श्रम-उपार्जन के सहारे (kahani)

August 2001

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गुलाब का पौधा कुछ सीखने के उद्देश्य से एक व्यक्ति के पास पहुँचा। उस व्यक्ति ने सिखाया, जो जैसा व्यवहार करता है, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। दुष्ट के साथ दुष्टता करना ही नीति है। यदि ऐसा न किया गया, तो संसार तुम्हारे अस्तित्व को मिटाने में लग जाएगा।

गुलाब ने उसकी बात गाँठ बाँध ली। घर लौटकर आया और अपनी सुरक्षा के लिए काँटे उत्पन्न करने लगा। जो कोई उसकी ओर हाथ बढ़ाता, वह काँटे छेद देता था।

कुछ दिनों बाद उस पौधे को एक साधु से सत्संग करने का अवसर मिला। साधु ने उसे बताया, ‘परोपकार में अपनी जीवन को खपाने वाले से बढ़कर सम्माननीय कोई दूसरा नहीं होता ।’

परिणामस्वरूप गुलाब ने उसी दिन अपने प्रथम पुष्प को जन्म दिया। उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलने लगी। जो भी पास से गुजरता, कुछ क्षण के लिए उसके सौंदर्य तथा सुरभि से मुग्ध हुए बिना न रहता।

राजा जनक महल की छत पर सोए हुए थे। हंस-हंसिनी अटारी की मुँडेर पर बैठे वार्तालाप करने लगे। हंसिनी बोली, ‘इन दिनों सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी राजा जनक हैं।’ हंस ने बात काटकर कहा, ‘तुम रैक्स को नहीं जानतीं। अपने समय के वे ही सबसे बड़े ब्रह्म-ज्ञानवेत्ता हैं।’ हंसिनी ने पूछा, ‘भला कौन है रैक्स?’ हंस ने उत्तर दिया, ‘अरे वह गाड़ी वाला रैक्स, जो गाड़ी खींचकर बोझ ढोता और अयाचित वृति से निर्वाह करता है।’

जनक अधजगे थे। वे पक्षियों की भाषा जानते थे। हंस-हंसिनी की वार्ता ध्यानपूर्वक सुनने के निमित्त करवट बदलने लगे। आहट पाकर हंस-युग्म चौकन्ना हुआ और उड़ गया। बात अधूरी रह गई।

राजा को नींद नहीं आई। रैक्स कौन हैं? कहाँ रहते हैं? उनसे संपर्क कैसे सधे? यह विचार उन्हें बेचैन किए हुए था। सवेरा होते ही दरबार लगा। राजा ने सभासदों से गाड़ी वाले रैक्स को ढूँढ़ निकालने का आदेश दिया।

बहुत दौड़-धूप के बाद रैक्स का पता चला। राजदूतों ने उनसे जनकपुर चलने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। मुझे राजा से क्या लेना-देना । अपना प्रस्तुत कर्तव्य पूरा करूं या इधर-उधर भागता फिरुँ।

दूतों ने सारा विवरण जा सुनाया। जनक स्वयं ही चल पड़े और वहाँ पहुँचे, जहाँ रैक्स गाड़ी खींच-धकेलकर निर्वाह चलाते और साधना-सेवा का समन्वित कार्य करते है।

राजा ने इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी को ऐसा कष्टसाध्य जीवनयापन करते देखा, तो द्रवित हो उठे। सुविधा-साधनों के लिए उन्होंने धनराशि प्रस्तुत की।

अस्वीकार करते हुए रैक्स ने कहा, ‘राजन्। यह दरिद्रता नहीं अपरिग्रह है, जिसे गँवा बैठने पर तो मेरे हाथ से ब्रह्म तेज भी चला जाएगा।’

तत्वज्ञान के अनेक मर्म-रहस्यों को सत्संग में जानने के उपराँत जनक यह विचार लेकर वापस लौटे कि विलासी नहीं, अपरिग्रही ही सच्चा ब्रह्मज्ञानी हो सकता है, उन्हें नई दिशा मिली। उस दिन से उन्होंने अपने हाथों कृषि करने, हल चलाने की नई योजना बनाई और श्रम-उपार्जन के सहारे निर्वाह करते हुए राजकाज चलाने लगे।


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