महत्व विद्वता का नहीं, पवित्र भावनाओं का

August 2001

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महाराज विवेकनिधि राजा होते हुए भी अतिशय धर्मपरायण एवं ईश्वरभक्त थे। उनकी पुत्री का नाम सुप्रज्ञा था। राजकुमारी भी अपने पिता की भाँति बड़ी धर्मपरायण थी। राजा भी अपनी इस पुत्री के प्रति अति स्नेह रखते थे। एक बार उन्होंने राजकुमारी के जन्मदिवस के अवसर पर एक बड़े प्रीतिभोज का आयोजन किया। इस आयोजन में उन्होंने राज्य के बड़े-बड़े लोगों को आमंत्रित किया। प्रीतिभोज आरंभ करने के पूर्व राजकुमारी सुप्रज्ञा ने धार्मिक परंपरा के अनुसार विशिष्ट अतिथियों के आदर-सत्कार का मन बनाया। वह पूजा की थाली लिए खड़ी हो गई और चारों ओर बैठे अतिथियों को ध्यान में निहारने लगी। एक ओर नगर के प्रमुख विद्वान् एवं धनाढ्य लोग कीमती वस्त्रों से अलंकृत थे, तो दूसरी ओर एक कोने में कुछ साधु-महात्मा आँखें बंद किए अपनी मस्ती में बैठे थे। राजकुमारी विद्वानों एवं धनी लोगों की कतार को छोड़कर साधु-महात्माओं की ओर अग्रसर हुई और उन्हें बड़े आदर-सम्मानपूर्वक पुष्पहार भेंट किए। तत्पश्चात् राजकुमारी महात्माओं की पूजा करने लगीं। फूलों के हार पहनने के बाद महात्मा देवताओं जैसे प्रतीत हो रहे थे।

राजा को यह देखकर खिन्नता हुई कि राजकुमारी ने नगर के प्रतिष्ठित विद्वानों का समुचित आदर नहीं किया और उन्हें पुष्पहार नहीं पहनाए। उनकी पूजा नहीं की। राजकुमारी द्वारा केवल साधु-महात्माओं का स्वागत और पूजन राजा की धारण के अनुसार विद्वान् पंडितों तथा श्रीमंतों का अपमान था। परंतु राजा मौन रहे। जब राजकुमारी द्वारा महात्माओं की पूजा संपन्न हो गई, उन्होंने आदरपूर्वक सभी आमंत्रित अतिथियों से भोजन करने की प्रार्थना की। सभी ने भोजन-प्रसाद ग्रहण किया।

इसी बीच राजा ने राजकुमारी सुप्रज्ञा को एक ओर बुलाकर अपने मन की बात कही। ‘पुत्री। तुमने राज्य के गणमान्य विद्वानों एवं पंडितों का आदर-सत्कार नहीं किया, उनकी पूजा नहीं की, उन्हें पुष्पहार भेंट में नहीं दिए, केवल साधु-महात्माओं की पूजा की। यह बात मेरी समझ में नहीं आई। बेटी इसका खुलासा करके मेरे उद्विग्न मन को शाँत करो।’

सुप्रज्ञा बड़ी विदुषी थी। वह बोली, ‘पिताजी। आप कल राजदरबार बुलवाइए। मैं राजदरबार में ही आपके प्रश्नों का समुचित एवं उपयुक्त उत्तर देने का प्रयास करूंगी।’

राजा जानते थे कि उनकी पुत्री बड़ी धर्मपरायण, विवेकशील एवं व्यवहारकुशल है। उन्होंने बिना किसी संकल्प-विकल्प के उसकी बात मानते हुए राजदरबार का आयोजन किया।

अगले दिन राजदरबार में सभी आमंत्रित व्यक्तियों को उनके पद एवं अधिकार के अनुसार पूर्ण आदर-सम्मान के साथ बिठाया गया। साधु-महात्मा लोग भी दरबार में पधारे। राजकुमारी ने स्वयं सभी लोगों का समुचित सम्मान किया। उसने साधु-महात्माओं को उच्च आसनों पर बिठाया। राजकुमारी ने दो कागज दिए और दोनों पर ईश्वर का नाम लिख दिया। तत्पश्चात् राजकुमारी ने एक कागज विद्वानों को दिखाया और दूसरा साधु-महात्माओं को। उसने उनसे पूछा कि ईश्वर का नाम ठीक लिखा गया है अथवा नहीं? इस बारे में जिसे जो भी कहना हो वह कागज पर लिखकर दें।

