संगठन की याचना (kavita)

August 2001

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हे तपोनिष्ठ । हे वेद की मूर्ति। अब शक्ति दो, संगठन यह सघन हो सके, आपने बीज बोए यहाँ जो, प्रभो। उनका, अब अंकुरण-पल्लवन हो सके।

व्यक्ति हो तुम नहीं, चेतना-शक्ति हो, आदमी में परिष्कार की वृति हो, अब सभी को समझ आ रहा सत्य यह, अब इसी भाव का जागरण हो सके।

सत्य है यह, कि हर ओर विध्वंस है, लग रहा, ज्यों निरंकुश असुर-वंश है, प्रेरणा दो, महानाश के इन सभी खंडहरों पर सतत नव सृजन हो सके।

पूज्यवर। आपसे जो इशारा मिला, सप्त आँदोलनों का सहारा मिला, व्यक्ति में हो सके दिव्यता का उदय, भूमि पर स्वर्ग का अवतरण हो सके।

विश्वविद्यालयी ज्ञान की धार से, मिट सके मूढ़ता, रूढ़ि संसार से, देव संस्कृति बने विश्व संस्कृति यहाँ, शुद्ध संपूर्ण वातावरण हो सके।

विश्व भर के मनीषी यहाँ आएँगे, ज्ञान से, श्रेष्ठ जीवन-दिशा पाएँगे, हो सके देव संस्कृति धरा पर मुखर, आसुरी शक्ति का यूँ क्षरण हो सके।

हे प्रभो। आपका प्राण-बल पा सकें, कार्य में आपके तीव्र गति ला सकें, ताकि अंशज हरेक, आपके सूर्य की काँति से जगमगाती किरण हो सके। शक्ति दो, संगठन यह सघन हो सके।

− शचीन्द्र भटनागर

*समाप्त*


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