हिंदू परंपरा में मस्तक पर तिलक या टीका लगाना धार्मिक कृत्यों के साथ जुड़ा हुआ है। प्रत्येक शुभ अवसर पर ऐसा करना प्रसन्नता का, सात्विकता का, सफलता का चिन्ह माना जाता है। किसी महत्वपूर्ण कार्य या विजय अभियान में निकलने पर रोली, हल्दी, चंदन या कुँकुम का तिलक लगाया जाता है। उपासना में षट्कर्म का यह एक अभिन्न अंग है। तीर्थों में देवदर्शन हेतु उपस्थित होने पर वहाँ माथे पर तिलक लगाकर शुभकामना दी जाती है। पर्व-त्यौहारों में, मेहमानों के आगमन पर उन्हें तिलक धारण कराकर उनका स्वागत किया जाता है और मंगलकामना व्यक्त की जाती है। यह सब एक सामान्य और औपचारिक कृत्य जैसा लगते हुए भी इसका महत्व असाधारण है। इसके दार्शनिक और विज्ञानिक पक्षों पर विचार करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में कर्मकाँडों, परंपराओं, प्रथाओं को विनिर्मित करने वाले हमारे प्राचीन ऋषि एक साथ वैज्ञानिक भी थे और महान् दार्शनिक भी। इसलिए किसी भी शुभ प्रचलन की स्थापना में उन्होंने इन दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखा, ताकि कोई एक पक्ष सर्वथा उपेक्षित और गौण न पड़ा रहे एवं दूसरे के दुरुपयोग की संभावना न बढ़ जाए। इसके पीछे संतुलन-समीकरण का प्रयोजन ही प्रमुख था, जिससे दोनों वर्ग के अनुयायी संतुष्ट हो सकें और स्थापना को समान महत्व दे सकें।
सर्वप्रथम इसके विज्ञान पक्ष को लें। ललाट में टीका या तिलक जिस स्थान पर लगाया जाता है, वह भ्रू-मध्य या आज्ञाचक्र है। शरीरशास्त्र की दृष्टि से यह स्थान पीनियल ग्रंथि का है। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि प्रकाश से इसका गहरा संबंध है। प्रयोगों में जब किसी व्यक्ति की आँखों में पट्टी बाँधकर सिर को पूरी तरह ढक दिया गया और उसकी पीनियल ग्रंथि को उद्दीप्त किया गया, तो उसे मस्तक के अंदर प्रकाश की अनुभूति हुई। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि ध्यान-धारण के माध्यम से साधक में जो प्रकाश का अवतरण आज्ञाचक्र में होता है, उसका कोई-न-कोई संबंध इस स्थूल अवयव से अवश्य है। ऋषियों को यह तथ्य भलीभाँति विदित था, इसलिए उन्होंने टीका लगाने के प्रचलन को पूजा-उपासना के साथ-साथ हर शुभ कार्य से जोड़कर उसे धार्मिक कर्मकाँड का एक अविच्छिन्न अंग बना दिया, ताकि नियमित रूप से उस स्थान के स्पर्श से उसे उद्दीपन मिलता रहे और वहाँ से संबद्ध स्थूल-सूक्ष्म अवयव जागरण की प्रक्रिया से जुड़ सकें। यों तो अतींद्रिय शक्तियों के उन्नयन के लिए साधना विज्ञान में सुनिश्चित विधि-विधान और अभ्यास बताए गए हैं, पर ऐसे कठिन अभ्यास न तो सब के मनोनुकूल होते हैं, न हर एक का सहज रुझान इस ओर होता है। ऐसी स्थिति में क्या मनुष्य को लंबे समय तक पिछड़ी और अविकसित दशा में पड़ा रहने के लिए छोड़ दिया जाए?
