मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः

August 2001

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मन सर्वशक्तिमान, सर्वगत और परमात्मा का एक कल्पनात्मक स्वरूप है। मन का परमात्मा के साथ घनिष्ठ संबंध है। मन और ब्रह्म दो भिन्न वस्तुएँ नहीं है। ब्रह्म ही मन का आकर धारण करता है। अतः मन अनंत और अपार शक्तियों का स्वामी है। मन स्वयं पुरुष है एवं जगत् का रचयिता है। मन के अंदर का संकल्प ही बाह्य जगत् में नवीन आकार ग्रहण करता है, जो कल्पना चित्र अंदर उदय होता है, वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होता है।

मन का स्वभाव संकल्प है। मन के संकल्प के अनुरूप ही जगत् का निर्माण होता है। वह जैसा सोचता है, वैसा ही होता है। मन जगत् का सुप्त बीज है। संकल्प द्वारा उसे जाग्रत किया जाता है। यही बीज पहाड़, समुद्र, पृथ्वी और नदियों से युक्त संसाररूपी वृक्ष को उत्पन्न करता है। मन ही जगत् का उत्पादक है। सत्, असत एवं सदसत् आदि मन के संकल्प हैं। जाग्रत्, स्वप्न और भ्रम आदि सभी अवस्थाएँ मन के रूपांतर हैं। देश और काल का विस्तार व क्रम भी मन के नियंत्रण में है। मन ही लघु को विभु और विभु को लघु में परिवर्तित करता रहता है।

मन में सृजन की अपार संभावनाएँ सन्निहित हैं। मन स्वयं ही स्वतंत्रतापूर्वक शरीर की रचना करता है। देहभाव को धारण करके वह जगतरूपी इंद्रजाल बुनता है। प्रत्येक मन का संसार भिन्न एवं अद्भुत होता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इस निर्माण प्रक्रिया में मन का महत्वपूर्ण योगदान है। मन का चिंतन ही उसका परिणाम है। यह जैसा सोचता है और प्रयत्न करता है वैसा ही उसका फल मिलता है।

मन के चिंतन पर ही संसार के सभी पदार्थों का स्वरूप निर्भर करता है। जिस वस्तु का जिस भाव से चिंतन किया जाता है, वह वस्तु उसी प्रकार से अनुभव में आने लगती है। सतत चिंतन से असत्य पदार्थ भी सत्य प्रतीत होने लगता है एवं विष भी अमृत बन जाता है। शत्रु एवं मित्र बन जाता है एवं शत्रु-बुद्धि से मित्र शत्रु हो जाता है। दुःख -सुख और खट्टा-मीठा सभी मन की कल्पनाएँ हैं। जैसा हमारा विचार होता है वैसा ही हमारा जगत्।

मन दृढ़ भावना के साथ जैसी कल्पना करता है, उसकी उसी रूप में उतने ही समय तक और उसी प्रकार का फल अनुभव होता है। अतः इस जगत् की वस्तु न सत्य है और न असत्य। जिसने जिसको जैसा समझा, उसे वह वैसा ही दिखाई पड़ता है। मन में उपजे विचार ही वासनाओं और क्रियाओं के रूप में दृष्टिगोचर होते है। इस तरह व्यक्ति अपने विचारों के संसार में निमग्न हो जाता है, क्योंकि उसी के अनुरूप उसको आस्वादन मिलता है। प्रत्येक वस्तु को वह अपने मन के अनुसार देखता है।

दृढ़ निश्चयी मन का संकल्प बड़ा बलवान होता है। वह जिस विचार में स्थिर हो जाता है, परिस्थितियाँ वैसी ही विनिर्मित होने लगती हैं। स्वयं में न तो नीम कटुआ है और न गुड़ मीठा, न अग्नि गरम और न चंद्रमा शीतल। मन जिसमें रमा वही उसका गुण प्रतीत होता है। बुरी-से-बुरी चीज एवं परिस्थितियों में भी वह आनंद उठा सकता है और अच्छी-से-अच्छी परिस्थिति में भी कष्ट एवं बेचैनी का अनुभव कर सकता है। शुद्ध एवं पवित्र मन की परिणति तत्काल एवं तत्क्षण होती है।

