प्रगति के पथ पर अग्रसर होते हुए जड़ तत्व चेतन बनने की दिशा में क्रमिक विकास कर रहे हैं। यह एक तथ्य है। सुविकसित प्राणी-चेतना जैसी प्रखर चेतना भले ही उनमें न हो, पर किसी मात्रा में वह स्फुल्लिंग विद्यमान अवश्य है, जो चेतना का सूक्ष्म-सा परिचय देते हैं और जड़ता से मुक्ति पाकर चेतना के चरम लक्ष्य की ओर रेंगते चलने का आभास दिलाते हैं।
जड़-चेतन में भगवान की सत्ता के विद्यमान होने का परिचय इसी दृष्टि से प्राप्त किया जा सकता है कि चेतन के स्तर की न सही, एक हलकी-सी झाँकी उनमें आगे बढ़ने की, ऊपर उठने की, विकसित होने की आकांक्षा के रूप में पाई जाती है। इस अंश को ईश्वरीय चेतन सत्ता की विद्यमानता के रूप में लिया जा सकता है।
हलचल धातु-पाषाण जैसे जड़ पदार्थों में भी पाई जाती है। कोई भी वस्तु पूर्णतया निष्क्रिय नहीं है। उसके परिवर्तन आँखों से भी देखे जा सकते हैं। बारीकी से देखने पर अणु-संरचना के भीतर चल रही अत्यंत द्रुतगामी हलचलें तो धूल के छोटे कण में भी पाई जा सकती हैं। इस सक्रियता को भी ईश्वरीय अंश माना जा सकता है।
साधारणतया जीवन को वनस्पति वर्ग और प्राणिवर्ग में बाँटा जा सकता है, पर सर्वथा निर्जीव कहे जाने वाले धातु-पाषाण जैसे पदार्थ में भी प्रसुप्त चेतना का एक अंश पाया जाता है। ऐसी दशा में असमंजस खड़ा हो गया है कि क्या जड़-पदार्थों को भी भला जीवन क्षमता संपन्न प्राणियों में ही गिना जाएगा। मनुष्य यों प्राणिवर्ग में ही आता है, पर असाधारण बुद्धिमता, मस्तिष्कीय संरचना, इंद्रिय चेतना और शरीर-गठन को देखते हुए एक अतिरिक्त चतुर्थ चेतना वर्ग की गणना करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। भोजन को ऊर्जा में बदल सकने की क्षमता वाले को जीवधारी मानने वाली परिभाषा अब बहुत पुरानी हो गई हैं।
कोशिका में जीवनरस ‘प्रोटोप्लाज्म’ भरा होता है। उस रस में 12 तत्व मिले होते हैं, कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, सल्ल्र, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नेशियम, लोहा, फास्फोरस क्लोरीन, सोडियम। इससे सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थों का सम्मिश्रण जीवन तत्व की स्थिरता और प्रगति के लिए आवश्यक है। ऐसी दशा में इन रसायनों में भी जीवन की झाँकी की जाए, तो कुछ अनुचित न होगा।
एक जीवित प्राणी में अगणित जीवन तत्व विद्यमान रहते हैं। एक बूँद खून में हजारों सेल रहते हैं। रक्त में छोटी-छोटी लाला रक्त कणिकाएँ हैं,जिनमें हीमोग्लोबिन नामक लौह तत्व बहुलता से भरा होता है। इनसे कुछ कम संख्या में सफेद रक्त कोशिकाएँ हैं। ये रुग्णता के आक्रमण से लड़ती है। जिनमें आत्मरक्षा और प्रतिरोध से लड़ने का ज्ञान-विवेक मौजूद है, उन्हें अचेतन कैसे कहें? ऐसी दशा में जड़ माने जाने वाले शरीर की प्रत्येक कोशिका को एक स्वतंत्र जीवधारी और जड़ माने जाने वाले शरीर को चेतन घटकों का समूह-संगठन कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अणुविज्ञानी फ्रेड हायल और प्रो. जे.वी. नार्लिकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विश्व-रचना संबंधी अणुओं और मनुष्य शरीर के जीवाणुओं की संरचना में कोई मौलिक अंतर नहीं है, भले ही उनकी गतिविधियाँ भिन्न दिशाओं में चलती और भिन्न दिशाओं में काम करती दिखाई दें। इस दृष्टि से अणु भी चेतना के निकट ही जा पहुँचता है।
अणु क्या है? विज्ञान इसे पदार्थ का सूक्ष्म कण कहता है। यह जड़ है, पर अब जड़ की परिभाषा भी बदलने की आवश्यकता महसूस होने लगी है। केवल स्थिरता के आधार पर किसी को जड़ कहना उचित न होगा। जंतु जगत् में ‘स्पॉन्ज’ और ‘कोरल’ दो ऐसे प्राणी हैं, जो बाह्य दृष्टि से सर्वथा जड़ प्रतीत होते हैं, पर उनके अंदर जंतुओं की सारी क्रियाएँ पाई जाती हैं। जड़ और चेतन की मध्यवर्ती अवस्था वाला एक अन्य कण है, वाइरस। जब वह किसी शीशी में बंद पड़ा रहता है, तो एकदम निर्जीव कणिका के समान होता है, किंतु जैसे ही वह होस्ट शरीर में पहुँचता है, तेजी से वृद्धि करने लगता है और उसमें जीवन के लक्षण सुस्पष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य शरीर में विद्यमान फेश और नाखून को क्या कहें? जड़ या चेतन? जब उन्हें हम काटते छाँटते हैं, तो किसी प्रकार की पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, यह जड़ता का लक्षण है, किंतु उनमें वृद्धि होती रहती है, यह जीवन का चिन्ह है।
इस प्रकार अब जड़ और चेतन के बीच की विभाजन भित्ति लगभग समाप्त हो गई है और स्थावर में भी जंगम की सत्ता स्वीकार ली गई है। इससे ‘सर्व ब्रह्ममयं जगत्’ का अध्यात्मवादी तत्वदर्शन विज्ञानसम्मत भी सिद्ध हो जाता है।