जब विद्वानों ने कागज को देखा तो आपस में वाद-विवाद करने लगे कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर है, तो उसका क्या स्वरूप है और उसके कितने नाम हैं, उनमें से कौन-सा नाम सर्वश्रेष्ठ है? सभी ने अपना-अपना मत शास्त्रों के प्रमाण सहित कागज पर लिख दिया।

दूसरी ओर का दृश्य विचित्र था। जब साधु-महात्माओं ने कागज पर ईश्वर का नाम लिखा हुआ देखा तो वे उसे प्रणाम करने लगे। वे ईश्वर का नाम उच्चारण करते-करते आनंदमग्न हो गए। एक अलौकिक मुस्कान उनके चेहरे पर तैरने लगी। उनकी आँखों में दिव्य चमक आ गई। मस्ती में झूम उठे। राजा और राजकुमारी यह सब देख रहे थे। राजा उनके हृदय के पवित्र भावों को समझ गए। कुछ देर बाद राजा ने नौकर के द्वारा कागज वापस मँगा लिए। राजा ने देखा कि विद्वानों ने ईश्वर के नाम पर तरह-तरह की टिप्पणियाँ लिखकर दोनों तरफ से पूरा कागज भर दिया था। जबकि महात्माओं ने तो कागज को देखकर केवल प्रणाम भर किया था। उन्होंने उस पर कुछ भी नहीं लिखा था। उनके कागज से उनके पवित्र हृदय की भावनाओं के अनुसार ‘हे ईश्वर । हे ईश। हे परमात्मा। हे राम।’ की आवाज प्रतिध्वनित हो रही थी। राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। वे समझ गए कि वास्तव में महात्मा लोग ही ईश्वर के सच्चे भक्त हैं। वे राजकुमारी की सूझ-बूझ पर बड़े प्रसन्न हुए।

लेकिन राजा की जिज्ञासु वृति अभी शाँत नहीं हुई थी। उन्होंने राजकुमारी से पूछा-बेटी बताओ, इन महात्माओं में सर्वश्रेष्ठ कौन है? राजकुमारी ने राजा से ही उसकी परीक्षा लेकर अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं ही ढूँढ़ने की प्रार्थना की।

राजा ने महात्माओं की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। वे राजसिंहासन से उतरकर पहले महात्मा के पास गए और बोले, ‘हे पूज्यवर। आप ही ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं। मैं आपको अपने सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ।’ राजा के इन वचनों को सुनकर महात्मा हँसने लगे। उन्होंने उत्तर दिया, राजन् क्षमा करें। आपके निर्णय में थोड़ी कमी है। सर्वश्रेष्ठ महात्मा मैं नहीं हूँ, बल्कि मेरे पास बैठे महात्मा सर्वश्रेष्ठ हैं। वे ही इस सम्मान के योग्य हैं। यह कहकर वह महात्मा चुपचाप उठकर राजदरबार से बाहर चला गया। इसी प्रकार दूसरे, तीसरे तथा सभी महात्माओं ने अपने से आगे वाले महात्मा को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए राजदरबार से उठकर बाहर की ओर प्रस्थान कर दिया। अंत में एक महात्मा बचे। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा कि हे राजन्। जो सर्वश्रेष्ठ महात्मा थे वे तो सभी चले गए। मैं तो सामान्य व्यक्ति हूँ। मैं इस राजगद्दी का हकदार नहीं। यह कहकर वे महात्मा भी राजदरबार से बाहर चले गए।

महात्माओं के ऐसे निस्पृह भाव को देख राजा अलौकिक आनंद से परिपूर्ण होकर भाव-विभोर हो गया। अब यह तथ्य उनकी समझ में आ गया था कि सर्वाधिक महत्व धन, पद एवं विद्वता का नहीं, पवित्र भावनाओं से ओतप्रोत हृदय का है। जिसका सम्मान किया जाना चाहिए, वह पवित्र एवं निष्कपट अंतःकरण है। यही वह योग्यता है, जो सामान्य मनुष्य को ईश्वर का प्रीतिभाजन बना देती है। इस तथ्य को समझकर ही राजा विवेकनिधि उस दिन से भगवान् के भक्तों के भक्त बन गए।


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