शुद्ध मन का आकार एवं स्वरूप प्रखर एवं प्रभावपूर्ण होता है। सतत अभ्यास द्वारा मन को शक्तिशाली बनाना संभव है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। अपने संकल्प बल द्वारा असंभव को संभव कर दिखाता है। ऐसा मन शरीर के नष्ट होने पर भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है। इसका निश्चय हिमालय के समान अटल एवं समुद्र

जैसा गंभीर होता है। सफलता इसकी दासी के समान है। निश्चित रूप से समस्त जड़ और चेतन मन के अधीन हैं। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है।

मन के होने के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं। यही सुख और दुःख की रचना करता है। यही सुख एवं ऐश्वर्य के साधन जुटाता है और यही भीषण दुःखों को आमंत्रण देता है। मन के अनुरूप ही मनुष्य होता है। शुभ अशुभ कर्मों के कारण भी यही है। मन को साधन लेने पर सभी सध जाता है। साधना का मूल यह मन ही है।

दृश्य जगत् इसकी इच्छाओं का मात्र छायाचित्र है। इच्छाओं के अवसान होते ही यह तिरोहित हो जाता है। मन द्वारा रचा हुआ यह एक महान् स्वप्न है। यह विभिन्न प्रकार के अगणित पदार्थों वाला, तत्वरहित संसार संकल्पनात्मक मन के कर्म द्वारा सृजित सृजन है। रेशम के कीड़े के समान मन अपनी वासना पूर्ति हेतु देह का निर्माण करता है। कुम्हार के घड़े के समान इसे गढ़ता है। हाड़-माँस की यह देह कुछ नहीं है, बल्कि मन की कल्पना द्वारा खड़ी की गई एक संरचना है। देह क्या है? यह पूर्वकाल की, अभ्यास द्वारा विनिर्मित वासनाओं की एक आवृत्ति है। देहभाव से मन को देहत्व का बोध होता है। इससे परे हो जाने पर मन देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर न तो कष्ट-कठिनाइयों का अनुभव होता है और न इसकी समस्या ही होती है। योगी अपने संकल्प बल द्वारा मन को परिपक्व कर लेते हैं। उनका सूक्ष्मशरीर विकसित हो जाता है। वे असाधारण शक्तियों एवं चमत्कारों के स्वामी बन जाते हैं।

शारीरिक रोगों का कारण भी मन ही है। मन को शुद्ध एवं पवित्र कर शरीर का नीरोग एवं स्वस्थ किया जा सकता है। मन की पवित्रता से वासना भी उच्चकोटि की बन जाती है। दुःख के दो कारण हैं आधि और व्याधि। शारीरिक दुःखों का नाम व्याधि है और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं। अज्ञानजनित मन अपने वश में नहीं होता। इससे मन में वासनाएँ उठती हैं। इसकी पूर्ति हेतु मानव बुरे कर्म में लिप्त हो जाता है। वह अनुचित कर्म करता है, अखाद्य भक्षण करता है, कुसंग में पड़ जाता है और अपने मन में कुविचारों को पोषण देने लगता है। इस प्रकार शारीरिक नस नाड़ियाँ ठीक-ठीक काम करना बंद कर देती हैं। इनमें व्यतिक्रम आने लगता है। प्राण का संचार अस्त व्यस्त हो जाता है और मनुष्य कमजोर एवं अशक्त पड़ने लगता है। पाचन, श्वसन, परिसंचरण आदि तंत्र बुरी तरह से प्रभावित होने लगते हैं। परिणामस्वरूप मनुष्य आधि व्याधि से जर्जर हो जाता है।

मनःसंस्थान को स्वस्थ एवं पुष्ट करके ही इसका निराकरण संभव है। श्रेष्ठ चिंतन से मन निर्मल होने लगता है। इसके लिए मन को सदा स्वाध्याय एवं सद्चिंतन में लगाए रहना चाहिए। मन को साध लेने पर वह वरदान बन जाता है। मन एक देहरी पर खड़ा नीचे दृश्य जगत् की ओर झाँक सकता है और ऊपर चेतना के उच्चस्तरीय आयामों में भी गति कर सकता है। अच्छा यही है कि सतत साधना से हम इसे उच्चस्तरीय आयामों की ओर प्रेरित करें।


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