श्री अरविंद का ‘अतिमानसिक रूपांतरण’

August 2001

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‘धरती पर दिव्य जीवन का अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का विकास’ श्री अरविंद के दर्शन का मुख्य लक्ष्य है। मानव शरीर में मन का उदय हुआ तो वह मानव कहलाया, परंतु शरीर इसके लिए उपयुक्त नहीं था। इसी तरह वर्तमान मानव-देह दिव्य मन की क्रिया के लिए एक उपयुक्त उपकरण नहीं है। इस प्रयोजन हेतु इस शरीर का दिव्य रूपांतरण आवश्यक है। यह प्रक्रिया अध्यात्म जगत् में एक नवीन क्राँति है। श्री अरविंद इसके सूत्रधार हैं। श्री अरविंद ने रूपांतरण की इस प्रक्रिया को त्रिविध रूपांतरण का नाम दिया है। यह आत्मिक (चैत्य), आध्यात्मिक और अति मानसिक रूपांतरण है।

मनुष्य के अंदर आत्मा होती है, इसे अंतरात्मा कहते हैं। श्री अरविंद इसे चैत्य तत्व कहते हैं। चैत्य पुरुष या अंतरात्मा परमात्मा का अंश है। शरीर , प्राण, मन आदि इसके उपकरण मात्र है। अंतरात्मा का मुख्य उद्देश्य है कि इन उपकरणों को इतना पवित्र एवं परिष्कृत कर दें, ताकि ये परमात्मा की दिव्य ज्योति एवं आनंद को ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर सकें। चैत्य पुरुष केवल मनुष्य में क्रिया प्रारंभ करता है। पशु योनि तक तो प्रकृति की शक्ति ही उसके समस्त परिवर्तन में जिम्मेदार होती है, चैत्य पुरुष उसमें भाग नहीं लेता है।

चैत्य पुरुष सात्विकता में ही अधिक क्रियाशील होता है। तमोगुण एवं रजोगुण की प्रबलता में इसका प्रभाव अत्यंत क्षीण एवं न्यून होता है। यह अज्ञानपूर्ण क्षेत्र में प्रकाशपुँज के रूप में अवतरित होता है। जैसे-जैसे इसका प्रभाव प्रबल होता है, इसे मन, प्राण और शरीर से भिन्न रूप में अनुभव किया जा सकता है। इसका लक्षण है चरित्र, चिंतन एवं व्यवहार में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता का समावेश। चैत्य पुरुष का यह प्रभाव सत्य, शुभ, सुँदर, परिष्कृत और श्रेष्ठ होता है। इस स्थिति में अवस्थित साधक अपने विचारों, भावनाओं, आचरण एवं चरित्र में गठित करने के लिए मन एवं प्राण पर एक दबाव अनुभव करता है।

चैत्य पुरुष आगे चलकर शरीर, प्राण और मन का नेतृत्व एवं नियंत्रण करने लगता है। इससे मानव की निम्न प्रकृति बदलने लगती है। मन में अंतर्दर्शन तथा प्राण में अंतर्वेग की अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है।

सभी क्रियाकलाप भगवान् की ओर उन्मुख हो जाते हैं। कण-कण में उसे एक परमात्मसत्ता की लीला दिखाई देने लगती है। अंतर में श्रद्धा और समर्पण का भाव विकसित होने लगता है। यही चैत्य-रूपांतरण है।

चैत्य-रूपांतरण में अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाने से अनंत और असीम का दर्शन होता है। मन अपने ऊपर के स्तर शुद्ध, शाँत और अंतहीन आत्मा के दिव्य प्रदेश में प्रवेश कर जाता है। वहाँ पर उसे दिव्य ज्योति और आनंद के साथ भगवत् सत्ता की उपस्थिति का बोध प्राप्त होता है। मन के ऊपर उठने की इस प्रक्रिया को आरोहण कहते हैं। मन के आरोहण करने पर उस प्रदेश में दिव्य प्रेम, सौंदर्य और ज्योतिर्मय ज्ञान का अनुभव होता है। इस प्रभाव से मन इतना आकर्षित एवं वशीभूत हो जाता है कि वह वहाँ पर अस्थाई रूप से अवस्थित हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप उन स्तरों से मानव प्रकृति में उन अनुभूत तत्वों का अवतरण प्रारंभ होता है, इसे अवरोहण कहते हैं। सर्वप्रथम यह अवतरण मन में होता है और फिर प्राण में तथा शरीर को भी अपने प्रभाव क्षेत्र में कर लेता है। शारीरिक चेतना इसके प्रभाव में आकर विशाल, नमनशील और अनंत हो जाती हैं।