नहीं। मानवता और समाज के प्रति जिसे तनिक भी लगाव होगा, वह औरों के विकास के बारे में जरूर सोचेगा। फिर ऋषि तो करुणा और संवेदना की प्रतिमूर्ति थे। यह भूल कैसे कर सकते थे। अस्तु, उन्होंने तिलक और टीके के माध्यम से जहाँ सर्वसाधारण की रुचि को धार्मिकता की ओर मोड़ना चाहा, वहीं उनकी आत्मिक प्रगति की दिशा में प्रथम चरण का द्वार भी खोल दिया। तिलक धारण वस्तुतः तृतीय नेत्र उन्मीलन की दिशा में एक आध्यात्मिक कदम है। किसी जन्म में इस रूप में इसकी मजबूत नींव पड़ जाने के उपराँत आगे के जन्मों में इस पर भव्य भवन की शुरुआत हो सकती है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि दोनों भौंहों के बीच कुछ अतिरिक्त संवेदनशीलता होती है। इसे परीक्षा करके जाना जा सकता है। यदि हम आँखें बंद करके बैठ जाएँ और कोई व्यक्ति हमारे भ्रू-मध्य के एकदम निकट ललाट की और तर्जनी उँगली ले जाए, तो वहाँ हमें कुछ विचित्र अनुभव होगा। यही तृतीय नेत्र की प्रतीति है। इस संवेदना को हम अपनी उँगली भृकुटि-मध्य लाकर भी अनुभव कर सकते हैं। इसलिए इस केंद्र पर जब तिलक अथवा टीका लगाया जाता है, तो उससे आज्ञाचक्र को नियमित रूप से उत्तेजना मिलती रहती है। इससे सजग रूप में हम भले ही उसके जागरण के प्रति अनभिज्ञ रहें, पर अनावरण का वह क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है।
तंत्रमार्ग में टीका सिर्फ परंपरावश नहीं लगाया जाता, वहाँ इसका प्रयोजन और गहन है। वह मार्थ पर इष्ट का प्रतीक है। इष्ट की स्मृति सदैव बनी रहनी चाहिए, भले ही संपूर्ण शरीर विस्मृत हो जाए। इस धारण के कारण मन बराबर उसी केंद्रबिंदु की ओर लगा रहता है। इसका परिणाम यह होगा कि शरीरव्यापी चेतना शनैः-शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्र होने लगेगी। तिलक बिंदु पर उसका इकट्ठा होना ठीक वैसा ही है, जैसा आतिशी शीशे से सूर्य-किरणों को कागज के एक बिंदु पर केंद्रीभूत करना। इस एकत्रीकरण से कागज में आग लग जाती है। जो किरणों अब तक धूप के रूप में बिखरी हुई थीं, वे ही इकट्ठा होकर आग उत्पन्न कर देती हैं। यही बात यहाँ भी है। जब चेतना शरीर में फैली रहती है, तो शरीरचर्या के निमित्त प्रयुक्त होती रहती है, पर जब वही आज्ञाचक्र पर तिलक के माध्यम से एकत्र होती है, तो तीसरे नेत्र के जागरण का मार्ग प्रशस्त करती है। फिर हम स्थूल संसार से पृथक एक ऐसी दुनिया से जुड़ जाते हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘पारलौकिक जगत्’ और विज्ञान की भाषा में ‘परामानसिक जगत्’ कहते हैं।
योग विज्ञान के अनुसार पेड़ में कंद के स्थान से बहत्तर हजार नाड़ियाँ निकलकर शरीर के समस्त भागों में फैल जाती हैं। इनमें तीन प्रमुख हैं, इडा, पिंगला,सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदंड मार्ग से ऊपर की ओर आती हुई मस्तिष्क के तीनों भागों का अलग-अलग स्पर्श करती हैं, तत्पश्चात् वहाँ से वह तीनों नाड़ियाँ रस्सी की तरह आपस में गुँथी हुई कपाल प्रदेश में ऊपर से नीचे की ओर जाती है। इसके बाद भ्रू-मध्य पर पृथक हो जाती हैं। सुषुम्ना आज्ञाचक्र या तीसरे नेत्र के स्थान पर अपनी यात्रा समाप्त कर देती है, जबकि इड़ा और पिंगला दोनों नेत्रों की कर्णिकाओं का स्पर्श कर उनकी रक्तवाहिनी तंतुओं