सत्य का बोध कराए, ऐसी शिक्षा प्रचलित हो

August 2001

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शिक्षा और दर्शन अन्योन्याश्रित है। जीवन को विकसित एवं पल्लवित बनाने के लिए दोनों की आवश्यकता है। शिक्षा और दर्शन एक-दूसरे से संबंधित हैं। दार्शनिकों के मतानुसार शिक्षा दर्शन का क्रियात्मक एवं व्यावहारिक पक्ष है। जान एडम्स की मान्यता है कि शिक्षा, दर्शन का क्रियाशील एवं गत्यात्मक पहलू है। जान डीवी ने दर्शन को शिक्षा का सामान्य सिद्धांत कहा है। इन्होंने इन दोनों के बीच संबंधों की घनिष्ठता को स्वीकारा है। वे कहते है शिक्षा की सहायता से ही मनुष्य को दर्शन संबंधी आवश्यक ज्ञान प्राप्त होता है।

दर्शन का उद्देश्य है, जीवन को समुन्नत बनाना। इस हेतु कुछ निश्चित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। शिक्षा द्वारा इन सिद्धांतों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया जाता है। अतः शिक्षा दर्शन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप देने तथा उसके उद्देश्यों के अनुसार व्यक्ति के जीवन संबंधी दृष्टिकोण को प्रभावित करने में सहायता प्रदान करती है। शिक्षा को दर्शन के उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन कहा गया है। इसकी सहायता से ही दार्शनिक ज्ञान मिलता है। शिक्षा की उर्वर भूमि में दर्शन की उत्पत्ति मानी जा सकती है। शैक्षिक प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति के मन में विचारों का प्रादुर्भाव होता है और अंत में विचार ही दर्शन को जन्म देते हैं।

शिक्षा और दर्शन दोनों को एक-दूसरे के पूरक कहा जा सकता है। दार्शनिकों ने शिक्षा के संबंध में भी गहन विचार-मंथन किया है। सुकरात, प्लेटो तथा रूसो से लेकर जान डीवी और अन्य आधुनिक दार्शनिक इस बारे में एक मत हैं। पूर्वी दार्शनिकों का मत बड़ा ही समग्र एवं संपूर्ण है। प्राचीनकाल के याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र से लेकर महर्षि व्यास तक अधिकाँश प्रसिद्ध दार्शनिक, मूर्द्धन्य आचार्य एवं शिक्षाशास्त्री रहे हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की विश्वभारती, श्री अरविंद का पाँडिचेरी आश्रम दार्शनिक विचारों की व्यावहारिक प्रतिमूर्ति हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा संचालित शाँतिकुँज के तत्वावधान में देवसंस्कृति महाविद्यालय प्रारंभ हो रहा है। यहाँ पर भी वैदिक दर्शन एवं संस्कृति के व्यावहारिक एवं क्रियात्मक स्वरूप का पठन-पाठन प्रस्तावित है।

महात्मा गाँधी की नई शिक्षा पद्धति बुनियादी शिक्षा इसी से संबंधित है। इस प्रकार प्रायः सभी शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के साथ-साथ दर्शन पर भी विचार किया है। इसकी वजह है कि दार्शनिक विचारधाराओं का व्यावहारिक रूप शिक्षा के माध्यम से ही मिल सकता है। शिक्षाशास्त्री भी यह अनुभव करने लगे हैं कि सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की खोज तथा परिवर्तनशील जीवन के लिए परिभाषाओं और सिद्धांतों की रचना आवश्यक है। यह कार्य दर्शन की सहायता से ही संभव है।

