सँभालो जीवन की जागीर को

August 2001

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तर्कशास्त्र के महान् पंडित श्री रामनाथ जी नवद्वीप के समीप निर्जन वन में विद्यालय स्थापित कर अनवरत विद्या का दान करने लगे। यह अठारहवीं सदी का समय था। उस समय में कृष्णनगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। महाराज शिवचंद्र नीतिकुशल शासक होने के साथ ही विद्यानुरागी भी थे। उन्होंने भी पं. श्री रामनाथ की कीर्ति सुनी। पर साथ में उन्हें यह जानकर भारी दुःख हुआ कि ऐसा महान् एवं उदभट विद्वान गरीबी में फटेहाल दिन काट रहा है। महाराज ने स्वयं जाकर स्थिति का अवलोकन करने का विचार किया। पर वह जब पंडित जी की झोंपड़ी में पहुँचे तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि पंडित जी बड़े ही शाँत भाव से विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं।

महाराज को देखकर पं. रामनाथ जी ने उनका उचित स्वागत किया। कुशल-क्षेम के उपरांत कृष्णनगर नरेश ने उनसे पूछा, ‘पंडित प्रवर । मैं आपकी क्या मदद करूं?’ पंडित रामनाथ जी ने कहा, ‘राजन्। भगवत्कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं, अब मैं पूर्ण हूँ। ‘राजा शिवचंद्र कहने लगे, ‘विद्वत्वर । मैं घर खरज के बारे में पूछ रहा हूँ। संभव है घर खरज में कोई कठिनाई आ रही हो?’

पंडित रामनाथ जी ने राजा शिवचंद्र की ओर एक ईषत् दृष्टि डाली और फिर किंचित् मुस्कराए। उनकी दृष्टि और मुस्कान का यह सम्मिलित प्रकाश ब्राह्मणत्व का वैभव बिखेर रहा था, पर कृष्णनगर नरेश इससे अनजान थे। उनका प्रश्न यथावत था। उनकी जिज्ञासा पर्ववत थी। वह पंडित जी को कुछ देने के लिए उत्सुक-उतावले थे।

महाराज शिवचंद्र की मनःस्थिति को भाँपकर रामनाथ जी कहने लगे, ‘राजन्। घर के बारे में, घर के खरचों के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती है। यदि आपको कुछ पूछना हो तो उन्हीं से पूछ लें।’

कृष्णनगर नरेश पंडित जी के घर गए और पं. रामनाथ जी की साध्वी गृहिणी से पूछा, ‘माताजी घर खरच के लिए कोई कमी तो नहीं है?’

अनुसूया, मदालसा की परंपरा में निष्णात् उन परम साध्वी ने कहा, ‘महाराज। भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?’

‘फिर भी माताजी।’ लग रहा था कि राजा शिवचंद्र कुछ अधिक ही जानने को उत्सुक हैं।

‘महाराज। कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। पानी रखने के लिए मिट्टी का घड़ा है। खाने के लिए विद्यार्थी सीधा ले आते है। झोपड़ी के बाहर खड़ी चौलाई का साग हो जाता है और भला इससे अधिक की जरूरत भी क्या है? यही कारण है कि हमें तंगी नहीं प्रतीत होती।’

उस वृद्ध नारी के ये वचन सुनकर महाराज मन-ही-मन श्रद्धानत हो गए। फिर भी प्रकट में उन्होंने आग्रह किया, ‘देवि। हम चाहते हैं कि आपको कुछ गाँवों की

जागीर प्रदान करें। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं होगा।’

उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कराई और कहने लगी, ‘राजन्। प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवनरूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार सँभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता।’

इस संतुष्ट और श्रुत साधक दंपत्ति के चरणों में नरेश का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।


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