भगवत् चेतना के अवतरण से शारीरिक अंगों पर भगवान् की उपस्थिति का अनुभव होता है। यह अनुभव भागवत् उपस्थिति के रूप में होता है। यह अपनी सत्ता में शक्ति और आनंद के रूप में क्रिया करती है और सदैव बनी रहती है। समस्त दृश्यों और रूपों में भगवत् दर्शन होता है। समस्त शब्दों में उसका श्रवण होता है। समस्त स्पर्शों में एक उसी का स्पर्श होता है। सर्वत्र एक उसी प्रियतम के रूप, व्यक्तित्व और अभिव्यक्तियों की झलक मिलती है। हृदय में प्रेम और भक्ति जाग्रत् हो जाती है। समस्त प्राणियों में अपना ही रूप दिखाई देता है। इस प्रकार मानव चेतना पूर्णतया अध्यात्म सत्ता की चेतना में परिवर्तित हो जाती है। इसे ही आध्यात्मिक रूपांतरण कहते है। आध्यात्मिक रूपांतरण में मन, प्राण और शरीर में आध्यात्मिक परिवर्तन होता है। इस रूपांतरण में उच्चतर मन से लेकर अधिमन स्तर तक ज्योति और शक्ति का अवतरण होता है। परंतु इतने भर से दिव्य रूपांतरण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती।

इसका एकमात्र समाधान एवं विकल्प है अतिमन। यही दिव्य रूपांतरण के लिए सक्षम एवं समर्थ है।

दिव्य रूपांतरण हेतु मन प्रथम उपकरण है। मन ज्ञान को खोजता है। ज्ञान ही प्रकाश है। मन सर्वोच्च शक्ति के ज्ञानरूपी प्रकाश का अनुसंधान करता है। यही ज्ञान सबका आधार एवं आत्मा और पदार्थ का मूलभूत सत्य है। यह ज्ञान सृष्टि के संपूर्ण सत्य का एकमात्र सत्य है। विचार शक्ति के रूप में मन सृष्टि के रहस्य को अवतरित करता है एवं उसमें प्रवेश करता है। रूपांतरण के महाभियान हेतु केवल ज्ञान ही एक साधन है।

रूपांतरित जीवन के परिप्रेक्ष्य में श्री अरविंद ‘दिव्य जीवन’ में सुँदर वर्णन करते है, ‘विज्ञानमय प्राणी की आत्मा में मनोमय अहंकार नहीं होगा, अपितु वह आत्मा होगी जो सबमें एक है। वह प्राणी जगत् को आत्मा के विश्वात्मक रूप में देखेगा। यह ज्ञान सबके साथ तादात्म्यकरण के द्वारा विशाल और सुनिश्चित अंतर्भास को लाएगा। इसके अतिरिक्त उसे एक ऐसा साक्षात् अंतरंग ज्ञान होगा कि प्राण और शारीरिक इंद्रियों का उनकी क्रिया के और आत्मा की सेवा के निमित्त प्रत्येक पग पर पथ-प्रदर्शन करेगा। ‘ श्री अरविंद आगे कहते हैं, रूपांतरित मन अपने विषय को ज्ञात विषय के साथ बहिर्व्यापी और अंतर्व्यापी तादात्म्य करके तुरंत जान लेता है।

जिस प्रकार मन प्रकाश को, ज्ञान को खोजता है और ज्ञान के द्वारा प्रभुत्व प्राप्त करने का प्रयास करता है, उसी प्रकार प्राण अपनी निजी शक्ति का परिवर्द्धन करना और शक्ति के द्वारा अधिकार करना चाहता है। प्राण की खोज का विषय है, शक्ति, विजय का अधिकार, तृप्ति, रचना, हर्ष, प्रेम, सौंदर्य आदि। अस्तित्व संबंधी उसका हर्ष, कर्म, अनंत प्रकाश के सुखभाव में अपनी शक्ति की बलवती इच्छा में निहित है। विज्ञानमय परिवर्तन इन सबको पूर्णतम रूप में अभिव्यक्त कर सकेगा।

परिवर्तित प्राण मानसिक या प्राणिक अहंकार की शक्ति, तृप्ति या भोग के लिए क्रिया नहीं करेगा। इस प्राण का यह अर्थ होगा कि भागवत् उपस्थिति ज्योति, शक्ति, प्रेमा, आनंद और सौंदर्य व्यक्ति व जगत् पर अपने अधिकार को बढ़ाते जाएँगे। विज्ञानमय प्राण के लिए प्रेम का अर्थ होगा, आत्मा को आत्मा के साथ, ब्रह्म का ब्रह्म के साथ संपर्क, अंतरात्मा की अंतरात्मा के साथ अंतरंगता, समीपता, निकटता का असीम आनंद।

अतिमानस रूपांतरण में मन-प्राण के अलावा शरीर भी गंभीर भूमिका का निर्वहन करता है। शास्त्रों में शरीर को धर्म का स्थान माना गया है। परंतु साथ ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति में बाधक भी माना गया है। श्री अरविंद की दृष्टि से शरीर का दिव्य रूपांतरण किया जा सकता है। अतिचेतन, अतिमन की क्रिया के लिए यह वर्तमान मानव देह उपयुक्त नहीं है। इस प्रयोजन हेतु इस देह का दिव्यीकरण या अतिमानस रूपांतरण आवश्यक है।