शिक्षा दर्शन का जन्म प्रचलित शिक्षा पद्धति के असंतोष के कारण हुआ। भारत में भी नवीन दर्शन का जन्म इसी असंतोष का परिणाम है। अँग्रेजी शिक्षा पद्धति के विरुद्ध आक्रोश एवं असंतोष ने ही काशी विद्यापीठ, विश्वभारती, अरविंद आश्रम, वनस्थली विद्यापीठ, गुरुकुल काँगड़ी, गुरात विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामिया आदि विशेष शिक्षण संस्थाओं को जन्म दिया। पुरातन परंपरा में सामयिकता लाने हेतु नवीन पद्धति की खोज की जाती है। भारतीय शिक्षा के विकास के लिए शिक्षा-दर्शन को संस्कृति के मूलभूत तत्वों की उपयोगिता और उसके व्यावहारिक पक्ष पर विचार करना चाहिए।

शिक्षा-दर्शन, शिक्षा और दर्शन के बीच की एक शाखा और दोनों को संबद्ध करने वाली महत्वपूर्ण कड़ी है। सभी शिक्षाशास्त्री इनके बीच के स्थायित्व को स्वीकारते हैं। परंतु इसके वास्तविक स्वरूप में मताँतर है। जान डीवी और उसके समर्थकों के मतानुसार संपूर्ण दर्शन ही शिक्षा-दर्शन है। दर्शन का उद्देश्य है- शिक्षा के लिए सामान्य सिद्धांतों की खोज करना। उनके अनुसार दर्शन का प्रमुख कार्य है- जीवन की कठिनाइयों को दूर करना एवं इस हेतु नई दशा एवं दिशा प्रस्तुत करना। वे दर्शन का संबंध जीवन, मृत्यु, पृथ्वी, ब्रह्मांड आदि अनसुलझी समस्याओं से नहीं जोड़ते। जान डीवी के अनुसार दर्शन को सामाजिक समस्याओं के अध्ययन तक ही सीमित करना चाहिए। इन व्यावहारिकतावादी दार्शनिकों ने संपूर्ण दर्शन को ही शिक्षा-दर्शन माना है। शिक्षा और दर्शन में शिक्षा ही प्रमुख है और दर्शन उसका सिद्धांतीकरण रूप है।

एक अन्य वर्ग दर्शन को केवल शिक्षा-दर्शन तक ही सीमित नहीं मानता। वह इसे दर्शन का एक अंग मानता है। इनके मतानुसार दर्शन में जीवन और ब्रह्माँड संबंधी विषयों का समावेश उचित एवं आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में बट्रेंड रसेल कहते हैं, दर्शन को विश्व की गतिविधि एवं क्रियाकलापों के अध्ययन में संलग्न रहना चाहिए। इससे मनुष्य की वैचारिक एवं बौद्धिक शक्ति विकसित होती है, कल्पनाशक्ति समृद्ध होती है एवं अंधविश्वासों-मान्यताओं में परिवर्तन होता है। ब्रह्मांडीय चिंतन करके मन भी महान् होने लगता है और इससे तादात्म्य स्थापित कर लेता है। यही इसकी सार्थकता एवं सफलता है। इस तरह दर्शन में शिक्षा के लिए एक नवीन शाखा व विषय का उदय होता है।

वस्तुतः दर्शन के एक गर्भ से समस्त विषयों का जन्म हुआ है। ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाएँ दर्शन से उद्भूत हुई हैं। यहाँ तक कि गणित भी एक विषय है, जो दर्शन के बीज से बाहर निकला। इसके पश्चात् क्रमशः भौतिक, रसायन, जीव विज्ञान आदि विज्ञानों ने इसी पथ का अनुसरण किया। गणित में प्रश्न और उत्तर संबंधी निश्चितता होती है। अन्य सभी विज्ञान गणित का आश्रय लेते हैं, परंतु विज्ञान में पदार्थों का अध्ययन किया जाता है, जबकि गणित संबंधों का अध्ययन-अन्वेषण करता है। अतः सभी विज्ञान इसका सहारा लेकर विभिन्न पदार्थों के संबंधों का अध्ययन करते हैं।