के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इन दोनों नाड़ियों का संबंध दोनों आँखों के माध्यम से जाग्रत और स्वप्नावस्था से है। इसके विपरीत सुषुम्ना का संबंध तीसरे नेत्र के माध्यम से सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्था से है। योगिजन भ्रू-मध्य में चित को एकाग्र कर सुषुम्ना मार्ग से इन्हीं अवस्थाओं के द्वारा अंतरजगत् में प्रवेश करते हैं। उस बिंदु पर तिलक धारण करने से एक प्रकार की मानसिक सजगता पैदा होती है, जिसे एकाग्रता की प्रारंभिक स्थिति कह सकते हैं अर्थात् जो कार्य साधक नियमित अभ्यास द्वारा संपन्न करते हैं, वह टीके के प्रयोग से कुछ अंशों में स्वयमेव संपादित हो जाता है। इस प्रकार तिलक आत्मोत्कर्ष का एक आधार बन जाता है। यह आधार आगे के जन्मों में और मजबूती ग्रहण करते हुए संस्कार का रूप धारण कर लेता है। फिर जो शुभारंभ तिलक के प्रतीक रूप में हुआ था, वह साधना-अभ्यास के रूप में परिपुष्ट होने लगता है। यह क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक क्रिया पूरी न हो जाए अर्थात् आज्ञाचक्र के जागरण तक यह प्रयास-यात्रा चलती रहती है
साधना विज्ञान के आचार्यों ने पूर्व के इन अभ्यासों की पहचान मस्तक पर एक उथले-छोटे गड्ढे के रूप में बताई है। यदि कोई व्यक्ति अपने भ्रू-मध्य वाले भाग को उँगली से टटोलकर देखे, तो इसका स्पष्ट अनुभव होगा। गड्ढे के दोनों और दो उभार पड़ेंगे। यदि इसे दर्पण में देख जाए, तो वह एक अर्द्धचंद्राकार उभार के रूप में दृष्टिगोचर होगा।
यह विज्ञान पक्ष हुआ। तिलक का तत्वदर्शन अपने आप में अनेकों प्रेरणाएँ सँजोए हुए है। तिलक या त्रिपुँड प्रायः चंदन का होता है। चंदन की प्रकृति शीतल होती है। शीतल चंदन जब मस्तक पर लगाया जाता है, तो उसके पीछे भाव यह होता है कि चिंतन का जो केंद्रीय संस्थान मस्तिष्क के रूप में खोपड़ी के अंदर विराजमान है, वह हमेशा शीतल बना रहे, उसके विचार और भाव इतने श्रेष्ठ हों कि अपनी तरह औरों को भी वह शीतलता, शाँति और प्रसन्नता प्रदान करता रहे।
तिलक का महत्व जनजीवन में इतना अधिक है कि जब भी कोई महत्वपूर्ण, सम्मानसूचक, प्रसन्नतादायक घटना घटती है, तो माथे पर इसे लगा दिया जाता है। विवाह हो रह हो तो तिलक हो, कोई युद्ध पर जा रहा हो तो तिलक हो कोई युद्ध से विजयी होकर लौट रहा हो तो तिलक हो अर्थात् कोई भी सुखमय घटना हो, उसके साथ तिलक का अविच्छिन्न संबंध जोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए कि वह आनंद चिरस्मरणीय बना रहे। मानवी चित का यह एक विचित्र स्वभाव है कि वह सुख को, प्रसन्नता को, आनंद को हमेशा याद रखना चाहता है, जबकि कटु प्रसंगों को, दुःख को भूल जाना चाहता है। इसलिए हमें अपने पिछले दिन सुखमय प्रतीत होते है। वृद्धजन अक्सर कहते सुने जाते है कि बचपन सुखद और सुँदर था। यह स्वाभाविक ही है, कारण कि मन दुःख को छोड़ देता है और सुख की शृंखला को बनाए रखता है। कोई बालक यह कभी नहीं कहता कि बचपन सुखद है। वह बड़ा होना चाहता है। बड़ों की तरह रहना, घूमना, पहनना, खाना, बातचीत करना चाहता है इसमें उन्हें आनंद आता है। इसलिए वे अक्सर उनकी नकल करते हैं। किसी को पूजा करते देखा, वह भी वैसा करने लगता है, किसी को हुक्का पीता देख, वह उसका अभिनय करता है, क्योंकि वह जानता है, यह बड़े होने के लक्षण हैं। इसमें वह प्रसन्नता अनुभव करता है। इसी प्रसन्नता के प्रतीक के रूप में तिलक माथे में विराजमान होता है।
