धर्म को हराने की चेष्टा (kahani)

August 2001

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बात सन् 1936 की है। गाँधी जी अस्पृश्यता निवारण के लिए देशभर में दौर कर रहे थे। उड़ीसा के एक कस्बे में गाँधीजी ठहरे हुए थे कि पंडितों का एक दल उनसे शास्त्रार्थ करने आ गया। कह रहा था, शास्त्र में अस्पृश्यता का समर्थन है।

गाँधी जी ने मंडली को सम्मानपूर्वक बैठाया और कहा, मैं शास्त्र तो पढ़ा नहीं हूँ, इसलिए आप से हार मान लेता हूँ। पर यह विश्वास करता हूँ कि संसार के सब शास्त्र मिलकर भी मानवी एकता के सिद्धांत को झुठला नहीं सकते। मेरा धर्म तो यही है एवं मैं इस पर अडिग हूँ और जीवनभर रहूँगा।

दिल्ली में एक संत थे, हजरत निजामुद्दीन। उनके यहाँ ईश्वर की वंदना वाला संगीत चलता ही रहता था।

उन दिनों दिल्ली के बादशाह थे गयासुद्दीन तुगलक। उन्होंने संत को गाना-बजाना बंद करने का हुक्म भेजा। संत ने फरमान मानने से इनकार कर दिया।

तुगलक ने सीधा दंड तो न दिया, पर उन्हें हैरान करने की ठानी।

निजामुद्दीन एक बावड़ी बनवा रहे थे। उसमें लगे मजदूरों को उन्होंने किले में काम करने के लिए बुला लिया, ताकि बावड़ी का काम रुक जाए।

मजदूर दिन में किले का काम करते और रात को चुपके से बावड़ी बनाने जा जाते।

रात को दिए की जरूरत पड़ती। तेल के ढेरों दिए जलते और बावड़ी बनती।

तुगलक ने हुक्म दिया, हजरत के हाथों कोई तेल न बेचे।

हजरत ने पानी भरकर दिए जलाना शुरू कर दिया और बावड़ी बनती रही।

इस चमत्कार से तुगलक का सिर नीचा हो गया । बावड़ी पूरी होने तक पानी के चिराग जलते ही रहे। तब से उस बावड़ी का और दरगाह का नाम चिराग निजामुद्दीन पड़ गया।

धर्म के मार्ग पर चलने वालों को कोई बाधा रोक नहीं सकती। स्वयं परमसत्ता उसके साथ-साथ चलती है। धर्म को हराने की चेष्टा करने वाले की अंततः हार होकर ही रहती है।


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