श्रयरोग-उन्मूलन की विशिष्ट यज्ञोपचार प्रक्रिया-(7)

August 2001

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पिछले अंक में सरदी, जुकाम, खाँसी, श्वास या दमा आदि रोगों को दूर करने की अनुसंधानपूर्ण यज्ञ-चिकित्सा का वर्णन किया जा चुका है। इस अंक में श्रय, राजयक्ष्मा या टी.बी. चेचक, खरा जैसी कुछ प्राणघातक बीमारियों के संबंध में विस्तारपूर्वक बताया जा रहा है कि कि तरह से यज्ञोपचार प्रक्रिया द्वारा इन्हें दूर किया और स्वस्थ रहा जा सकता है। इस संबंध में प्राचीनकाल से ही वेद, पुराण एवं आयुर्वेद ग्रंथों में विस्तृत उल्लेख मिलता है। प्रख्यात आयुर्वेदिक ग्रंथ चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के ‘राजयक्ष्मचिकित्सत्’ नामक आठवें अध्याय के 193वें श्लोक में कहा गया है-

प्रयुक्तया यया चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा जितः। ताँ वेद विहितामिष्टिमारोग्गाथीं प्रयोजयेत्॥

अर्थात् जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीनकाल में राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था, आरोग्यता चाहने वाले मनुष्य को उसी वेदविहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए। तात्पर्य यह कि क्षय रोग के लिए यज्ञ चिकित्सा एक ऐसा महत्वपूर्ण एवं सर्वांगपूर्ण उपाय-उपचार हैं कि इसके पश्चात् किसी अन्य उपाय की आवश्यकता नहीं रहती।

वैज्ञानिक विश्लेषणों के अनुसार क्षयरोग कई तरह का होता है। उदाहरणस्वरूप फेफड़ों का क्षय, ग्रंथियों का क्षय, हड्डियों का क्षय (बोन टी.बी), मस्तिष्क के आवरण का क्षय, उदर या आँतों का क्षय, त्वचा का क्षय, रीढ़ की हड्डी का क्षय, उत्पादक एवं मूत्रवाहक अंग संबंधी क्षय आदि कई प्रकार के क्षय रोगियों का निर्धारण रोगवाहक जीवाणुओं-विषाणुओं की गहन जाँच-पड़ताल के बाद किया जाता है और उसी के अनुरूप चिकित्सा की जाती है। प्रायः देखा जाता है कि रोगी व्यक्ति की असावधानी, बदपरहेजी एवं द्रव दवा की पूर्ण निर्धारित खुराक न लेने पर फिर से दुबारा वही रोग उभर आता है और जानलेवा साबित होता है। यज्ञ चिकित्सा में उक्त सभी प्रकार के क्षय रोगों को समूल नष्ट करने की क्षमता विद्यमान है। इस संबंध में वेद भगवान् आशापूर्ण शब्दों में आदेश देते हैं कि हे रोगिन। हवियों के क्षरा क्षय रोग से मैं तुमको छुड़ाता हूँ। अथर्ववेद काँड 3, दीर्घायुप्राप्ति सूक्त 11, मंत्र प्रथम कहता है-

मुन्नवामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्। ग्राहिर्जग्राह यद्येतदेनं तस्या इंद्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम।

अर्थात् हे व्याधिग्रस्त। तुमको सुख के साथ चिरकाल तक जीने के लिए गुप्त यक्ष्मारोग और संपूर्ण प्रकट राजयक्ष्मा रोग से हवन के द्वारा छुड़ाता हूँ। हे इंद्रदेव और अग्निदेव। इस व्यक्ति को इस समय जिस पीड़ा या पुराने रोग ने जकड़ रखा है, उससे इसको अवश्य छुड़ाएँ। इससे अगला मंत्र जो कहता है, उसका भाव है, ‘यदि रोगग्रस्त मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या उसकी आयु क्षीण हो गई हो, तो भी मैं विनाश समीप से उसे वापस लाता हूँ और सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक के लिए सुरक्षित करता हूँ।’

इसी तरह अथर्ववेद के काँड-2, सूक्त 33 के ‘यक्ष्माविबर्हण सूक्त’ के सात मंत्रों में कहा गया है कि हे रोगिन्। आपके प्रत्येक अंग, प्रत्येक लोम और शरीर के प्रत्येक संधि भाग में जहाँ कहीं भी यक्ष्मा रोग का निवास है, यहाँ से हम उसे दूर करते हैं। इससे आगे काँड 9, सूक्त-95 एवं 128 यक्ष्मनाशन सूक्त में, गंडमाला चिकित्सा सूक्त 86 में हवन द्वारा क्षयरोग दूर करने का उल्लेख है।

