सूरज आकाश में होकर गुजर रहा था, तो उसने सुना कि कुछ लोग इकट्ठा होकर उसे देवता न कहकर आग का गोला मात्र बता रहे हैं। इस पर सूरज को बड़ा बुरा लगा और उसने दूसरे दिन अपने रथ पर चढ़कर जाने से इनकार कर दिया।
संसार में हलचल मच गई। प्रभात होने में देर होते देखकर सभी चिंता में डूब गए। कारण जानने और बाधा को हटाने के लिए प्राची से कहा गया। प्राची ने सूरज की बहुत कुछ प्रशंसा और अभ्यर्थना की और उसे सदा की भाँति रथ पर चढ़कर जाने के लिए मनाया।
सूरज बोला, ‘जिन लोगों का अनादिकाल से मैं इतना उपकार कर रहा हूँ, वे मुझे आग का गोला कहें, तो ऐसे कृतध्यों का अब मैं मुँह भी न देखूँगा। अब मैं यात्रा पर जाना ही नहीं चाहता।’
प्राची ने उसे समझाया, ‘लोक दृष्टि तो बालकों द्वारा फेंके गए पत्थरों के समान है। विचारशील समुद्र की तरह गंभीर होते हैं, फेंके हुए पत्थर उसके गर्भ में विलीन हो जाते हैं। पर अहंकारी कच्चे घड़े के समान होता है, जो छोटे-से आघात को भी सहन नहीं कर सकता और जरा-सी चोट से टूटकर छितरा जाता है। आपको क्षुद्र कच्चे घड़े की तरह नहीं वरन् गंभीर समुद्र की तरह ही व्यवहार करना चाहिए।
सूरज विचारों में डूब गया। उसे यात्रा के लिए रक्ष पर सवार होकर जाना ही उचित जान पड़ा।