अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठ विचारों का स्नान करा देना ही ध्यान कहलाता है। न जाने हमें क्यों समझ में नहीं आता, किंतु वस्तुतः हमारी समस्त समस्त समस्याओं का मूल कारण व्यक्तित्व के गठन में संव्याप्त कमियों में छिपा हुआ है। दुःख, सुख जो भी हमें बहिरंग में अनुभूत होता है, इस व्यक्तित्व में आए बिखराव के कारण ही। व्यक्तित्व को सही ढंग से निखार लेना, उसका सुनियोजन करना जिस दिन मनुष्य को आ जाता है, उसकी सारी समस्याओं -कष्टों परेशानियों का अंत हो जाता है। जीवन जीने की कला के नाम से जिस विधा को पुकारा जाता है, वह यही अध्यात्म साधना है, जिसकी ध्यान एक क्रिया है।
ध्यान मात्र एकाग्रता नहीं है। वह तो मात्र इसकी पहली अवस्था है। जब व्यक्ति का व्यक्तित्व व्यवस्थित ही नहीं, पूर्णतः प्रकाशित भी होने लगता है परमात्म चेतना के दिव्य प्रकाश से, तब ध्यान संपन्न हुआ माना जाता है। प्रकाशवान व्यक्तित्व का प्रमुख लक्षण है शाँत विचारशील मन जो सतत् श्रेष्ठ विचारों में निमग्न रहता है, आदर्शों के लिए स्व को खपा देने वाला चरित्र तथा सभी से सामंजस्य स्थापित कर लेने वाला व्यवहार।
ध्यान को भी जनसाधारण ने एक कर्मकाण्ड का मान लिया है, कुछ विशेष बाह्योपचार समझ लिया है। कर्मकाण्ड यदि हैं तो शृंगार मात्र, यदि नहीं है तो भी ध्यान का मर्म समझ में आ जाये तो अनिवार्य भी नहीं। व्यक्तित्व की सुव्यवस्था-आमूलचूल परिष्कार व्यक्ति को मूर्च्छना से जगाकर उसको आत्म जाग्रति की स्थिति में लाकर व्यक्तित्व के विस्तार की जानकारी कराना ही ध्यान का मूल उद्देश्य है। चाहे यह प्रयोग निराकार परब्रह्म की चेतना से एकाकार होने के रूप में संपन्न हो अथवा नाटक के माध्यम से दीपक की लौ पर ध्यान द्वारा इष्ट पर केन्द्रित लययोग की साधना द्वारा -नादयोग के माध्यम से, दिव्य ध्वनियों के श्रवण द्वारा अथवा सौर चेतना पर केन्द्रित आत्मचेतना द्वारा लक्ष्य सभी का एक है आँतरिक सुव्यवस्था व बहिरंग के साथ सामंजस्य।