क्षयरोग किन कारणों से उत्पन्न होता है? इसका स्पष्ट उल्लेख अथर्ववेद में काँड 9, सूक्त 96 में किया गया है। भावार्थ, ‘जो क्षयरोग पसलियों को तोड़ डालता है, फेफड़ों में जाकर बैठ जाता है, पृष्ठभाग के ऊपरी हिस्से में स्थित हो जाता है, अति स्त्री प्रसंग से उत्पन्न होने वाले उस क्षयरोग को हे यज्ञीय हवि। तू शरीर से बाहर निकाल दे। इस क्षयरोग को उत्पन्न करने वाले विषाणु पक्षी की भाँति हवा में उड़ते हुए एक से दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो उसे संक्रमित कर देते हैं। चाहे रोग ने जड़ जमा ली हो, चाहे जड़ न जमाई हो, हवि चिकित्सा दोनों की ही उत्तम चिकित्सा है। असंयमित जीवन जीने से उत्पन्न हे क्षय रोग। हम तेरी उत्पत्ति को जानते हैं, किंतु जिस घर में नाना प्रकार की औषधियों से या रोगनाशक हवि, चरु या अन्न आदि द्वारा हवन होता है, उस घर में तू कैसे पहुँच सकता है।’

प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए जो व्यक्ति नित्यप्रति नियमपूर्वक वनौषधि युक्त हवन सामग्री से गायत्री महामंत्र या सूर्य गायत्री मंत्र के साथ हवन करता है, वह कदापि रोगी नहीं हो सकता। यह वेदवर्णित मत है, जिसकी पुष्टि अब वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी हो चुकी है कि क्षयरोग तो ऐसे व्यक्ति के निकट फटकता तक नहीं। अथर्ववेद काँड-19, सूक्त-36, मंत्र 1-2 का इस संबंध में स्पष्ट आदेश है-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते। यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिगंधो अश्नुते॥

विष्वत्रतस्माद यक्ष्मा मृगा अश्वा इवेरते। यद गुल्गुल सैंधवं यद वाप्यासि समुद्रियम॥

अर्थात् ‘जिसके शरीर को औषधि रूप रोगनाशक गुग्गल का उत्तम गंध व्यापता है, उसको राजयक्ष्मा का रोग एवं दूसरों के द्वारा दिए गए अभिशाप स्पर्श तक नहीं करते। इस गुग्गुल की सुँगधि से यक्ष्मा आदि रोग उसी प्रकार सभी दिशाओं में पलायन कर जाते हैं, जिस प्रकार शीघ्रगामी अश्व और हिरन दौड़ जाते हैं।’

यज्ञोपचार द्वारा यक्ष्मा रोग को दूर करने का वर्णन पुराणों में भी मिलता है। लिंग पुराण 49, श्लोक 9 से 13 तक विभिन्न प्रकार के रोगों के शमनार्थ यज्ञोपचार का वर्णन है। यथा-

षण्मास तु घृतं हुत्वा सर्वव्याधिविनाशनम॥ राजयक्ष्मा तिनैर्होमान्नश्यते वत्सरेणु तु। यवहोमेन चायुष्यं घृतेन च जयस्तदा।

अर्थात् छह महीने तक घी का हवन करने से सब प्रकार की व्याधियों का नाश होता है। एक वर्ष तक तिल का हवन करने से राजयक्ष्मा अर्थात् टी. बी. का नाश होता है। जौ का हवन करने से आयुवृद्धि एवं घी के हवन से जय प्राप्त होती है।

इसी तरह देवीभागवत् 11/24/-26 में स्पष्ट उल्लेख है-

वचाभिः पयशक्ताभिः क्षयं हुत्वा विनाशयेत्। मधुत्रितयहोमेन राजयक्ष्मा विनश्यति॥

लताः पर्वसु विच्छिद्य सोमस्य जुहुयादद्विजः। पोमे सूर्येण संयुक्ते प्रयोक्ताः क्षयशाँतये॥

अर्थात् दूध में बच को अभिषिक्त करके हवन करने से क्षयरोग दूर होता है। दूध, दही और घी इन तीनों को होमने से भी राजयक्ष्मा नष्ट होता है। अमावस्या के दिन सोमलता की डाली को गाँठों पर से अलग करके हवन करने पर क्षयरोग दूर हो जाता है।