इस तरह ये सभी विषय प्रकाराँतर से दर्शन से ही उद्भूत हुए है। अतः इनका इससे संबंध भी बरकरार है। गणित और दर्शन की पद्धतियों में पर्याप्त समानता पाई जाती है। गणित के जन्मदाता अरस्तू स्वयं एक ऊँचे स्तर के दार्शनिक रहे है। इसी प्रकार विज्ञान के संबंध में भी कहा गया है। पाश्चात्य दर्शन को वर्तमान रूप देने वाले दार्शनिक थेल्स एक उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे।

सभी विज्ञान जिस गणित का आश्रय लेते हैं, उसी तरह सभी कलाएँ दर्शन का सहारा लेती हैं। इस क्रम में शिक्षा-दर्शन की महत्ता असंदिग्ध है। शिक्षण विधि के अतिरिक्त सभी शैक्षिक कार्यक्रमों, जैसे शैक्षिक उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शैक्षिक व्यवस्था, शैक्षिक साधन आदि का निर्धारण शिक्षा-दर्शन की सहायता से किया जाता है। वह दर्शन शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण से संबंधित परिस्थितियों और समस्याओं का समाधान देता है। इससे लक्ष्य निर्धारण में सहायता मिलती है। छात्रों में बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावनात्मक अभिवृद्धि भी आवश्यक है अन्यथा शिक्षा एकाँगी हो जाएगी। आज की इस एकाँगी शिक्षा के दुष्परिणाम से भला कौन परिचित नहीं? शिक्षा-दर्शन ही इस अभाव को भर सकने में समर्थ है।

वैसे शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है-ज्ञान की प्राप्ति एवं दर्शन का उद्देश्य है- ज्ञान की खोज। प्लेटो के अनुसार दर्शन वह नशा है, जो सभी प्रकार के ज्ञान से आनंद प्राप्त करता है। ज्ञान कसी बिंदु में ठहरकर संतुष्ट नहीं हो जाता। इसकी खोज की यात्रा अनंत है। जान डीवी ने शिक्षा के दर्शन के संबंध में कहा है कि दर्शन शिक्षा के लक्ष्य और विज्ञान उसकी प्राप्ति के साधन पर विचार करता है।

शिक्षा-दर्शन शैक्षिक उद्देश्यों के संबंध में मौलिक विचार देता है। परंतु इन विचारों में विभिन्नता पाई जाती

गाँधी जी ने वकालत प्रारंभ की। उन्होंने केवल सही अधिकारों के लिए ही पैरवी करने का फैसला किया। उनके एक मुवक्किल ने उन्हें अपना गलत पक्ष नहीं बतलाया और उन्होंने केस ले लिया। बाद में जब पता लगा, तो कोर्ट में उन्होंने बहस नहीं की, तारीख बढ़ गई। कोर्ट से लौटकर उन्होंने उस मुवक्किल को उसकी दी हुई फीस वापस कर दी।

लोगों ने कहा-आप फीस ले चुके हैं, अब केस वापस मत कीजिए। वकीलों को थोड़ा-बहुत तो इधर-उधर करना ही पड़ता है। गाँधी जी ने कहा, ‘लोग क्या करते हैं, वह मेरा आदर्श नहीं, मुझे क्या करना चाहिए, वह मुझे अच्छी तरह याद है। मैं परंपरा या धन के लोभ में सिद्धांतों को बट्टा नहीं लगाऊँगा।’ उच्च आदर्शों के प्रति इस निष्ठा ने ही उन्हें महात्मा और ‘राष्ट्रपिता’ का पद दिलाया।

है। यह जीवन-दर्शन की भिन्नता का परिचायक है, जो शिक्षा और समाज के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। यह भिन्नता स्थान, काल, परिस्थिति एवं परंपराओं के कारण भी हो सकती है। यही एकता के सूत्र में आबद्ध करती है। शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता है, जीवन संबंधी इन भिन्नताओं में उचित व उपयुक्त साध्यों और साधनों का चुनाव एवं उचित परामर्श देना। इसी माध्यम से ही शैक्षिक कार्यक्रमों, साँस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय परंपराओं को सुरक्षित रखा जा सकता है।