तिलक के साथ सुख को जोड़ने का भारतीय संस्कृति का अपना प्रयोजन है, जब कल्पना में सुख बड़ा हो जाए, तो उसके साथ तिलक भी बड़ा हो जाए। सुख की याद आए तो साथ-साथ तिलक की भी स्मृति जाग्रत् हो। स्मरण का प्रभाव धीरे-धीरे आज्ञाचक्र से संबंधित हो जाता है। जब ऐसा हो जाता है, तो समझना चाहिए कि तीसरी आँख को जगाने के लिए सुख का उपयोग हुआ। हम सुख की धारा का उपयोग उसे चोट करने के लिए करते है। यह चोट जितने मार्गों से मिल सके उतनी उपयोगी है।
विवाहित स्त्रियाँ माँग में सिंदूर और माथे पर बिंदी लगाती हैं। बिंदी टीके का रूप है, वैसे ही माँग का सिंदूर तिलक का प्रतीक है। किंतु यहाँ इन्हें परिणीता के सुहाग के साथ जोड़ दिया गया है। यह अक्षत सुहाग के चिन्ह हैं। इनमें समर्पण और निष्ठा का भाव छुपा हुआ है। यह इस बात के प्रतीक हैं कि अब विवाहिता का अनुगत भाव पूर्णरूपेण पति की ओर है। वह उसकी समर्पिता है। अब उसके नारीत्व पर कोई बाधा नहीं पड़ेगी इसलिए पत्नी को पति के जीवित रहने तक इन्हें धारण करना पड़ता है। उसके मरते ही इन्हें हटा देने का विधान है। ऐसा इसलिए कि अब किसी के प्रति उसके अनुगत और समर्पण भाव का प्रश्न ही नहीं है। समझा जाता है कि वह विधवा हो गई, इस कारण से ऐसा किया गया है। नहीं, यह बात नहीं है। उसके पीछे गहरा प्रयोजन है। अब वह किसके अनुगत हो? अनुगत होने का प्रश्न ही नहीं है। सचाई तो यह है
कि अब उसे स्त्री की तरह नहीं, पुरुष की तरह जीना पड़ेगा। एक विधवा का जीवन पुरुष के जीवन के ही समान होता है, इसमें संदेह नहीं। अतएव वैधव्य में इन्हें मिटा दिया जाता है।
तिलक द्रव्य के रूप में भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। श्वेत और रक्तचंदन भक्ति के प्रतीक हैं। इनका इस्तेमाल भजनानंदी किस्म के लोग करते हैं। केशर एवं गोरोचन ज्ञान तथा वैराग्य के प्रतीक हैं ज्ञानी तत्वचिंतक और विरक्त हृदय वाले लोग इसका प्रयोग करते हैं। कस्तूरी ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, प्रेम, सौंदर्य, ऐश्वर्य सभी का प्रतीक है। परम अवस्था प्राप्त योगिगण इसका इस्तेमाल करते हैं।
तिलक धारण हेतु भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए अलग-अलग उँगलियों के प्रयोग का विधान है। ज्ञान की उपलब्धि के लिए तर्जनी, ऐश्वर्य के लिए मध्यमा, धन-वैभव, सुख-शाँति के लिए अनामिका उँगली विहित है। तर्जनी से लाल या श्वेत चंदन का टीका, मध्यमा से सिंदूर का, अनामिका से केशर, कस्तूरी, गोरोचन का टीका लगाना चाहिए। इनके लिए क्रमशः पर्व दिशा, उत्तर दिशा और पश्चिम दिशा निर्धारित हैं। इस ओर मुँह करके ही इनका तिलक धारण करना चाहिए। अँगूठे से भी चंदन तिलक करने की परंपरा है। ऐसा वे ही लोग करते हैं, जो सभी धर्म और संप्रदाय के प्रति समान दृष्टि रखते हैं। काले टीके का प्रयोग कापालिक लोग करते हैं।
इस प्रकार तिलक या टीका एक धार्मिक प्रतीक होते हुए भी उसमें विज्ञान और दर्शन का साथ-साथ समावेश है। इनको समझ सकें और उनकी शिक्षाओं को आत्मसप्त कर सकें तो ही उसकी सार्थकता हैं। इससे कम में नहीं