इन मंत्रों से स्पष्ट है कि क्षयरोग चाहे प्रारंभिक अवस्था में हो अथवा बहुत बढ़ गया हो-चतुर्थ अवस्था में पहुँच गया हो, यहाँ तक कि उसके कारण रोगी बिलकुल मरणासन्न हो गया हो, तो भी यज्ञोपचार के द्वारा वह ठीक हो सकता है और सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है। अथर्ववेद काँड-3, दीर्घायु प्राप्ति सूक्त-11, मंत्र-4 की स्पष्टोक्ति है-

शंत जीव शरदो वर्धमानः शंत हेमंताच्छतमु वसंतान्। शतं इंद्रो अग्निः सविता बृहस्पतिः शतायुषा हविषाहार्षमेनम।

अर्थात् हे हवि चिकित्सा द्वारा क्षयरोग से आरोग्य लाभ किए हुए मनुष्य। तू दिनोदिन बढ़ता हुआ सौ शरदों तक, सौ हेमंतों तक और सौ वसंतों तक जीवित रह। वायु, अग्नि, सूर्य और बृहस्पति पूर्जन्य ने सौ वर्ष की आयु देने वाली हवि की सहायता से पुनः तुझे सौ वर्ष की आयु प्राप्त करा दी है।

यज्ञोपचार प्रक्रिया द्वारा क्षयरोग-निवारण के उपरोक्त वैदिक प्रमाणों को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने अपने गहन अनुसंधानों एवं प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर प्रमाणित सिद्ध कर दिखाया है। पाया गया है कि सुदृढ़ भावना के साथ सूर्य गायत्री मंत्र से विशिष्ट प्रकार से बनी हवन सामग्री के साथ किया गया हवन आरंभिक अवस्था से लेकर असाध्य स्थिति तक पहुँचे यक्ष्मा, टी. बी. रोग को समूल नष्ट करने में समर्थ है। सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार है-

ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यो प्रचोदयात्।

क्षय रोग की विशेष हवन सामग्री-

इसके लिए जिन औषधियों को बराबर मात्रा में लिया जाता है, वे इस प्रकार हैं (1) रुदंती (2) रुद्रवंती (3) शरपुँखा (4) जावित्री (5) विल्व की छाल (6) छोटी कंटकारी (7) बड़ी कंटकारी (8) तेजपत्र (9) पाढल (10) वासा (11) गंभारी (13) श्योनाक (14) प्रश्निपर्णी (15) शालिपर्णी (16) शतावर (17) अश्वगंधा (18) जायफल (19)

नागकेशर (20) शंखाहुली (21) नीलकमल (22) लौंग (23) जीवंती (24) कमलगट्टा की गिरी (25) मुनक्का (26) केशर-यथाशक्ति।

इन सभी 26 चीजों का जौकुट पाउडर बनाकर हवन करने के लिए अलग डिब्बे में रख लेना चाहिए, साथ ही इन्हीं को मिलाकर बनाए गए सूक्ष्म एवं कपड़छन पाउडर को सुबह-शाम खाने के लिए एक अन्य डिब्बे में अलग कर लेना चाहिए। खाने वाले बारीक पाउडर को हवन करने के पश्चात् सुबह एवं शाम को एक-एक चम्मच घी एवं शक्कर के साथ नियमित रूप से लेते रहने से शीघ्र लाभ मिलता है। क्षय रोगी को ठंडी एवं खट्टी चीजों का परहेज अवश्य करना या कराना चाहिए।

हवन करते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि अखंड ज्योति के पिछले अंकों में वर्णित हवन सामग्री नंबर (1) को, जिसमें अगर, तगर, देवदार, चंदन, रक्त चंदन, गुग्गुल, लौंग, जायफल, गिलोय, चिरायता और धी, जौ, तिल, शक्कर अश्वगंधा मिले होते है, उसे भी क्षय रोग के लिए बनाई गई विशेष हवन सामग्री में बराबर मात्रा में मिलाकर तब हवन करना चाहिए। जहाँ तक हो सके, हवन के लिए क्षीर वृक्षों की समिधा का चयन करना चाहिए जैसे-पीपल, गूलर, पाकर, पलाश, शमी, देवदार, सेमल या आम की छालयुक्त सूखी समिधा। इस प्रकार की समिधाओं एवं हवन सामग्री के निरंतर प्रयोग से क्षय रोग को समूल नष्ट किया और दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है। क्रमशः।


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