सर्वत्र पूजे जाते हैं (kahani)

August 2001

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जापान के एक बौद्ध भिक्षु ने अपने मत के धर्मग्रंथों को प्रकाशित करने के लिए धन एकत्रित किया। उस वर्ष पानी न बरसा। भिक्षु ने वह पैसा पीड़ितों की सेवा में लगा दिया। दूसरे वर्ष बाढ़ आई। इस बार का संग्रहित पैसा उसमें लगाया गया। तीसरी बार के संग्रह से ग्रंथ छपा। उस पर ‘तीसरा संस्करण’ लिखा हुआ था। पूछने पर बताया गया कि दो संस्करण उन्हीं को दीख सकते हैं, जिन्हें प्रेम और सेवा की आँखें मिली हों।

सुकरात बहुत कुरूप थे, फिर भी वे सदा दर्पण पास रखते थे और बार-बार मुँह देखते थे। एक मित्र ने इस पर आश्चर्य किया और पूछा, तो उन्होंने कहा, ‘सोचता यह रहता हूँ कि इस कुरूपता का प्रतिकार मुझे अधिक अच्छे कार्यों की सुँदरता बढ़ाकर करना चाहिए। इस तथ्य को याद रखने के लिए दर्पण देखने से सहायता मिलती है।’

इस संदर्भ में एक दूसरी बात सुकरात ने कही, ‘जो सुँदर हैं, उन्हें भी इसी प्रकार बार-बार दर्पण देखना चाहिए और सीखना चाहिए कि ईश्वरप्रदत्त सौंदर्य में कहीं दुष्कृत्यों के कारण दाग-धब्बा न लग जाए।’ उनका मत था, मनुष्य में चंदन जैसे गुण होने चाहिए, सुडौल हो या बेडौल, बिखेरे सुगंध ही।

‘क्या तुम मेरे समान शक्ति नहीं चाहतीं?’ कहकर ‘आँधी’ अपनी छोटी बहन मंदवायु की ओर देखने लगी।

कुछ उत्तर न पाकर वह फिर कहने लगी, ‘देखो, जिस समय में उठती हूँ, उस समय दूर-दूर तक लोग तूफान के चिन्हों से मेरे आने का संवाद चारों ओर फला देते हैं। समुद्र के जल के साथ ऐसा किलोल करती हूँ कि पानी की लहरों को पर्वत के समान ऊपर उछाल देती हूँ। मुझे देखकर मनुष्य अपने घरों में घुस जाते हैं। पशु-पक्षी अपनी जान बचाकर भागते फिरते हैं। कमजोर मकानों के छप्परों को भी उड़ा फेंक देती हूँ, मजबूत मकानों को पकड़कर हिला देती हूँ। मेरी साँस से राष्ट्र-के-राष्ट्र धूल में मिल जाते हैं। क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुममें भी मेरे समान शक्ति आ जाए।’

यह सुनकर वसंत की मंदवायु ने कुछ उत्तर न दिया और अपनी यात्रा पर चल पड़ी। उसको आते देखकर नदियाँ, ताल, जंगल, खेत सभी मुस्कराने लगे। बगीचों में तरह-तरह के फल खिल उठे। रंग-बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ गए। सुगंधि से चारों ओर का वातावरण भर गया। पक्षीगण कुँजों में आकर बिहार करने लगे। सभी का जीवन सुखद हो गया। इस तरह से अपने कार्यों द्वारा वसंत वायु ने अपनी शक्ति का परिचय आँधी को करा दिया।

महामानवों का जीवनक्रम भी वसंत की मंदवायु के समान सुरभि-सौंदर्य-प्रसन्नता चारों ओर फैलाने वाला होता है। वे पराक्रम में नहीं, सौजन्य में महानता देखते हैं, इसी कारण वे सर्वत्र पूजे जाते हैं।


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