शिक्षा क्षेत्र में प्राचीन और नवीन के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न एक अन्य प्रमुख कार्य है। प्रत्येक काल में प्राचीन और नवीन के बीच एक स्वाभाविक-सा विरोध पाया जाता है। जिस कारण नवीन परंपराएँ पुरातन का स्थान नहीं ले पातीं। जबकि प्राचीन के बाद नवीन का क्रम आता है। बल्कि प्राचीन नवीन को जन्म देता है। यदि प्राचीन न हो तो नवीन कहाँ से आएगा। नवीन के विचार से प्राचीन को त्याग देना उचित नहीं है। दोनों के बीच समन्वय एवं सामंजस्य की आवश्यकता है। यह कार्य शिक्षा-दर्शन द्वारा ही किया जा सकता है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार प्राचीन से उचित संबंध के अभाव में आज व्यक्ति अकेला, अशाँत है और उसका परम यथार्थ प्रकृति और व्यक्ति तक से संपर्क नहीं रह गया है। उसका यही एकाकीपन बहुधा उत्तेजनापूर्ण हठधर्मिता के रूप में प्रकट होता रहता है।

विद्यार्थियों को सामाजिक, साँस्कृतिक और बौद्धिक उलझनों के बीच कथित मार्गदर्शन करना आवश्यक है। हमारे देश में इसी तरह उलझावपूर्ण वातावरण व्याप्त हो गया है। एक ओर विदेशी संस्कृति का तीव्र जोर तो दूसरी ओर अपने अंदर-रसी-बसी अपनी संस्कृति। परिणामस्वरूप दो समानाँतर संस्कृतियों का जन्म हो गया है। भारतीय संस्कृति उपभोग को त्योग के आधार पर उचित ठहराती है, परंतु विदेशी संस्कृति केवल सर्वनाशी उपयोग पर ही आधारित है। किसे अपनाएं और किसे छोड़े? इस बौद्धिक ऊहापोह में विद्यार्थी भी उलझकर रह गए हैं। अतः सत्य का बोध हो, ऐसी शिक्षा एवं ज्ञान की व्यवस्था होनी चाहिए। अध्ययन-अध्यापन में ऐसी शैक्षणिक व्यवस्था एवं विषय का प्रचलन आरंभ करना चाहिए, जिससे कि विद्यार्थी भटक न जाए और उसका समग्र विकास हो। शिक्षा-दर्शन का मुख्य कार्य है- इन विरोधी और विपरीत परिस्थितियों में शिक्षा का मार्गदर्शन करना।

आधुनिक शिक्षा का सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख ध्येय छात्रों के सर्वांगीण विकास का होना चाहिए। शिक्षा दर्शन इस दिशा में ठोस कदम उठा सकता है। इसे निश्चित करना चाहिए कि छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में कौन-कौन से तत्व विशेष महत्वपूर्ण है और व्यक्तित्व के किन अंगों को अधिक महत्व देना चाहिए? प्रत्येक शिक्षक को यह ज्ञान आवश्यक है, ताकि वह छात्रों के व्यक्तित्व विकास में सहायक हो। शिक्षकों को सफलता तभी प्राप्त हो सकती है, जब शिक्षक को शिक्षा के समस्त स्वरूप का ज्ञान हो। शिक्षक का शिक्षकत्व भी इसी में है कि वह शिक्षण से संबंधित सभी बातों से भलीप्रकार परिचित हो और अपने विषय की शिक्षा संपूर्ण ज्ञानराशि के अंश के रूप में और वास्तविक जीवन के संदर्भ में दे।

शाँतिकुँज ने इसी को व्यावहारिक रूप से चरितार्थ करने के लिए एक व्यापक विराट् परियोजना तैयार की है, जो कि विश्वविद्यालय के रूप में अगले दिनों चरितार्थ होने जा रही है।


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