शरीर के दिव्य रूपांतरण में अनेकों कठिनाइयाँ हैं। इसमें पहली बाधा है, आहार। इस बाधा पर तभी विजय प्राप्त की जा सकती है, जब मनुष्य भोजन के बजाय अपने आसपास के वातावरण से ऊर्जा ग्रहण कर ले। शरीर को दिव्य बनाने में दूसरी बाधा है, काम-वासना। मानवजाति को अस्तित्व में बनाए रखने के लिए मानव शरीर में एक काम-केंद्र का निर्माण किया गया है। जिसका मुख्य स्थान है, ‘मूलाधार’।

अमैथुनी सृष्टि द्वारा ही इस कार्य से मुक्ति पाई जा सकती है। योग दर्शन ने यह माना है कि योगी अपने लिए अपने संकल्प से नवीन देहों का निर्माण कर सकता है। श्री अरविंद ने ‘सुप्रामेंटल मैनीफैश्ट्रेशन’ में इस तथ्य को इस तरह उल्लेख किया है, हमारे स्थूल भौतिक द्रव्य और प्राण के बीच में सूक्ष्म भौतिक तत्व रहता है। जिस मनुष्य के मन का अतिमानसिक रूपांतरण हुआ है, वह उस सूक्ष्म तत्व में किसी विशेष आकर का निर्माण कर सकेगा और वह आकार माता के गर्भ में आए बिना भी स्थूल आकार धारण कर लेगा।

रूपांतरण के इस क्रम में शरीर के भीतर सूक्ष्म इंद्रियाँ प्रायः सुप्तावस्था में रहती हैं, अतिमानस का रूपांतरण होने पर वे जीवंत और जाग्रत हो जाएँगी। चक्षु में समग्रता और सर्वग्राही सुस्पष्टता आ जाएगी। इससे वह दिव्य कवि और कलाकार की दृष्टि प्राप्त कर लेगा। उसमें एक ऐसी तीव्रता आ जाएगी कि वह एक साथ पदार्थ के गुण, रूप, रंग और भाव को देख लेगी। स्थूल चक्षु में पदार्थ के भौतिक पक्ष के साथ-साथ उसके भीतर के गुण की आत्मा और आध्यात्मिक द्रव्य को देखने की क्षमता आ जाएगी। इस प्रकार स्थूल पदार्थों के द्वारा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का दर्शन हो सकेगा। सभी पदार्थों में ब्रह्म का दर्शन होगा। दृष्टि में एक ऐसी आँतरिकता आ जाएगी कि वह पदार्थ के केवल स्थूल रूप को ही नहीं, अपितु उसे भी देखेगी, जो उसे अनुप्राणित करता है और सूक्ष्म रूप से उसके सभी ओर फला रहता है।

ऐसी समग्रता, एकता और आँतरिकता श्रवण-स्पर्श आदि इंद्रियों में भी जाएगी। समस्त शब्दों में ब्रह्म की ध्वनि सुनाई देगी। समस्त स्पर्शों में भगवान् का स्पर्श अनुभव होगा। शारीरिक अंगों में इस प्रकार अतिमानस रूपांतरण होने पर बहुत-सी शक्तियाँ प्रकट हो जाएँगी। गुरुत्वाकर्षण पर सफलता मिल जाने से शरीर हल्का होकर वायु में उड़ सकता है।

शरीर की प्रत्येक कोशिका और ऊतक में अतिमानस चेतना और आनंद व्याप्त हो जाएँगे। इससे बिना किसी इंद्रिय भोग के अत्यंत सहज आनंद की अनुभूति होगी। यह शरीर ज्योतिर्मय होगा और रोग, बुढ़ापा, मृत्यु से मुक्त होगा। आत्मा अपनी इच्छानुसार शरीर का परित्याग करेगी और मानव नवीन शरीर को निर्माण कर लेगा। रोग आदि के कारण शरीर को नहीं छोड़ना पड़ेगा।

यह त्रिविध रूपांतरण अतिमानसिक योग की चरम प्राप्ति है। महायोगी गोरखनाथ, अल्लामा महाप्रभु जैसे कतिपय योगियों ने इसे अपने जीवन में चरितार्थ भी किया है। इस चरम अवस्था को प्राप्त करना भले ही सर्वजन सुलभ न हो। फिर भी हर कोई इसका प्रारंभ अपने चरित्र, चिंतन एवं व्यवहार के सात्विक बदलाव से कर सकता है। यह बदलाव ही क्रमिक रूप से शनैः-शनैः अतिमानसिक रूपांतरण को सिद्ध करने वाला होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।


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