र का नए से से निर्माण करना होगा। भावुकता में बहने से काम न चलेगा। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। समय की प्रतीक्षा करना। अवसर आने पर (कुछ दिन बाद समय आएगा। चुस्ती से जुटना ही इस समय का युगधर्म है, यह योगेश्वर श्रीकृष्ण के रूप में वे अपने शिष्य को समझा रहे हैं। बड़ी व्यावहारिक सलाह भी दी है कि अभी तो बेवक्त के लिए कुछ पैसे एकत्र कर लें, सरकारी तंत्र से लड़ने की न सोचें। यह मार्गदर्शन सच्चे मित्र से अधिक और कौन दे सकता है। गुरु से बड़ा कोई सच्चा मित्र हो भी नहीं सकता।
एक और पत्र श्री सुमंत कुमार मिश्र को लिखा गया है, जिसे पूज्यवर ने सूत्र रूप में लिखा है। देखें, इस 16-22-1949 के लिखे पत्र को बावन वर्ष बाद की समयावधि में। हमारे आत्मस्वरूप,
इन दिनों कन्या के विवाह (गुरुदेव की बड़ी पुत्री दयावती) में अत्यधिक व्यस्त होने से आपके पत्र का संक्षिप्त उत्तर दे रहा हूँ।
आप उत्तेजना एवं भावुकता के सहारे जीवन के प्रश्नों को हल करने का प्रयत्न न करें। जीवन एक बड़ी नीरस एवं कठोर सचाई है। आप बुद्धिमानी, व्यवहारकुशलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर भावी जीवन का सुव्यवस्थित क्रम बनाएँ।
पुस्तकालय साधारण रीति से चलने दें। वह वटवृक्ष की भाँति आयु के अनुसार बढ़ेगा और फलेगा-फूलेगा।
पैसा कमाना कोई गुनाह नहीं है । वह दैनिक जीवन की कठोर आवश्यकता है। आप शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक सभी उन्नतियों की बात सोचा करें।
शिक्षा को बीच में लटकता छोड़ बैठना उचित न होगा। जब इतना पढ़े ही हैं, तो बोर्ड का सरकारी प्रमाण-पत्र प्राप्त करने तक उसे पूरा ही कर लीजिए। बाद में जो शिक्षा या कार्यप्रणाली उपयोगी हो, उसे अपना लें।
घरवालों से जितना कम विरोध लेकर आप चलेंगे, उतनी ही आपको सुगमता रहेगी।
मथुरा आपका घर है, कभी भी आ सकते हैं, पर अधिक लोगों को साथ लाने की अपेक्षा अकेले या एकाध साथी सहित आना आपके हित में रहेगा।
दार्शनिक, विवेचनात्मक प्रश्नों का हल पत्र-व्यवहार में नहीं हो सकता। इसके लिए हमारा साहित्य पढ़ना या प्रत्यक्ष वार्तालाप करना ही मार्ग है।
आशा है कि आप सकुशल होंगे।
श्रीराम शर्मा आचार्य
पूरे पत्र को सभी पाठक पढ़ें व देखें कि इसमें उनके कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हैं कि नहीं। जीवन क्या है, कैसे जीना चाहिए, शिक्षा क्यों जरूरी है? व्यावहारिक जगत् में घरवालों के साथ कैसे दिल मिलकर रहें, यह सारी जिज्ञासाएँ सूत्र रूप में एक लंबे पत्र के छोटे उत्तर के रूप में लिख दी गई हैं। यही पत्राचार की शैली तो है, जिसने लाखों को गुरुवर के स्नेह-सूत्रों में आबद्ध, उनसे जुड़े रहने को विवश कर दिया। काश। हम भी कुछ प्रेरणा लेते इन पत्रों से।